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धर्मो रक्षति रक्षितः अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च

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अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं। परन्तु जब धर्म पर आंच आए तो यह नहीं कह सकते कि हम अहिंसक हैं, इसलिए कायर बनकर मार खाते रहेंगे; उस समय। धर्म की रक्षा करने के लिए प्रतिकार करना सबसे बड़ा धर्म होता हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सदा अहिंसा का मार्ग मनुष्य को अपनाना चाहिए, परन्तु यदि उसके धर्म पर और राष्ट्र पर कोई आंच आए, तो पाण्डवों की तरह अहिंसा का मार्ग त्यागकर, डटकर शत्रु का मुकाबला करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी के परिवार को कोई हानि पहुँचता हैं, उसका उत्तर तो देना ही पड़ता है। मनुष्य का पहला कर्त्तव्य या धर्म अपने घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के हितार्थ होता है।

प्रियंका सौरभ

अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: इस श्लोक के अनुसार अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं और जब-जब धर्म पर आंच आये तो हिसां ही श्रैष्ठ है। अगर ये सच है तो क्या भारत का गौरवशाली इतिहास तोड़ मरोड़कर पेश किया गया है? गीता के उपदेश भी अधूरे बताए गए। हमें सिखाया गया कि अहिंसा परमो धर्मः यानि अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म है। जबकि, पूरा श्लोक है कि अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:, इसका अर्थ है कि अहिंसा मनुष्य का परम धर्म है और धर्म की रक्षा के लिए हिंसा करना उससे भी श्रेष्ठ है। हमें अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए, लेकिन हमारे धर्म पर और राष्ट्र पर कोई आंच आए तो अहिंसा का मार्ग त्याग कर हिंसा का रास्ता अपनाना चाहिए। क्योंकि वह धर्म की रक्षा के लिए उठाया गया कदम है। हिंदू देवी-देवता शस्त्र और आशीर्वाद की मुद्रा में होते हैं, क्योंकि वह निर्दोष को क्षमा करते हैं और पापी को दंड देते हैं। कुछ राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए अधूरे श्लोक की व्याख्या की है। अहिंसा हिंदू धर्म का प्रतीक है केवल तब तक जब तक बात धर्म की मर्यादा की हो।जब बात धर्म की हानि की हो तो भगवान भी हिसंक और हिसां का रास्ता अपनाना श्रैष्ठ समझते हैं।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ 4।7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम।।
धर्मसं स्थापनार्थाय संभावनामि युगे युगे ॥ 4।8॥
यानी जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं प्रकट होता हूं (अवतार होता हूं)| (श्रीमद्भगवद्गीता 4।7) साधुजनों का विनाश करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की स्थापना करने के लिए, मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | (श्रीमद्भगवद्गीता 4।8)
प्रख्यात धार्मिक लेखिका चन्द्रप्रभा सूद कहती है, “धर्म मनुष्य को घुट्टी में पिलाया जाता है। बच्चा जब बोलने लगता है, तब माता-पिता उसे अपने इष्ट देव की स्तुति स्मरण करवाने लगते हैं। जब बच्चा उसका शुद्ध उच्चारण करते हुए उसे कण्ठस्थ कर लेता है, तो वे फूले नहीं समाते। माना यही जाता है कि धर्म दिलों को जोड़ने के लिए एक पुल का कार्य करता है। विश्व का कोई भी धर्म आपस में वैमनस्यता फैलाने का कार्य नहीं करता। धर्म के नाम पर यदि दंगे-फसाद या मारकाट होने लगे, तब इसके कारण और निवारण पर मनुष्य को अवश्य ही विचार कर लेना करना चाहिए। धर्म हर मनुष्य का बेशक व्यक्तिगत मामला होता है, परन्तु उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है। यदि धर्म को हम मनुष्य का कर्त्तव्य मानते है, तो भी उसका व्यक्तिगत आचरण निस्सन्देह उसके अपनों तथा समाज पर अपना प्रभाव छोड़ता है। ‘देवी भागवत’ नामक पुराण में महर्षि वेदव्यास ने कहा है-

परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ।
धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकनिकृष्टमेव च॥
अर्थात् जो धन-सम्पत्ति तथा मन की इच्छा धर्म के विपरीत हो, उसका त्याग करना चाहिए। जो धर्म भविष्य में संकट उत्पन्न कर सकता है या किसी समाज के प्रतिकूल सिद्ध हो सकता है, उस धर्म में भी परिवर्तन करना आवश्यक है। इस श्लोक में यह समझाया गया है कि धन-वैभव या कोई कामना यदि धर्म के विरुद्ध हो, तो मनुष्य को चाहिए कि वह उनका त्याग कर दे। आने वाले समय में यदि धर्म से संकट उत्पन्न होने की आशंका हो, तो उस धर्म में परिवर्तन कर देना ही श्रेयस्कर होता है। कहने का तात्पर्य यही है कि यदि धर्म जोड़ने के स्थान पर तोड़ने का कार्य करने लगे, तो विद्वत सभा को उस पर विचार करके, उसमें परिवर्तन कर देना चाहिए। यही मानव जाति के लिए उत्थान के लिए आवश्यक होता है।हमारे प्राचीन ग्रन्थ धर्म के विषय में कहते हैं-

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।
अर्थात् जो धर्म का नाश करता है, उसका नाश धर्म कर देता है और जो धर्म की रक्षा करता है, उसकी धर्म रक्षा करता है। मरा हुआ धर्म हमें न मार डाले, इस भय से धर्म का त्याग कभी न करना चाहिए। धर्म का आशय व्यक्ति के अपने कर्त्तव्य, नैतिक नियम, आचरण आदि से है। जो व्यक्ति इन सबका ईमानदारी से पालन करता है, वह धर्म की रक्षा करने वाला होता है। प्राचीन धर्मशास्त्रों में धर्म के स्वरुप का विभिन्न रूप से वर्णन किया गया है। सामाजिक नियमों के अनुरूप इन सभी कर्तव्यों या नियमों को बताया गया है। ब्राह्मण का कर्त्तव्य क्षत्रिय से सर्वथा अलग बताया गया है, वैश्य और शूद्र के कार्य भी यहाँ अलग-अलग बताए गए हैं। इसी तरह एक स्त्री के कर्त्तव्य भी पुरुष से भिन्न कहे गए हैं। ये सब कर्तव्य धर्म और विधान से जुड़े हुए हैं, इसलिए इस विधान को चुनौती देना धर्म सम्मत नहीं कहा गया, इसे धर्म की अवमानना करना समझा जाता था। इसके लिए मनुस्मृति में दण्ड का विधान भी किया गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद्भागवद्गीता’ में अहिंसा को परम धर्म माना है-

अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च।
इस श्लोक के अनुसार अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं। परन्तु जब धर्म पर आंच आए तो यह नहीं कह सकते कि हम अहिंसक हैं, इसलिए कायर बनकर मार खाते रहेंगे। उस समय। धर्म की रक्षा करने के लिए प्रतिकार करना सबसे बड़ा धर्म होता हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सदा अहिंसा का मार्ग मनुष्य को अपनाना चाहिए, परन्तु यदि उसके धर्म पर और राष्ट्र पर कोई आंच आए, तो पाण्डवों की तरह अहिंसा का मार्ग त्यागकर, डटकर शत्रु का मुकाबला करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति किसी के परिवार को कोई हानि पहुँचता हैं, उसका उत्तर तो देना ही पड़ता है। मनुष्य का पहला कर्त्तव्य या धर्म अपने घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के हितार्थ होता है।

-प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,