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अपने गर्दन काटते

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नेह-स्नेह सूखे सभी, पाले बैठे बैर ।
अपने गर्दन काटते, देते कन्धा गैर ।।

उलटे लटकोगे यहाँ, ज्यों लटका बेताल ।
अपने हक की बात पर, पूछे अगर सवाल ।।

भैया खूब अजीब है, रिश्तों का संसार ।
अपने ही लटका रहे, गर्दन पर तलवार ।।

बिखर रहें है मूल्य अब, बिगड़ रहा व्यवहार ।
अपने ही अब घोंपते, अपनों को तलवार ।।

दो पैसे क्या शहर से, लाया अपने गाँव ।
धरती पर टिकते नहीं, अब ‘सौरभ’ के पाँव।।

औरों की जब बात हो, करते लाख बवाल ।
बीती अपने आप पर, भूले सभी सवाल ।।

मतलब के संसार का, कैसा मुख विकराल ।
अपने पाँवों मारते, ‘सौरभ’ आज कुदाल ।।

छँटे कुहासा मौन का, निखरे मन का रूप ।
सब रिश्तों में खिल उठे, अपनेपन की धूप ।।

दुनिया हमने देख ली, नाप-नाप हर ओर ।
अपने ही हैं लूटते, बनकर के चितचोर ।।

(सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )