जलवायु परिवर्तन बेहद खतरनाक: युवाल नोआ हरारी

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द न्यूज 15

नई दिल्ली। मानव जाति के अस्तित्व को आगामी दशकों में नया खतरा झेलना है, वह खतरा पारिस्थितिकी विध्वंस की वजह से है जिसका कुछ दशक पहले शायद ही कोई उल्लेख होता था। वैश्विक जीवमंडल को मनुष्य कई तरह से अस्थिर कर रहा है। हम पर्यावरण से अधिक से अधिक संसाधन निकाल रहे हैं, जबकि बड़ी मात्रा में कचरा और जहरीले पदार्थ वापस डाल रहे हैं। इस तरह मिट्टी, पानी और वायुमंडल की संरचना बड़े पैमाने पर बदल रही है।
हम असंख्य तरीकों से पारिस्थितिकीय संतुलन को बिगाड़ रहे हैं जिसका निर्माण लाखों वर्षों में हुआ है, उनको लेकर हम कतई सचेत नहीं हैं। उदाहरण के लिए खाद के रूप में फॉसफोरस के इस्तेमाल पर गौर करें। इसका कम मात्रा में इस्तेमाल पौधों के विकास में अनिवार्य पोषक तत्व का काम करता है। पर अधिक मात्रा में इस्तेमाल होने पर यह जहरीला बन जाता है। आधुनिक औद्योगिक कृषि कृत्रिम खाद पर आधारित है, इसलिए खेतों में काफी मात्रा में फॉरफोरस डाला जाता है, लेकिन खेतों में मौजूद वह फॉसफोरस की बरसाती पानी के साथ नदियों में जाता है और नदियों, झीलों व समुद्र को जहरीला बनाता है जिसका जलीय जीव-जंतुओं के जीवन पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार मक्का उपजाने वाला किसान किसी दूर-दराज के इलाके में समुद्री मछलियों के विनाश का कारण बन जाता है जिसका उसे ज्ञान भी नहीं होता।
इन गतिविधियों की वजह से प्राकृतिक वास स्थान बिगड़ रहे हैं, जीव-जंतु और पौधे विलुप्त होते जा रहे हैं। इस तरह समूचा पारिस्थिति-तंत्र जैसे ऑस्ट्रेलिया का ग्रेट बैरियर रीफ और आमेजन वर्षा-वन नष्ट हो सकते हैं। मनुष्य जाति हजारों वर्षों से पारिस्थितिकी को बिगाड़ती रही है, पर अब उसने पारिस्थितिकी के सामूहिक संहारक का रूप धर लिया है। अगर हमने वर्तमान दिशा को नहीं बदला तो यह विभिन्न जीव-रूपों की बड़ी संख्या का न केवल विनाश कर देगा, बल्कि मानव सभ्यता की बुनियाद को भी शक्तिहीन बना सकता है।
इसका सबसे खतरनाक पहलू जलवायु परिवर्तन की आशंका है। मनुष्य लाखों-हजार वर्षों से यहां है और अनेक शीत व गर्म मौसम को झेलते हुए बचा हुआ है। हालांकि कृषि, महानगर और आवासीय परिसर दस हजार वर्षों से अधिक पुराने नहीं हैं। इस दौरान धरती की जलवायु कमोबेश स्थिर रही है। इस जलवायु में कोई परिवर्तन मानव समाज के लिए अत्यधिक चुनौतीपूर्ण होगा जिस स्थिति का सामना मनुष्य ने कभी नहीं किया है। यह अरबों लोगों के साथ चूहों की तरह प्रयोग करने जैसा होगा। मानव समाज ने अगर इस एकदम नई परिस्थितियों के अनुकूलता बैठा लिया, तब भी अनुकूलता बैठाने की प्रक्रिया में ही अनेक लोगों का नाश हो जाएगा।
यह डरावनी स्थिति आने वाली है। परमाणु युद्ध भविष्य में संभावित हो सकता है, पर जलवायु परिवर्तन वर्तमान वास्तविकता है। ऐसी वैज्ञानिक सर्वानुमति है कि मानवीय गतिविधियां, खासतौर से कार्बन डाइऑक्साइड जैसे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन की वजह से धरती की जलवायु में बड़े पैमाने पर परिवर्तन हो रहे हैं। हम नहीं जानते कि कार्बन डाइऑक्साइड की कितनी मात्रा वायुमंडल में डालने पर कोई बड़ा उथल-पुथल नहीं होगा। लेकिन वैज्ञानिक तौर पर सर्वोत्तम अनुमान यह है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को अगले बीस-पच्चीस वर्षों में जबरदस्त रूप से कम नहीं किया जाता, वैश्विक तापमान में कम से कम 2 डिग्री सेंटिग्रेड की बढ़ोत्तरी होना तय है। जिससे रेगिस्तानों का विस्तार होगा, बर्फ का जमाव तेजी से घटेगा, समुद्र-तल ऊपर आएगा, अतिरेक मौसम की घटनाएं अधिक होंगी। इन परिवर्तनों की वजह से कृषि उत्पादन में कमी आएगी, महानगर बाढ़ में डूबेंगे, जिससे बहुत सारा इलाका रहने लायक नहीं रह जाएगा और लाखों लोग शरणार्थी बनकर नए आवास स्थान की तलाश करने के लिए मजबूर होंगे।
हालांकि हम तेजी से चरम बिंदु की ओर बढ़ रहे हैं, जिसके बाद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी से भी कोई फायदा नहीं होगा और वैश्विक आपदा को टाला नहीं जा सकेगा। उदाहरणस्वरूप, वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी से पृथ्वी के ध्रुवों पर जमा बर्फ पिघलेगी और सूर्य की किरणों का परावर्तित होकर वायुमंडल की बाहरी स्तर में जाने की मात्रा में कमी आएगी। जिसकी वजह से धरती में अधिक गर्मी अवशोषित होगी और तापमान में कहीं अधिक बढ़ोत्तरी होगी और बर्फ के पिघलने की रफ्तार कहीं अधिक तेज होगी। इस प्रक्रिया के एक सीमा से अधिक होने के बाद इसमें अत्यधिक तेजी आ जाएगी और ध्रुवीय इलाके में जमा बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी, भले इस बीच मनुष्य कोयला, तेल और गैस जलाना छोड़ दे। इसलिए सामने उपस्थित इस खतरे को पहचानना भर पर्याप्त नहीं है, बल्कि हमें इसे लेकर तत्काल कुछ करना आवश्यक है। दुर्भाग्य से ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन घटने के बजाए लगातार बढ़ता जा रहा है। मानव समाज के पास जीवाश्म ईंधन के चंगुल से बाहर निकलने के लिए बहुत कम समय बचा है। आज हमें पुनर्वास शुरू करना है। अगले साल या अगले महीने नहीं, बल्कि आज और अभी। लेकिन आज हम मानव जाति के लोग जीवाश्म ईंधनों के अभ्यस्त हैं। उसे छोड़ना नहीं चाहते।
इस खतरनाक तस्वीर में राष्ट्रवाद की कोई जगह नहीं है। इस पारिस्थितिकीय संकट का कोई राष्ट्रवादी समाधान नहीं है। क्या कोई राष्ट्र चाहे जितना ताकतवर क्यों न हो, वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को अकेले रोक सकता है? अकेले देश विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय नीति जरूर अपना सकते हैं, उनके पर्यावरणीय व आर्थिक परिणाम बेहतरीन हो सकते हैं।
सरकारें कार्बन उत्सर्जन पर टैक्स लगा सकती हैं, अतिरेक मौसम की घटनाओं से होने वाले नुकसानों को तेल व गैस की कीमत में शामिल कर सकती हैं, कठोर पर्यावरणीय कानूनों को लागू कर सकती हैं, प्रदूषणकारी उद्योगों को मिलने वाली रियायतों में कटौती कर सकती हैं और अक्षय ऊर्जा को अपनाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित कर सकती हैं। शोध-अध्ययन और पर्यावरण-हितैषी तकनीकों के विकास में अधिक निवेश किया जा सकता है। पिछले 150 वर्षों में हुए उन्नयनों में आंतरिक ज्वलन इंजनों के विकास की तारीफ करनी होगी, लेकिन अगर हमें भौतिक व आर्थिक पर्यावरण को स्थिर रखना है तो पुरानी तकनीकों को छोड़ना और नई तकनीकों को अपनाना होगा जिसमें जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल नहीं होता हो।
तकनीकी क्षेत्र में हुए महत्वपूर्ण आविष्कार ऊर्जा के अलावा कई अन्य क्षेत्रों में भी उपयोगी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए ‘स्वच्छ मांस’ के उत्पादन की संभावना पर विचार करें। वर्तमान में मांस उद्योग न केवल लाखों सचेतन प्राणियों को मार देता है, बल्कि यह वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी का भी एक मुख्य कारण है। एंटीबायोटिक और जहर का एक प्रमुख उपभोक्ता है और हवा, जमीन व जल का सबसे बड़ा प्रदूषणकारी है। इंस्टीच्यूट ऑफ मेकैनिकल इंजीनियर की 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार, एक किलोग्राम मांस तैयार करने में लगभग 15 हजार लीटर साफ पानी खर्च होता है, जबकि एक किलोग्राम आलू उपजाने में 287 लीटर पानी की खपत होती है। चीन व ब्राजील जैसे देशों में संपन्नता बढ़ने के साथ-साथ पर्यावरण पर दबाव भी बढ़ता जाएगा क्योंकि लाखों लोग आलू खाना छोड़कर गोमांस खाने लगेंगे। उन नए-नए अमीर हुए चीनी या ब्राजीलियनों को स्टीक, हमबर्गर और सौसेस खाने से मना नहीं किया जा सकता। अमेरीकी या जर्मन या किसी दूसरे यूरोपीय लोगों को मना करने का तो सवाल ही नहीं है। लेकिन अगर इंजीनियर कारखानों में मांस बनाने लगें, तब क्या होगा? आपको अगर हमबर्गर की जरूरत है तो उसे विकसित कर लें, बजाए पूरी गाय को पालने-पोसने और काटकर मांस तैयार करने और उसे ढोने के यह सहज होगा। यह विज्ञान की काल्पनिक कथा लग सकती है, पर दुनिया में इस तरह कोशिकाओं से हमबर्गर उपजाया जा चुका है। 2013 की घटना है। तब इसकी लागत 330,000 डॉलर पड़ी थी। चार वर्षों के शोध और विकास से लागत घटकर 11 डॉलर प्रति इकाई रह गई और अगले दशक भर में इसका औद्योगिक उत्पादन हो तो लागत ताजा मांस तैयार करने की लागत से भी कम होने की संभावना है। यह तकनीकी विकास करोड़ों जानवरों को मारे जाने से बचा सकता है, करोड़ों मनुष्यों को कुपोषण से बचा सकता है और इसके साथ ही पारिस्थितिकी संतुलन को नष्ट होने से भी बचा सकता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन को टालने के लिए सरकारें, कारपोरेट जगत और आम लोग अनेक उपाय कर सकते हैं। लेकिन प्रभावशाली होने के लिए उन्हें निश्चित रूप से वैश्विक स्तर पर प्रयास करना होगा। वैसे मामला जब जलवायु का हो तो देश संप्रभु नहीं रह जाते। वे पृथ्वी की दूसरी तरफ के लोगों की गतिविधियों के दुष्प्रभावों को झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं। प्रशांत महासागर का छोटा-सा द्वीप किरिबाटी अपने ग्रीनहाऊस उत्सर्जन को घटाकर शून्य कर ले,  फिर भी वह दूसरे देशों के उत्सर्जन की वजह से समुद्र तल में होने वाली वृद्धि से डूबने से नहीं बच पाएगा।
चाड के सभी मकानों की छतों पर सौर्य ऊर्जा संयंत्र लगा दिया जाए, फिर भी वह देश रेगिस्तान में बदल सकता है, ऐसा दूरदराज के देशों की दोषपूर्ण पर्यावरण नीतियों की वजह से होगा। यहां तक कि चीन और जापान जैसे शक्तिशाली देश भी पारिस्थितिकी के लिहाज से संप्रभु नहीं हैं। शंघाई, हांगकांग और टोकियो को विनाशकारी बाढ़ और तूफान से बचाने के लिए चीन और जापान को रूस व अमेरीकी सरकारों को ‘जैसा चल रहा है, वैसा चलने देने’ की नीति को बदलने के लिए तैयार होना होगा।
जलवायु परिवर्तन के मामले में राष्ट्रवादी अलगाव परमाणु युद्ध से भी अधिक खतरनाक है। एक खुला परमाणु युद्ध सभी देशों को तबाह कर सकता है, इसलिए सभी देश इसे रोकने की कोशिश करते हैं। इसके विपरीत वैश्विक तापमान में वृद्धि का विभिन्न देशों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ सकता है। कुछ देशों जिनमें रूस सबसे प्रमुख है, को वास्तव में इससे लाभ हो सकता है। रूस के पास बहुत कम समुद्री तट है, इसलिए वह समुद्र तल बढ़ने से चीन या किरीबाटी के मुकाबले बहुत कम चिंतित है। और अगर बढ़ता तापमान चाड को रेगिस्तान में बदल सकता है तो यह साइबेरिया को पूरी दुनिया को खिलाने भर अन्न उपजाने वाले खेतों में बदल सकता है। यही नहीं, सुदूर उत्तर में बर्फ की पट्टियों के पिघलने से रूस के अधिकार वाला आर्कटिक सागर वैश्विक व्यापार का मुख्य मार्ग बन सकता है और कामचाटका सिंगापुर की जगह दुनिया का चौराहा बन सकता है। इसी तरह, जीवाश्म ईंधनों की जगह अक्षय ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कुछ देशों को कुछ अन्य देशों की अपेक्षा अधिक आकर्षित कर सकता है। चीन,जापान और दक्षिण कोरिया बड़ी मात्रा में तेल और गैस के आयात पर निर्भर हैं। उसके बोझ से छुटकारा मिलने से वे उत्साहित होंगे। रूस, ईरान और सऊदी अरब तेल और गैस के निर्यात पर निर्भर करते हैं। उनकी अर्थव्यवस्था तेल व गैस का निर्यात बंद होने पर नष्ट हो जाएगी। इसलिए वे अक्षय ऊर्जा स्रोतों के प्रति उदासीन होंगे। इसका अर्थ है कि अगर कुछ देश जैसे चीन, जापान और किरिबाटी वैश्विक कार्बन उत्सर्जन को जल्द से जल्द घटाने पर पूरा जोर लग देंगे, दूसरे देश जैसे रूस व ईरान इसके लिए कम उत्साहित होंगे। उन देशों में भी जिन्हें वैश्विक तापमान बढ़ोत्तरी से नुकसान होने वाला है जैसे अमेरीका में, अंध राष्ट्रवादी ताकतें भविष्य के खतरे को समझने में उदासीन हो सकती हैं। एक छोटा, पर सटीक नमूना 2018 में तब दिखने में आया जब संयुक्त राज्य ने विदेशों में निर्मित सौर्य-ऊर्जा उपकरणों के आयात पर 30 प्रतिशत शुल्क लगा दिया ताकि अमेरीका के सौर्य उपकरण निर्माताओं की सहायता की जा सके। हालांकि इससे अक्षय ऊर्जा को अपनाने की रफ्तार घटने की आशंका थी।
परमाणु बम तात्कालिक और प्रत्यक्ष खतरा है, इसलिए कोई उसकी अनदेखी नहीं कर सकता। इसके विपरीत वैश्विक तापमान में वृद्धि अधिक अस्पष्ट और लंबे समय तक फैला हुआ खतरा है। इसलिए जब दीर्घकालीन पर्यावरणीय मामलों में कुछ तात्कालिक त्याग की जरूरत होती है, तब कथित राष्ट्रवादी ताकतें तात्कालिक राष्ट्रीय हितों का मामला उठा देते हैं। और अपने आप को दिलासा देते हैं कि वे पर्यावरण की चिंता बाद में कर लेंगे और इसकी जिम्मेवारी दूसरे देशों पर डाल देते हैं। यही नहीं, वे इस समस्या को स्वीकर करने से सीधे-सीधे इनकार भी कर देते हैं। यह महज संयोग नहीं है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर एक संदेह का वातावरण बनाया जाता है और राष्ट्र हित की सुरक्षा करने का दावा किया जाता है। चूंकि जलवायु परिवर्तन का कोई राष्ट्रीय समाधान नहीं है, इसलिए कुछ राष्ट्रवादी विश्वास ही नहीं करते कि इस तरह की कोई समस्या मौजूद है।
(दुनिया में मौजूदा समय में सर्वाधिक चर्चित लेखक युवाल नोआ हरारी की ताजा पुस्तक ‘21 लेसन्स फॉर द 21स्ट सेंचुरी’ का यह अंश पारिस्थितिकीय संकट की संतुलित तस्वीर प्रस्तुत करती है। हरारी की पहली पुस्तक- ‘सेपियन्स, ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ ह्यूमैनकाइंड’ दुनिया भर में चर्चित हुई थी। ताजा पुस्तक में लेखक ने मानव जाति के अस्तित्व पर तीन संकटों का उल्लेख किया है जिसमें परमाणु युद्ध, पारिस्थितिकीय विध्वंस और तकनीकी क्रांति शामिल हैं। इनमें पारिस्थितिकीय संकट को सर्वाधिक चिंताजनक बताया है क्योंकि यह लंबे समय में असर करने वाला है। (जनचौक से साभार)

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