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Death Anniversary : शराब की दुकान जलाने से बात बनती है तो जला दो जनता का यह अधिकार है : गोकुलभाई भट्ट

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 -सुधेन्दु पटेल

राजस्थान के पांच बडे़ नेताओं में से एक गोकुलभाई भट्ट प्रदेश के गांधी माने जाने हैं। गांधी दर्षन को आचरण में समेटे हुए 86 वर्षीय गोकुल भाई आज भी जनता की सेवा में सक्रिय रूप से समर्पित हैं। सादगी और सहजता में वे बालक की तरह हैं। निष्चलता, निर्भीकता सिंद्वात के प्रति दृढ़ता एवं स्पष्टवादिता उनके व्यवहार का स्वाभाविक हिस्सा है। पद पर रहते हुए भी वे हमेशा ’जनक’ की तरह ’विदेह’ रहे हैं। पुस्तको के बेहद शौकीन हैं। शराब मिटाने के लिए सतत सक्रिय है।

शराबबन्दी की लड़ाई में उम्र उनके लिए बाधा नहीं बनती। शराब के खिलाफ आज भी वे एक युवा आंदोलनकारी का मन लिए हैं। उनसे मिलना एक सच्चे संत से मिलना है। मिलते ही बोले  भाई क्या परीक्षा लेने आये हो ?फिर उघाडे़ बदन कान में यंत्र लगा कर बोले, हाँ  तो सवाल पूछ रहे हो पूछो भई, कुछ निकले तो।
अभी-अभी राष्ट्रपति से आप मिल आये, क्या चर्चा हुई ?
उनको स्थिति और विधेयक का विवरण बताया। यह भी कहा कि इसमें बताये गये कारण बेबुनियाद है। आप जांच करके राज्य सरकार को सलाह दें। उन्होने कहा कि विधानसभा ने पारित कर दिया है। मेरे पास औपचारिक रूप से ही अब आयेगा। फिर भी जो संभव होगा वह करूंगा। लेकिन आप जो चाहो कि मैं रोक दूँ, यह तो अब नहीं हो सकेगा।
आपने 1973 में शराबबन्दी से होने वाले राजस्व की पूर्ति के लिए एक ’सरल, कारगर योजना दी थी, उसे दुहरायेंगे?
यह योजना अजमेर सत्याग्रह के वक्त मैंने प्रधानमंत्री को दी थी। शराब परमिट से देने की बात कही थी ताकि आदतन शराबियों की स्वतंत्रता पर कोई हल्ला न हो और उससे आमदनी भी होगी जो कम नहीं होगी। मुझे जवाब दिया गया था कि इतनी परमिटें लोग नहीं लेंगे जितनी आप बताते हो।
लेकिन अपनी योजना में तो आपने गांजा, भांग, अफीम और लाटरी तक की आय को जोड़ लिया था।
उस योजना में व्यावसयिक स्प्रिट, अफीम, भांग आदि की आय तथा प्रशासनिक कड़ाई से प्राप्त जुर्माने की आय की बात भी थी। यह सारी आय मिलाकर सरकार को अफसोस करने लायक घाटा नहीं होगा। प्रषासनिक खर्चे भी कम होंगे।
आपको संपूर्ण व्यसन मुक्ति जरूरी नही लगती। एक बुराई की समाप्ति के लिए दूसरी अन्य बुराईयों की आय से क्षतिपूर्ति नैतिक कैसे हो सकती है ?
यह आप किस आधार पर कहते हैं। मै तो पष्चिमी राजस्थान का ही हूँ । मेरे इलाके में अफीम ज्यादा नहीं चलती। यह मानता हँू कि कुछ इलाको में अफीम खूब चलती है। जोधपुर में है। लेकिन अफीम बन्दी है। परमिट से प्राप्त होती है।
लेकिन सवाल है कि शराब के अलावा भी नशे  हैं जो खतरनाक है। जैसे सस्ती नशीली दवाएं। हां यह सब भी होनी चाहिए बन्द। आपकी मांगों में तो यह जिक्र नहीं है।
नहीं…. नहीं…. मांग हमारी …….. ऐसा है कि हम एक-एक सीढ़ी चढ़ रहे हैं। पहले शराब को ले रहे है फिर दूसरी चीजों को लेंगे। हमारी आखिरी मंजिल तो पूर्ण नशाबंदी ही है।
नशीली दवाएं सस्ती और सुलभ भी है जिससे बड़ी संख्या में युवाजन इसकी चेपट में आ रहे हैं।
हमने सरकार का ध्यान दिलाया है कि ये दवाइयां भी बन्द होनी चाहिए। कुछेक दवाइयां बन्द भी की है, कर रहे हैं। यह जवाब आबकारी विभाग ने दिया हैं।
आज भी समाज व्यवस्था में  शराब बहुत छोटा-सा केन्द्र बिंदु हैं।  जो लालच का जाल फैलाया जा रहा है जैसे प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा कि भ्रष्टाचार तो पूरी दुनिया में है, ऐसी स्थिति में केवल शराब .?
प्रधानमंत्री का यह कोई तर्क नहीं हैं।इस परिप्रेक्ष्य में यह आंदोलन एकांगी नही लगता ?
हमारी शक्ति जितनी है उतना ही हम काम करेंगे। हम सर्वव्यापी हो जाएं यह अपेक्षा हो सकती है लेकिन हम शक्ति भर ही काम करेंगे। हम यह जरूर मानते हैं कि सब चीजों को साथ में लिया जाना चाहिए लेकिन हमारे हाथ तो छोटे हैं। शायद हम सबको नहीं पकड़ सकंे।
आप क्या पकड़ पाते हैं, इसका क्या मानदण्ड है ?
हम एक-एक चीज को पकड़ने जा रहे हैं। मकान के उस हिस्से की मरम्मत पहले करेंगे जो गिरने जा रहा है या कमजोर है। खंभा पहले उधर ही लगाऊंगा।

क्या एक एक के क्रम की प्रक्रिया पूर्णतः गांधीवादी है ? इससे क्या आप समग्र विकास की कल्पना कर लेते हैं ?
गांधीवादी का मतलब इतना ही है कि ’एक साधे सब सधै …। एक को साधने से शक्ति बढ़ेगी। अगर जनता तय कर ले कि हमें शराब, भ्रष्टाचार या गोहत्या बन्द करनी है। ऐसी स्थिति में एक-एक चीज हाथ में लेने से जनता सक्षम हो जाएगी। उसमें हौसला आएगा कि हम कामयाब हो सकते है।
आपके आंदोलन का एक नारा हैं ’शराब हटी गरीबी मिटी’-यह सटीक है क्या ?
जो गरीब में भी गरीब है उनकी पूरी कमाई शराब में जाती है। यह लत बुरी है शराब से मुक्त होने पर उसकी आय बचती है। मजदूर और हरिजन वर्ग सुखी हुआ है जहां ऐसा उपक्रम किया गया हैं। यह बात सर्वेक्षणों से प्रमाणित हो चुकी हैं।
आपको नहीं लगे हैं कि हमारा रूख नकारात्मक है दरअसल हम साफ बात करना चाहते हैं कि गांधीजी  ने खादी वृद्धि  ही बात कही थी। आपको नहीं लगता कि आज खादी एक धंधा बन गया है?
खादी आज एक राहत का कार्य बन गया है। धंधा यानी संस्था और दूकानें तो बेचने के लिए रखनी ही पड़ती है। आखिर कहीं न कहीं तो धंधा है। यह व्यापार की चीज बन गयी है।
नहीं, हमारा सवाल है कि जो कार्यकर्ता लगे हैं उनमें एक संकल्प, एक मिषन की बजाय रूढ़ता आ गयी है। संकल्प, लगाव और चेतना की बात जाती रही है। आप नहीं स्वीकारते ?
आपका आषय संभवतः कार्यकर्ताओं के धंधार्थी बनने से ही होगा। देखिए ऐसा है कि इसमे नये-नये लोग हैं। गांधीजी के जमाने में भी सब लोग कोई मिषन वाले नहीं थे ? उस समय भी कुछ आदमी नौकरी पेशा ही थे। कहीं नौकरी नहीं मिली तो यहीं कर लो। आज ऐसे लोगों का प्रतिशत ज्यादा जरूर है।
आप नहीं मानते कि प्रषासनिक खर्च और चकाचौंध के बाजार से होड़ लेने की प्रकृति खादी के महंगेपन का कारण है ? खादी देशवासियों को नसीब नहीं लेकिन खादी विदेश भेजी जाती है। खादी फैशन बन गया है आपको इस पर आपति नहीं होती ?
खादी का अभी तक अंग है। वह पूरा अंग नहीं है कि खादी के द्वारा स्वराज्य या स्वावलम्बन हम प्राप्त करें। हम प्रयत्नशील हैं। मैं मानता हँू कि खादी को ग्राम स्वराज्य का प्रतीक होना चाहिए। चरखा सारे गांव के उद्योगों का सूर्य बने। गांव शहर आश्रित न हो। तब तो हम समझंेगे की खादी की भावना उपजी है।
खादी के पीछे स्वदेशी वस्तुओं से लगाव का दर्षन रहा है लेकिन आज खादी आंदोलन के नेता खादी पहनते तो हैं किंतु शेष जीवनपयोगी वस्तुओं के लिए स्वदेषी का आग्रह नहीं दिखता है, यह विडम्बना नहीं है क्या ?
वे खादी पहनते तो हैं इतना तो काम करते हैं। उनका पहनना रूढ़ अर्थो में हैं। आपको मात्र इतने से ही संतोष हैं।
कोई आदमी थोड़ा सा भी अच्छा काम करता है तो उसको अभिनंदन देना चाहिए ही।
अवष्य अभिनंदनीय है। लेकिन वर्षो से जुड़े आदमी का मानस न बने। यह बड़ी विचित्र स्थिति है। इससे कई चीजें जुडी हुई हैं।
यह मानस नहीं बना है उसमें कमी हम लोगों की ही है। लेकिन कमी से हम निराश नहीं हैं। कमी को दूर करने के प्रयत्न में लगे है, जो गांधी के विचार को थोड़ा भी समझते हैं, उन्हे उसी प्रयत्न में लगना चाहिए।
आप जयप्रकाश जी के विचारों से कहां तक सहमत हैं? यह सवाल इसलिए भी पूछना पड़ रहा है कि जयप्रकाशजी जनेऊ तोड़ने की बात कहते थे जबकि आप जनेऊ पहने हुए हैं।
मैं पुराने जमाने का आदमी हँू मैंने जनेऊ के बारे में अभी पूरा चिंतन किया नहीं है कि मुझे छोड़ देना चाहिए या रखना चाहिए। जब तक मुझे यह विष्वास नहीं हो जाये की इसे छोड़ देना चाहिए तब तक मेरे जो पारम्परिक संस्कार है उन पर मैं चल रहा हँू। आप मान के चलो कि इतना मैं बुढा बैल हूँ  ।
आप नवजवानों के आस्था बिन्दु है फिर उनकी दुविधा कैसे खत्म होगी?
उनकी दुविधा को तो ज्ञान से निकालना होगा, यह यज्ञोपवीत है। मैं जब गायत्री जप या यज्ञ करता हंू तब शव्य या अपषव्य करना पड़ता है व्यावहारिक तौर पर इसका उपयोग एक डोरी की तरह ही होता है। जनेऊ पहले सघन हुआ करते थे। लम्बे यज्ञ में हाथ को सहारा मिलता था। इसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। अभी तो आप मुझे पुराना बुद्धू मान लीजियें।
आपको सरकार के वर्तमान चरित्र से नहीं लगता कि वापस असहयोग आंदोलन की शुरूआत करनी होगी ?
ऐसी स्थिति भी आयेगी कि जब हमको ऐसा लगे कि यह सरकार तो गलत रास्ते ही जा रही है तो हमको असहयोग करना पडे़गा।
अभी नहीं लगता आपको सरकार गलत रास्ते पर जा रही हैं ?
अभी तो ….. अभी …. थोड़े …..अभी ….. हम असहयोग कर ही रहे हैं। नशाबंदी मण्डल की बातें जब मान्य नहीं हुई तो मैंने उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। खादी के काम में अगर ये नीति बदलेंगे तो मैं खादी बोर्ड में नहीं रहूंगा। मैं खादी को ग्राम स्वराज्य की पहली सीढ़ी मानता हूं। वे रोकेंगे तो हट जाऊंगा।
राज्यपालों से जो बर्ताव किया गया उसके बाद आप किस आशा से सत्ता का सहयोग कर रहे हैं। क्या औचित्य हैं ?
मुझे यह स्थिति नहीं लगती। मैं टीका टिप्पणी कर सकता हूं। रोका गया तो विरोध करूंगा। मैं सहयोग क्या करता हूं बताइये न ?
आपका नाम खादी बोर्ड के माध्यम से उनके साथ होना ही सबसे बडा सहयोग हैं, आपको नहीं लगता ?
समझो मैं अनशन पर बैठता हँू। वह कहेंगे कि आप अनषन पर बैठते हैं तो फिर खादी बोर्ड से हटना पडे़गा। मैं कहूंगा इसी निमित्त से छोड़ देता हूं।
तो आप एक राजनैतिक कौशल के रूप में खादी बोर्ड के अध्यक्ष पद पर अभी तक हैं ?
नहीं… नहीं…. राजकारण अलग है और राजनीति अलग है। सत्ता की राजनीति में नहीं हूं। राजकारण तो मेरी है ही। उसे मै जीवन के साथ संबंधित समझता हूं। राजकारण किसी के भी जीवन में छूटता नहीं हैं।
लेकिन राजनीति को मैं लोकनीति में बदलना चाहता हूं, जो नहीं हैं।
एक सवाल है कि कल को अगर इंदिरा गांधी या विनोबा भावे नम्रता से निवेदन करें कि आप शराबबंदी का विरोध कुछ समय के लिए स्थगित करके सहयोग करो क्या आप मान लेगें?
सहयोग की बात कहाँ  आयी। मैं क्या विरोध करता हँू, मैं तो कहता हँू कि मैं शराबबंदी का प्रयत्न करता हूँ। आंदोलन करता हँू। हां शराब जारी रखने में मैं एक क्षण भी सहयोग नही करूंगा।
सेवा के काम  में लगी संस्थाएं आज सरकार मुखापेशी हो गयी है। यह सहयोग की स्थिति नहीं हैं ?
हमारी संस्थाएं दबी हुई नहीं हैं।वे संस्थाएं स्वायत्त  संस्थाए हैं।
तो किसी सत्ता या सम्पति में हिस्सेदारी करके अपना काम चलाना कितना स्वयत्त होगा।
जो पैसा जिस काम के लिए मिला है उसी में खर्च करते हैं उससे जो मुनाफा होता है। उससे फिर सर्वोदय की गतिविधियांे को मदद करते हैं। सेवा का काम करते हैं।
आप यह मानते है कि सत्ता का भ्रष्ट पैसा उपयोग करना नैतिक होता हैं ?
उनका उपयोग जिस काम के लिए है। उसमें से जो मुनाफा होता है। उस मुनाफे का उपयोग जिन कार्यो के लिए संस्था बनायी है उसमें कर सकते है।
इंदिरा सरकार के धारक बांड के माध्यम से जो काला धन इकट्ठा किया हैं उसे ठीक मानते हैं ?
हमारी संस्थाओं में काले धन की बात नहीं हैं।हम शासन प्रणाली की बात कर रहे हैं।
काले धन को सफेद करने की क्रिया को आप नैतिक मानते हैं ?
नहीं, मैं नैतिक नहीं मानता हँू।लेकिन वह पैसा जब आपको मिल जाएगा तो वह नैतिक हो जायेगा ?
आपका कहना सही है। जो अनैतिक पैसा हमारे काम चलाने के लिए आता हैं उसमें अनैतिकता उपजेगी ही। शराब की आय के पैसे अनैतिकता बढे़गी।
(और फिर धर्मपरिवर्तन, विनोबा, नयी तालीम, ग्रामदान, राजनीति, लोक उम्मीदवार, गांधी शांति प्रतिष्ठान और एवार्ड के खिलाफ जांच तथा सर्वोदय के अन्य कार्यक्रमों की चर्चा से गुजरते हुए बात सघन ग्राम स्वावलम्बन के क्षेत्रों तक जा ठहरीं। उन्होंने बस्सी तहसील के एक जाग्रत गांव जैतपुरा की चर्चा प्रारम्भ की )
जैतपुरा में जब शराब का ठेकेदार दुकान खोलने पहुंचा तो उसे गांव वालों ने जगह नहीं दी। ठेकेदार ने कहा कि मेरे पन्द्रह हजार रूपये डूब जायेंगे। उस पर गांव के लोगों ने कहा कि तैने पूछ कर ठेका लिया था क्या ? उस पर ठेकेदार ने अपनी झोपड़ी स्वयं बनाने की बात कही। जनता ने विरोध किया कि इस गांव में शराब की दूकान नहीं खुलेगी। यदि तूने झोपड़ी डालकर ठेका चलाया तो हम झोपड़ी जला देंगे। वहां खादी का काम चलता हैं। उसी से जागृति आयी है।
क्या आप अपने आंदोलन को उस उग्रता तक ले जायेगें जब शराब की दूकानों को जलाया जायेगा ?
मैं पहले नहीं कहता। शराब की बोतलें फोड़ने तथा ताला लगाने की बात कहता हँू।
मान लीजिये ऐसी स्थिति में आंदोलन उग्र होता हैं तो होना चाहिये या नहीं ?
लगभग सौ साल पहले मेरे गांव हाथल (जिला सिरोही ) में पुलिस थाना आने की बात हुई, गांव वालों ने विरोध किया। लेकिन जबरदस्ती थाना बनाया गया तो लोगों ने राय करके थाने में आग लगा दी। थाना जल गया। लोग गिरफ्तार हुए। लेकिन प्रतिकार का असर हुआ  ……
यदि शराब की दूकानों के खिलाफ जनता ऐसा करती है तो ?
यदि जनता ऐसा करती है तो मैं उसे गलत नहीं मानूंगा। जो एक गन्दी खराब चीज है अगर उस चीज को जलाने से बात बनती है तो जनता का यह अधिकार है।