चरण सिंह
श्रीकृष्ण की नगरी में अन्याय के खिलाफ एक और देवकीनंदन ने मोर्चा खोला। हां इन देवकीनंदन ने गांधीवादी बनकर व्यवस्था से लड़ना चाहा और दम तोड़ गया। मामला कितना पीड़ादायक है कि देवकीनंदन नाम के इस बुजुर्ग ने अनशन करते-करते दम तोड़ा है। यह बुजुर्ग चार महीने तक भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन करता रहा और किसी को कोई असर नहीं पड़ा। भ्र्ष्टाचार के खिलाफ लड़ाई तो यह 13 साल से लड़ रहा था।
भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर समाज के लिए अपनी जान जोखिम में डाल कर बैठे इस बुजुर्ग ने सोचा भी न होगा कि यह निर्दयी व्यवस्था श्रीकृष्ण की नगरी में भी उनकी जान ले लेगी। चार महीने तक न तो सत्ता पक्ष के लोगों को इनका संघर्ष दिखाई दिया और न ही विपक्ष के लोगों को और न ही उन लोगों ने इन बुजुर्ग की चिंता की जिनके लिए यह अनशन कर रहे थे। मतलब लोगों की नजरों में अब भ्रष्टाचार का कोई मुद्दा है ही नहीं। कहना गलत न होगा कि यह अपने आप में प्रश्न है कि देवकीनंदन शर्मा नाम के इन बुजुर्ग ने किन कायरों और बुजदिल लोगों के लिए के लिए अपनी जान दे दी। यदि ऐसा नहीं है तो फिर बड़ी बड़ी बात करने वाले लोग कहां हैं ? जाति धर्म के नाम पर एक दूसरे की जान लेने पर उतारू लोग कहां हैं ?
कहां हैं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ? जो उत्तर प्रदेश सब कुछ ठीक होने का दंभ भरते रहते हैं। क्या चार महीने से आंदोलन कर रहे इस बुजुर्ग की पीड़ा सीएम योगी तक नहीं पहुंची ? नहीं पहुंची तो फिर उनका एलआईयू विभाग क्या कर रहा था ?
नौहझील थाना क्षेत्र में चार महीने से भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठे इस बुजुर्ग की तबीयत ख़राब भी हुई पर प्रशासन ने उनकी मांग न मानी। इन बुजुर्ग ने जिला अस्पताल में दम तोड़ा है। अंतिम समय में भी उन्होंने इलाज कराने से पहले अपनी मांगों का समाधान लिखित में मांगा। जिला प्रशासन लिखित में उनके समस्याओं का समाधान का आश्वासन न दे सका। ऐसा भी नहीं था कि उनकी मांगे कोई ऐसी हों जिनका समाधान न हो सके।
इन अनशनकारी बुजुर्ग की मांगें थी कि जिला पंचायत राज अधिकारियों के किए गए कामों, गांव में शौचालय, सामुदायिक शौचालय, मिनी सचिवालय, मनरेगा जैसे मामलों में भ्रष्टाचार की जांच करना थी। वह चाहते थे कि इन मामलों में हो रहे करप्शन की जांच की जाए और गुनहगारों को सजा दी जाए। इन मांगों में ऐसी कौन सी मांग है जो पूरी न हो सके।
दिलचस्प बात यह है कि यह बुजुर्ग अपने या अपने परिवार के लिए अनशन नहीं कर रहे थे बल्कि समाज के लिए अनशन कर रहे थे। स्थानीय लोगों ने भी उन्हें मर जाने दिया। शर्मा की मौत नेताओं के लिए तो शर्म की बात है पर स्थानीय लोगों भी इस बुजुर्ग की मौत की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते हैं।
ऐसा भी नहीं है कि देवकीनंदन शर्मा कोई अचानक आंदोलन कर रहे थे ? वह पिछले 13 सालों से लगातार भ्रष्टाचार की शिकायत भेज रहे थे। मतलब अखिलेश सरकार और योगी सरकार को उनकी आवाज सुनाई न दी। इन बुजुर्ग ने अपनी मांगों को मनवाने के लिए धरना, अनशन, पद यात्रा तमाम माध्यम अपनाये पर उनकी एक न सुनी गई। पता चला है कि उनकी मांगों को न मानकर अधिकारियों ने शिकायतों पर गलत रिपोर्ट लगाकर मामलों को रफा-दफा कर दिया। लेकिन इसके बावजूद इन समस्याओं को लेकर वह आमरण अनशन पर बैठे और अपने तरीके से विरोध करते रहे।
जानकारी मिली है कि देवकीनंदन की लगातार बिगड़ रही तबीयत को देखते हुए सोमवार शाम एसडीएम आदेश कुमार धरनास्थल पहुंचे थे। अनशन खत्म कर शरीर का चेकअप कराने को कहा पर क्रांतिकारी देवकीनंदन ने अपनी जान से ज्यादा जरुरत जनहित को समझा और लिखित में समस्याओं का समाधान मांग लिया। एसडीएम भी अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात की वजह से इस पर बात नहीं बनी। ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि बात इस बुजुर्ग की जान पर बन आई थी तो जिन अधिकारियों के स्तर की मांग थी तो उनसे बात क्यों नहीं की गई।
मंगलवार देर शाम उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ गई तो परिजन सीएचसी नौहझील ले गए, लेकिन जिला अस्पताल रेफर कर दिया गया और वहां उन्होंने दम तोड़ दिया। देखने की बात यह है उनको अस्पताल जिला प्रशासन या फिर आंदोलनकारी नहीं ले गए बल्कि परिजन ले गए। मथुरा में तमाम संगठन हैं जो जनहित को मुद्दों को लेकर आंदोलन करने की बात करते हैं। ये सभी संगठन कहां थे। मतलब किसी कोई भ्रष्टाचार से कोई मतलब नहीं है। अपनी अपनी दुकान चला रहे हैं। यह बुजुर्ग ईमानदारी से लोगों के लिए लड़ रहा और जान दे गया पर लोगों को क्या ? उन्हें तो गुलाम बनकर रहना है। प्रभावशाली लोग उनका हक़ मारते रहे और वह तमाशबीन बने रहे।