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स्वयं की सत्य पहचान से रूबरू होना ही आध्यात्मिकता की शुरुआत : बीके पूजा बहन

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सात दिवसीय राजयोग मेडिटेशन शिविर की शुरुआत

सुभाष चंद्र कुमार

समस्तीपुर पूसा। प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के खुदीराम पूसा रेलवे स्टेशन स्थित स्थानीय सेवा केंद्र द्वारा आयोजित सात दिवसीय राजयोग मेडिटेशन शिविर के प्रथम दिन बीके पूजा बहन ने बताया कि स्वयं का स्वयं की सत्य पहचान से दूर होना ही हमारे अंदर तनाव, चिंता, दुःख एवं अन्य सभी नकारात्मक भावनाओं के घर करने का मूल कारण है।

इन सारे नकारात्मक भावनाओं से वशीभूत होने पर हम जो भी तत्कालिक उपाय अपनाते हैं, वे सभी दर्द निवारक दवाओं की भांति ही होते हैं, चाहे वह पिकनिक या सैर-सपाटे हों, व्यसन आदि का सेवन हो या मनोरंजन के कोई अन्य साधन हों। यह सब करने से थोड़ी देर के लिए तो हम तनाव मुक्त हो सकते हैं लेकिन हम विपरीत परिस्थितियों में भी तनाव मुक्त और खुशनुम: रह सकें, इसके लिए स्वयं को आत्मिक ऊर्जा से भरपूर करना होगा।

यह तभी हो सकता है जब हम स्वयं के सत्य स्वरूप आत्मिक स्वरूप में स्थित होकर कार्य-व्यवहार में आयें। आंखों से देखने वाली, कानों से सुनने वाली मुख से बोलने वाली एवं अन्य सभी कर्मेंद्रियों से कर्म करने वाली मैं चैतन्य शक्ति आत्मा हूं- यह स्मृति रखने से आत्मा कर्म करते हुए कर्म के परिणाम के प्रभाव से स्वयं को बहुत हद तक मुक्त रख सकती है।

साथ ही साथ इससे कर्म की गुणवत्ता भी उच्च दर्जे की होती है। ऐसे कर्म हमें व औरों को संतुष्टता व खुशी की अनुभूति कराते हैं। इससे हमारी कार्यक्षमता और कार्य कुशलता में इजाफा होता है। हमारे आत्मबल, मनोबल एवं इच्छा शक्ति में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी होती जाती है। आत्मबल की कमी के कारण ही हम गलत मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं। आत्मज्ञान को जीवन में उतारना ही जीवन जीने की कला सीखना है। यह कला अभी परमपिता परमात्मा शिव बाबा बड़े ही सहज और सुलभ तरीके से सिखला रहे हैं।

उन्होंने कहा की आत्मा का इस शरीर में निवास स्थान मस्तिष्क के बीचों-बीच भृकुटी के मध्य है, जहां हम तिलक लगाते हैं। जैसे ड्राइवर मोटरकार में बैठकर इसे नियंत्रित करते हुए एक सुखद एवं सुरक्षित यात्रा सुनिश्चित करता है। ठीक उसी प्रकार यदि आत्मा रुपी ड्राइवर अपनी भृकुटी रूपी सीट पर बैठकर कर्मेंद्रियों को नियंत्रित करते हुए जीवन यात्रा जारी रखती है तो यह यात्रा मनोविकारों से सुरक्षित होने के फलस्वरुप सुखदायी बन जाती है। आत्मा के गुण और शक्तियां पूर्ण रूप से स्वत: कार्यान्वित होते रहते हैं।

आत्मा ज्ञान, शांति, प्रेम, पवित्रता, सुख, आनंद और शक्ति जैसे गुणों का पुंज है। आत्मिक स्थिति में स्थित होते ही ये गुण हमारी कार्य-प्रणाली में प्रतिलक्षित होने लगते हैं। इन गुणों का प्रकाश हमारे अंदर की सभी कमी-कमजोरियों रूपी अंधकार को हर लेता है।

आत्मा की तीन शक्तियां मन, बुद्धि और संस्कार हैं। मन द्वारा आत्मा सोचने का काम करती है, बुद्धि द्वारा निर्णय लेती है और जो कर्म हम अपनी कर्मेंद्रियों द्वारा बार-बार करते हैं उस अनुसार संस्कारों का निर्माण होता है। व्यक्ति की पहचान उसके संस्कारों के आधार से ही होती है। किसी भी बुरे संस्कार को परिवर्तन करने के लिए सर्वप्रथम विचारों का परिवर्तन आवश्यक है। क्योंकि यही विचार हमारे वाणी, व्यवहार व कर्मों में तब्दील होते हैं और हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं। स्वयं को शरीर के बजाय आत्मा निश्चय करना वैचारिक स्तर पर पहला सकारात्मक परिवर्तन है।

आत्मा का ज्ञान और इसके साथ-साथ आत्म-अनुभूति का निरंतर अभ्यास श्रेष्ठ भाग्य के निर्माण की नींव है। यही सही मायने में आध्यात्मिकता की शुरुआत है। आध्यात्मिक सशक्तिकरण ही पारिवारिक, सामाजिक और राष्ट्र के सशक्तिकरण का एकमात्र सशक्त माध्यम है।