‘Upvaas’ of Dallewal : विश्वसनीयता, गरिमा और मजबूती की पुनर्बहाली

प्रेम सिंह

मार्च 2025 को जगजीत सिंह डल्लेवाल के उपवास के सौ दिन पार हो चुके हैं। संयुक्त किसान मोर्चा (गैर-राजनीतिक) और किसान मजदूर मोर्चा के तत्वावधान में रखी गई किसानों की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य समेत अन्य मांगों, सरकार से होने वाली तद्विषयक वार्ताओं और संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) के साथ ताल-मेल जैसे विषयों पर भविष्य में चर्चा चलती रहनी है। और जगजीत सिंह डल्लेवाल का उपवास भी। उपवास और ज्यादा दिनों तक खिंचता है तो उपवास के ‘मरण-व्रत’ बनने का भय भी बना रहेगा।  

 

दिल्ली के शिंघू बॉर्डर पर 2020-21 में हुए किसान प्रतिरोध के परिणाम स्वरूप तीन कृषि कानूनों को सरकार ने वापस लिया था। तभी से यह यक्ष-प्रश्न भी सामने खड़ा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों सहित शिक्षा, स्वास्थ्य और सेवा क्षेत्रों के निगमीकरण की तेजी से बढ़ती रफ्तार के साथ देश का विशाल कृषि क्षेत्र कैसे बचा रह सकता है! निगमीकरण के साढ़े तीन दशक के बाद बन कर सामने आए निगम भारत में जिस निजी पूंजी का पूजा-पर्व चल रहा है, उसके बारे में अर्थशास्त्रियों ने अभी यह सवाल उठाया ही नहीं है कि निजी पूंजी में सार्वजनिक धन की लूट का कितना हिस्सा है! आशा की जानी चाहिए की प्रोफेसर अरुण कुमार जैसे अर्थशास्त्री, जिन्होंने यह बताया है कि भारत की अर्थव्यवस्था में काले धन का कितना हिस्सा है, इस केंद्रीय प्रश्न पर भी विचार करेंगे। जो भी हो, किसानों और कारपोरेट शक्तियों की भिड़ंत में निर्णायक फैसला जल्दी होने की उम्मीद नहीं है।

 

लेकिन जगजीत सिंह डल्लेवाल के सौ दिन पार उपवास के लिए यह अभी और निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वह अन्याय के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध के इतिहास में दर्ज हो गया है। इस उपवास का महत्व और ज्यादा बढ़ जाता है जब हम पाते हैं कि उसने उपवास की विश्वसनीयता, गरिमा और मजबूती की पुनर्बहाली की है। मैं यहां प्रायोजित और आत्म-प्रचार के लिए किए जाने वाले उपवासों का उल्लेख नहीं करना चाहता। अपनी मांगों के लिए खनौरी बॉर्डर पर पिछले एक साल से ज्यादा से जारी संघर्ष के संयोजक अभिमन्यु कोहाड़ ने शिकायत की है कि मीडिया ने 2011 में अन्ना हजारे के 13 दिनों के उपवास को दिन-रात कवर किया, लेकिन उसका अल्पांश भी जगजीत सिंह डल्लेवाल के लंबे उपवास का नहीं किया।

 

दरअसल, यह तुलना ही गलत है। यह सच्चाई शुरू में ही सामने आ गई थी कि अन्ना हजारे मीडिया के लिए उपवास करते थे। उस उपवास-प्रकरण में शामिल शक्तियां और उनकी मंशा भी कोई छिपी हुई सच्चाई नहीं थी। उसका परिणाम भी वैसा ही निकल कर सामने आया – भारत का राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन निगम-सांप्रदायिक गठजोड़ (कारपोरेट-कम्यूनल नेक्सस) की कड़ी गिरफ्त में आ गया।   

 

जगजीत सिंह डल्लेवाल के सत्याग्रह उपवास में लगातार गंभीरता, गरिमा और विनम्रता बनी रही है। जगजीत सिंह डल्लेवाल और आंदोलन में शामिल किसान नेताओं/समर्थकों ने उपवास-स्थल को भाषणबाजी का मंच नहीं बनाया। इससे यह विश्वास पैदा हुआ है कि ‘बोलने से पहले तौलने’ का प्रमाणित जीवन-मूल्य वाचालता के कोलाहल में नष्ट नहीं हो गया है। कहना न होगा कि जगजीत सिंह डल्लेवाल की इस उपवास को लेकर पूरी मानसिक तैयारी थी। उपवास पर बैठने से पहले उन्होंने अपने जिम्मे के कुछ दुनियावी फर्ज निपटाए थे, और उधर से विरक्त हो गए थे। तब उनके कुछ पूर्व सहयोगियों को भी एहसास नहीं था कि वे सचमुच उपवास के साथ ‘मरण-व्रत’ पर बैठने जा रहे हैं।

 

जगजीत सिंह डल्लेवाल के उपवास के साथ वाकई प्रतिरोध के अहिंसक तरीके की एक छोटी-सी क्रांति हुई है – सत्याग्रह, सविनय नागरिक अवज्ञा, उपवास के बूते एक अकेले व्यक्ति का अन्याय के प्रतिरोध में निर्भय होकर डट जाना। वैश्विक स्रोतों से प्रेरणा ग्रहण करते हुए मोहनदास गांधी ने प्रतिरोध के इस तरीके का प्रयोग भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में किया था। डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गांधी की “अहिंसक कार्य-प्रणाली को उनकी सीख का सबसे ज्यादा क्रांतिकारी मर्म” बताते हुए लिखा है: “इसलिए, असली बात है व्यक्तिगत और आदतन सिवल नाफरमानी। हमारे युग की सबसे बड़ी क्रांति कार्य-प्रणाली की है, एक ऐसी कार्य-पद्धति के द्वारा अन्याय का विरोध जिसका चरित्र न्याय के अनुरूप है। यहां सवाल न्याय के स्वरूप का उतना नहीं हैजितना उसे प्राप्त करने के उपाय का। वैधानिक और व्यवस्थित प्रक्रियाएं अक्सर नाकाफ़ी होती हैं। तब हथियारों का इस्तेमाल उनका अतिक्रमण करता है। ऐसा न होऔर मनुष्य हमेशा वोट और गोली के बीच ही भटकता न रहेइसलिए सिविल नाफरमानी की कार्य-प्रणाली संबंधी क्रांति सामने आई है। हमारे युग की क्रांतियों में सर्वप्रमुख है हथियारों के विरुद्ध सिविल नाफरमानी की क्रांति … ।”  (‘मार्क्स गांधी एण्ड सोशलिज्म’पृष्ठ xxxi-ii)

 

यह सामान्य समझ की बात है कि सरकार द्वारा वापस लिए गए तीन कृषि कानून उसी अथवा बदले हुए रूप में लागू किए जाएंगे। सरकार ने कह भी दिया था, ‘कानून वापस लिए जा रहे हैं, पूर्णत: रद्द नही किए गए हैं।’ देश के राजनैतिक और बौद्धिक इलीट के बीच बनी नवउदारवादी सर्वसम्मति (निओलिबरल कन्सेंसस) के चलते यह होना ही है। लेकिन इससे प्रतिरोध की न जरूरत कम हो जाती है, न मूल्य। जब तक देश का एक भी नागरिक निगमीकरण के खिलाफ और स्वतंत्रता, स्वावलंबन एवं संप्रभुता का पक्षधर है, प्रतिरोध की जरूरत और मूल्य बना रहेगा।

 

सरकारें गोली चला सकती हैं। चुनावों में धांधली भी कर सकती हैं। लेकिन सरकार के फैसलों से असहमत नागरिकों के पास अपने प्राणों की बाजी लगा कर प्रतिरोध करने का रास्ता हमेशा उपलब्ध है। जगजीत सिंह डल्लेवाल का यह सत्याग्रह-उपवास सरकार के निगमवादी आदेशों के खिलाफ उनके और उनके सहयोगियों की खुली अहिंसक बगावत है। लोहिया ने अपने उपर्युक्त कथन के अंत में जोड़ा है, “यद्यपि वास्तविक रूप में यह क्रांति अभी तक कमजोर ही रही है।” खनौरी बॉर्डर पर चल रहा उपवास और प्रतिरोध लोहिया के अंदेशे के बरक्स एक आश्वासन हैइसने अन्याय के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध को पुनर्जीवित किया है और इसकी विश्वसनीयतागरिमा और ताकत में एक नया विश्वास पैदा किया है।

 

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)

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