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Culture : गायों की हो रही है दुर्दशा

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भारतीय संस्कृति में जिस गाय को ‘मां’ की संज्ञा दी गई है, उसका ऐसा हश्र लम्पी बीमारी से पहले कभी नहीं हुआ। गायों की दुर्दशा को लेकर अब सिर्फ जिनके घर गाय है वो ही चिंतित हैं। क्या गाय बचाने की जिम्मेवारी सिर्फ पशुपालन विभाग की ही बनती है, बाकी समाज केवल तमाशा देखे। आज तथाकथित गौभगत और गाय के नाम पर लूटकर खाने वाले चाहे वो कोई भी हो लगभग गायब है। (इक्का-दुक्का को छोड़कर) मृत गायों को खुले में फेंकने से संक्रमण तेजी से फेल रहा है। कहीं यह महामारी न बन जाए। क्योंकि मृत गायों की दुर्गंध और प्रदूषण से आस-पास के लोगों में भी अन्य बीमारियां फ़ैल रही है। ‘एक शाम, गायों के नाम’ पर करोड़ों रुपए लेने वाले और गाय के ठेकेदार बागङबिल्ले सब कहाँ छुप गए? आखिर गायों की हो रही है दुर्दशा? गाय रो-रो कर पूछ रही है, कहां गए वह गौ सेवक? कहां गई वह राजनीतिक पार्टियां जो मेरे नाम पर सरकार बनाते है। कहां गए हो चंदा इकट्ठा करने वाले जो मेरे नाम पर करोड़ों रुपए कमा गए? आज किसान की दुर्दशा हो रही है, उसका पालतू पशु गाय मर रही है लेकिन उसके बस की बात नहीं है। गाय के नाम पर राजनीति चलती रहती है मगर जमीनी हकीकत यह है कि अक्सर मुद्दे उठाए जाते हैं लेकिन उसकी समस्याओं का निराकरण कभी नहीं होता। अगर देश में जिसने भी आज तक गाय नाम से कुछ न कुछ कमाया है, वो एक-एक गाय बचाने का जिम्मा ले तो गाय इस दुर्दशा से बच सकती है।

प्रियंका ‘सौरभ’

गाय देश में हमेशा से ही एक संवेनदशील मुद्दा रहा है और इस पर राजनीति होती रही है। मगर जिस समाज में गाय को पूजा जाता है, उसके लिए आस्था अगर कहने भर की हो, दिल से नहीं और वहां इसके लिए कोई कानून नहीं, मन में सच्चा दर्द नहीं हो तो वह कैसा समाज ? हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार गाय को गौ माता भी कहा जाता है। गौ माता के पूजन के बारे में वेदशास्त्रों, धर्मग्रंथों में क्या कहा गया है। इसलिए अगर किसी के हाथों गाय की हत्या हो जाती है तो यह घोर पाप माना जाता है। फिर आज गाय की इतनी दुर्दशा हो रही है। जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। गाय को रखने वाले लोग स्वार्थी हो गए हैं जब तक गाय दूध देती है। तब तक तो लोग उसे अपने पास रखते हैं और उसके बाद उसका दूध निकाल कर सड़कों पर आवारा रूप से छोड़ देते हैं।

लेकिन देश में कहीं भी उन गायों के लिए कोई प्रवाधान नहीं है, जिन्हें बेसहारा छोड़ दिया जाता है। नतीजन वे अक्सर दुर्घटनाओं का शिकार हो जाती हैं। कई बार वे पोलिथीन खा जाती हैं, जिससे गंभीर रूप से बीमार हो जाती हैं। गोशालाओं की दुर्दशा भी किसी से छिपी नहीं है। अक्सर ही गोशालाओं में भूख से गायों के मरने की खबरें आती रहती हैं। गायों की देखभाल करने के लिए बनाई गई गोशालाओं की दुर्दशा पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। उनके चारे और स्वास्थ्य का का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। जो गाय दूध देने के काबिल नहीं रहतीं, उन्हें कुछ लोग सड़क पर खुला छोड़ देते हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ भी सजा का प्रावधान होना चाहिए। गाय को लावारिस सड़क पर छोड़ देना भी सही नहीं है। अगर लावारिस गाय दुर्घटना का शिकार होकर मर जाए तो उसे भी गोवध ही माना जाना चाहिए। गाय महज एक जानवर नहीं है। यह भारतीय समाज के लिए आस्था भी है। कुछ लोग गोवध करके इस आस्था पर चोट करते हैं, जो नहीं होनी चाहिए। गाय के प्रति ये दोहरी नीति समझ से परे है। बहरहाल, गोवंश बचाया ही जाना चाहिए।

भारतीय संस्कृति में जिस गाय को ‘मां’ की संज्ञा दी गई है, उसका ऐसा हश्र लम्पी बीमारी से पहले कभी नहीं हुआ। गायों की दुर्दशा को लेकर अब सिर्फ जिनके घर गाय है वो ही चिंतित हैं। क्या गाय बचाने की जिम्मेवारी सिर्फ पशुपालन विभाग की ही बनती है, बाकी समाज केवल तमाशा देखे। आज तथाकथित गौभगत और गाय के नाम पर लूटकर खाने वाले चाहे वो कोई भी हो लगभग गायब है। (इक्का-दुक्का को छोड़कर) मृत गायों को खुले में फेंकने से संक्रमण तेजी से फेल रहा है। कहीं यह महामारी न बन जाए। क्योंकि मृत गायों की दुर्गंध और प्रदूषण से आस-पास के लोगों में भी अन्य बीमारियां फेल रही है। एक शाम गायों के नाम पर करोड़ों रुपए लेने वाले और गायो के ठेकेदार बागङबिल्ले सब कहा छुप गए? गायों की हो रही है दुर्दशा गाय रो-रो कर पूछ रही है, कहां गए वह गौ सेवक? कहां गई वह राजनीतिक पार्टियां जो मेरे नाम पर सरकार बना ली। कहां गए हो चंदा इकट्ठा करने वाले जो मेरे नाम पर करोड़ों रुपए कमा गए? कहां आज किसान की दुर्दशा हो रही है, उसका पालतू पशु गाय मर रही है लेकिन उसके बस की बात नहीं है।

चुनावी वादों से जितना नुकसान किसान के इस पशुधन गाय का हुआ है शायद ही किसी अन्य पशु का हुआ हो। करोड़ों रुपयों के बजट भी गाय के अच्छे दिन नहीं ला सके। गौमाता की दुर्दशा का अंदाजा गौशालाओ व सड़कों पर आए दिन दुर्घटनाओं में गाय की अकाल मृत्यु से लगाया जा सकता है। आज हालात ये है कि इस मूक पशु के संरक्षण की ज़िम्मेदारी लेने को कोई सरकार कोई संगठन तैयार नही, गाय सिर्फ राजनीति के नारों मे जरूर ज़िंदा है। सरकार चाहे तो सड़को, राजमार्गो व गली मोहल्लों में भूख-प्यास व बीमारियों से मरती गायों का ज़िला स्तर पर चारागाह व सरकारी भूमि मे संरक्षण कर सकती है, जँहा गोबर व गौमूत्र से जैविक खाद व जैविक कीटनाशक बनाए जा सकते हैं। सरकार गौमूत्र, वर्मी कम्पोस्ट व वर्मीवाश का उत्पादन कर सस्ती दरों पर किसानों को उपलब्ध करा सकती है।

गोबर व गौमूत्र मे सभी प्रकार के 16 पोषक तत्व, एमिनो एसिड्स, कार्बनिक पदार्थ, ह्यूमस व पर्याप्त नाईट्रोजन पाई जाती है जो कि फसलों के उत्पादन के लिए किसी वरदान से कम नही है। जीवामृत, घन जीवामृत, व अन्य जैविक तरल खाद भी गोबर और गौमूत्र से ही तैयार होती है। अगर सरकार इस व्यवस्था पर ध्यान दे और कार्य करे तो ये उत्पाद लघु व सीमांत किसानों को सस्ती दर पर सरकारी किसान केंद्रों व केवीके से उपलब्ध कराया जा सकता है। इस व्यवस्था से जैविक खेती के रकबे को भी बढ़ाया जा सकता है जिसके लिए राज्य व केंद्र सरकार वर्षो से प्रयासरत है । इससे रासायनिक दवा, कीटनाशक ओर रासायनिक खाद के खर्चे को भी कम किया जा सकता है और किसानो को कैंसर जैसी गंभीर बीमारी के साथ साथ आत्महत्या से भी बचाया जा सकता है ।

सरकारों ने सिर्फ कागजों में लीपापोती की धरातल पर कुछ नहीं किया। सब कुछ भगवान भरोसे है। गाय के नाम पर राजनीति चलती रहती है मगर जमीनी हकीकत यह है कि अक्सर मुद्दे उठाए जाते हैं लेकिन उसकी समस्याओं का निराकरण कभी नहीं होता। अगर देश में जिसने भी आज तक गाय नाम से कुछ न कुछ कमाया है, वो एक-एक गाय बचाने का जिम्मा ले तो गाय इस दुर्दशा से बच सकती है।

(लेखक रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)