सुभाष चंद्र कुमार
समस्तीपुर। भारत दुनिया में मोटे अनाजों का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। बढ़ते तापमान एवं मानसून के बदलते चक्र के कारण खाद्यान्न फसलों के सुरक्षा पर खतरा बढ़ते जा रहा है। मोटे अनाज जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील है। इसलिए जलवायु पविर्तन के चलते खाद्य आपूर्ति की समस्या से निपटने में मोटे अनाज एक अच्छा विकल्प हो सकता है। धान की तुलना में मडुआ, कौनी, बाजरा, ज्वार जैसी फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील है। मोटे अनाज की खेती रबी एवं खरीफ दोनों ही मौसम में की जा सकती है। धान गेहूँ फसल प्रणाली भारत के 10.5 मिलियन हेक्टर क्षेत्रफल में किसान अपनाते आ रहे हैं। यह दोनों ही फसल पानी पर निर्भर है जिसकी वजह से भू-जल स्तर पर ज्यादा बोझ पड़ता है। किसान केवल धान-गेहूँ धान मक्का आलू फसल प्रणाली पर निर्भर रहते हैं जिसके कारण उपज में स्थिरता एवं भू-जल का स्तर काफी नीचे चला जा रहा है। इन परिस्थितियों को देखते हुए फसल विविधिकरण के साथ-साथ जलवायु अनुकूल फसल को अपनाना जरूरी है। जलवायु परिवर्तन के अनुकूल फसल की बुवाई तकनीक, बुवाई का समय, प्रभेदों का चयन करते हुए जलवायु अनुकूल कृषि कार्यक्रम परियोजना, बिहार सरकार द्वारा विभिन्न जिलों में वर्ष 2019 से शुरूवात किया गया है।
इस कार्यक्रम के तहत एक जिला में 5 गांवों का चयन समूह में किया गया है जिसकी तकनीकी जानकारी डा. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा एवं बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर अधीनस्थ विभिन्न कृषि विज्ञान केन्द्रों के द्वारा उपलब्ध करायी जाती है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रारंभिक अवस्था में निम्नलिखित फसल प्रणाली को चयन किया गया है। धान गेहूँ- मूँग, धान राई-मूँग, धान-मसूर, मक्का-गेहूं-मूँग, मक्का – राई – मूँग, सोयाबीन-मक्का, सोयाबीन गेंहूँ-मूँग, बाजरा- राई-मूँग, बाजरा-मसूर मूँग, मडुआ-मसूर मूंग, कौनी राई-मूँग, गेहूँ-मूँग इत्यादि। यह देखा गया है कि जिस वर्ष खरीफ मौसम में वर्षा कम हुई है, वैसी स्थिति में मडुआ / बाजरा / कौनी की उपज केवल धान की अपेक्षा 20-25 प्रतिशत अच्छा हुआ है। महुआ की बुवाई, जायद में रोपाई विधि तथा खरीफ मौसम में सीधी बुवाई के द्वारा कर सकते हैं अन्य मोटे अनाजों को जैसे कौनी, बाजरा, ज्वार आदि की बुवाई खरीफ मौसम में पंक्ति विधि से सफल हो सकती है। जल-जीवन-हरियाली मोटे अनाज में मिनिरल, विटामिन, फाइबर के साथ- साथ पोषक तत्व भी प्रचुर में मौजूद होते हैं इसके अलावा मोटे अनाजों में बीटा कैरोटिन, न्यासिन, विटामिन- फॉलिक एसिड, पोटाशियम, मैगनिशियम, जस्ता जैसे खनीज लवण भी पाए जाते हैं।
मोटे अनाज की सेवन करने से बहुत सारे फायदे मिलते हैं जैसे- हड्डीयों की मजबूती, कैल्शियम की कमी से बचाव, पाचन दुरूस्त करने में मदद। इसके अलावा एनिमिया एवं डायबिटीज रोगियों के लिए लाभकारी हैl राष्ट्रीय प्रोषण संस्थान, हैदराबाद मोटे अनाज को दो भागों में बांटा गया है क्रमश: पहला- मोटा अनाज जिनमें ज्वार और बाजरा आते हैं। दूसरा- लघु अनाज जिनमें छोटे दाने वाले मोटे अनाज जैसे रागी, कंगनी, कोदो, चीना, सावा कुटकी, हरी कंगनी आदि आते हैं। जलवायु परिर्वतन में प्राथमिकता मोटे अनाजों अपेक्षाकृत ज्यादा तापमान में भी फूल फल सकते हैं और सीमति पानी की आपूर्ति में भी इनकी उत्पादन हो सकती है। एक समीक्षा से पर्यावरणीय संसाधनों पर खासतौर पर जलवायु परिवर्तन से प्रभावित क्षेत्रों में दबाव में कमी के जरिए मोटे अनाज की खेती के सकारात्मक असर का संकेत मिलता है। पानी के दृष्टिकोण से मोटे अनाज को वृद्धि के लिए धान मुकाबले 5 से 6 गुणा कम पानी की आवश्यकता होती है।
धान के लिए जहां 130-150 से० मी० बारिश की आवश्यकता होती है। वहीं मोटी अनाज के लिए सिर्फ 20 से० मी० पानी की आवश्यकता होती है। मोटे अनाज को तैयार होने में 70-90 दिन का औसत समय लगता है जो कि धान के मुकाबले आधा है अनाज के सी-4 वर्ग की होने की वजह से मोटे अनाज ज्यादा मात्रा में कार्बन डाइऑक्साईड को ऑक्सीजन में बदलते हैं और इस तरह ये जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में योगदान देते हैं। साथ ही मोटे अनाज बेहद गर्म तापमान से लेकर सूखे और खड़ापन को भी सहन कर सकता है। इस तरह मोटे अनाजों को जलवायु अनुकूल फसल की श्रेणी में रखा जाता है। इस प्रकार मोटे अनाजों में न केवल पोषक तत्व का भण्डार है बल्कि ये जलवायु लचीलेपन वाली फसलें भी है जिससे कम लागत कम संसाधन के द्वारा उत्पादन किया जा सकता है।
डॉ राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविधालय स्थित शश्य विज्ञान विभाग के प्राध्यापक सह जलवायु अनुकूल कृषि कार्यक्रम के निदेशक डॉ रत्नेश कुमार झा के अनुसार मिलेट्स यानी मोटे अनाजों की खेती स्वास्थवर्धक के साथ साथ किसानों के लिए बेहतर आमदनी का विकल्प के रूप में देखा जा रहा है. कुलपति डा पीएस पाण्डेय के कुशल निर्देशन एवं समुचित मार्गदर्शन में विवि के अंतर्गत आने वाली 13 कृषि विज्ञान केन्द्रों के अधीनस्थ चयनित पांच पांच गावं को जलवायु अनुकूल कृषि कार्यक्रम के तहत गोद लेकर किसानों के खेत में परियोजना संचालित की जा रही है. किसानों को जलवायु परिवर्तन की दौर में परंपरागत खेती से ऊपर उठकर नवीनतम तकनीकों एवं वैज्ञानिकी तरकीबों को अपनाने की जरुरत है. जिससे किसानों की दशा एवं दिशा में परिवर्तन लाकर उनकी आमदनी को समृद्ध बनाया जा सके.