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“शादी के संगीत से गायब होती संस्कृति: डीजे की धुनों में खोते पारंपरिक लोकगीत”

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दीपक कुमार तिवारी

पटना/नई दिल्ली। भारतीय शादियों में कभी लोकगीतों की धुनों से गूंजने वाले माहौल को अब डीजे की तेज़ आवाज़ ने हाशिए पर धकेल दिया है। हमारे पारंपरिक लोकगीत, जो न केवल मनोरंजन बल्कि परिवार और समाज को जोड़ने का माध्यम थे, अब धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं।

मिथिला की लोकगायिका रंजना झा कहती हैं, “शादी के अवसरों पर ‘गाली गीत’ और पारंपरिक मंगलगीतों का गायन हमारी परंपरा का हिस्सा था। पर अब महिलाएं इन्हें गाने के बजाय डीजे पर थिरकना ज्यादा पसंद करती हैं।” वे आगे जोड़ती हैं कि लोकगीतों को संरक्षित करने के लिए उनकी संस्था “संगीत सुधा फाउंडेशन” नई पीढ़ी को जोड़ने का प्रयास कर रही है।

पारंपरिक गीत: हमारी सांस्कृतिक धरोहर
लोकगायिका देवी कहती हैं, “हमारे लोकगीत हमारी परंपरा का परिचायक हैं। इन गीतों में जो मिठास और अपनापन है, वह आज के गीतों में नहीं मिलता। दुर्भाग्यवश, शहरी जीवन में यह संस्कृति विलुप्त हो रही है।”

गायिका पल्लवी मिश्रा के पास शादी के पारंपरिक गीतों का संग्रह है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए धरोहर बन सकता है। वे बताती हैं कि पारंपरिक गीतों का अध्ययन और गायन उनके जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

संस्कृति से टूटता जुड़ाव
लोकगीतों की मिठास और भावनात्मक जुड़ाव को बचाने के लिए कई कलाकार प्रयासरत हैं, लेकिन नई पीढ़ी की इनसे दूरी चिंताजनक है। लोकगायिका सुनीता सिन्हा कहती हैं, “संयुक्त परिवारों के टूटने से पारंपरिक संगीत की परंपरा भी बिखर गई है। मैंने अपनी बेटियों को ये गीत सिखाए हैं ताकि यह परंपरा जिंदा रह सके।”

परंपराओं को बचाने की जरूरत:

पारंपरिक लोकगीत सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि हमारे इतिहास, संस्कृति और सामाजिक जुड़ाव का प्रतीक हैं। इन्हें संरक्षित करना केवल कलाकारों की ही नहीं, समाज की भी जिम्मेदारी है।