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ताबूत की कीलें

शब्दों की पाठशालाएँ अब सन्नाटे में हैं,
ज्ञान के दीप बुझते हैं, फीस की लौ जलती है।

चिकित्सालय में चुप है पीड़ा, बोलता है पैकेज,
संवेदना की जगह, स्लिप पर मूल्य निकलते हैं।

औषधि अब रोग नहीं, लाभ का गणित गिनती है,
संजीवनी बिकती है, ब्रांड की चमक में।

थानों के द्वार पर न्याय नहीं—नोट खड़खड़ाते हैं,
शिकायतें चुप हैं, सिफारिशें मुखर।

तहसीलें कागज़ चबाती हैं, मुहरें घूस में डूबती हैं,
जन की गुहार पड़ी है फाइलों की नींद में।

ये पाँच स्तंभ नहीं,
अब ताबूत की कीलें हैं—
धीरे-धीरे देश की आत्मा ठोंकते हुए।

प्रियंका सौरभ

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