Category: विचार

  • क्या फासिज्म ने भारत पर कर लिया है कब्ज़ा ?

    क्या फासिज्म ने भारत पर कर लिया है कब्ज़ा ?

  • लेखक की स्वतंत्रता बनाम संपादकीय नीति : बहस के नए आयाम

    संपादक आमतौर पर अनूठी और मौलिक रचनाएँ चाहते हैं ताकि उनकी पत्रिका की विशिष्टता बनी रहे। दूसरी ओर, लेखकों को यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे अपनी रचनाएँ अधिक से अधिक स्थानों पर भेज सकें, खासकर जब संपादक बिना किसी समयसीमा के रचनाओं को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार रखते हैं। साहित्य और प्रकाशन की दुनिया में संपादकों और लेखकों दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण है। यदि पारदर्शिता और संतुलन बनाया जाए, तो यह दोनों के लिए लाभकारी होगा और साहित्य का उद्देश्य—विचारों का प्रसार—पूरी तरह से साकार हो सकेगा।

    डॉ. सत्यवान सौरभ

    साहित्यिक प्रकाशन जगत में यह बहस लंबे समय से जारी है कि लेखक को अपनी रचनाएँ एक से अधिक पत्रिकाओं में भेजने की स्वतंत्रता होनी चाहिए या नहीं। जबकि संपादक किसी भी रचना को छापने या न छापने के लिए स्वतंत्र होते हैं और उन पर कोई समयसीमा लागू नहीं होती, तो लेखक को भी यह अधिकार क्यों नहीं मिलना चाहिए कि वह अपनी रचना जितनी चाहें जगहों पर भेजे? यह प्रश्न आज के डिजिटल युग में और भी प्रासंगिक हो गया है, जहाँ सूचना और सामग्री के प्रसार की गति अत्यधिक तेज हो चुकी है।

    संपादकीय दृष्टिकोण: अनूठेपन की चाह

    अधिकांश संपादक यह मानते हैं कि किसी पत्रिका की साख और प्रतिष्ठा इस बात पर निर्भर करती है कि उसमें प्रकाशित सामग्री मौलिक और अनूठी हो। यदि कोई रचना पहले से ही किसी अन्य पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी है, तो पाठकों को वह पहले ही पढ़ने को मिल चुकी होगी, जिससे नई पत्रिका की विशिष्टता प्रभावित हो सकती है। संपादकों का यह भी मानना है कि यदि एक ही रचना कई जगह प्रकाशित हो, तो पाठकों का भरोसा पत्रिका से कम हो सकता है।

    इसके अलावा, संपादकीय दृष्टिकोण से एक और महत्वपूर्ण तर्क यह दिया जाता है कि यदि एक लेखक एक ही रचना को कई जगह भेजता है और वह कई संपादकों द्वारा स्वीकृत कर ली जाती है, तो इससे पत्रिकाओं के बीच असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। इसलिए कई पत्रिकाएँ इस नीति का पालन करती हैं कि वे केवल वही रचनाएँ स्वीकार करेंगी जो पहले कहीं और प्रकाशित न हुई हों।

    लेखक की स्वतंत्रता: अधिकार और सीमाएँ

    लेखकों की दृष्टि से देखा जाए तो यह नीति कई बार अनुचित लगती है। जब संपादक को अपनी पत्रिका के लिए सर्वश्रेष्ठ सामग्री चुनने की स्वतंत्रता प्राप्त है, तो लेखक को भी यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी रचना को अधिक से अधिक स्थानों पर भेजकर प्रकाशन के अवसर बढ़ा सके।

    प्रकाशन में देरी

    कई बार संपादक रचनाओं को महीनों तक रोककर रखते हैं और अंततः अस्वीकार कर देते हैं। इससे लेखक का कीमती समय नष्ट होता है और उनकी रचना लंबे समय तक अप्रकाशित रह जाती है। कई लेखक केवल एक पत्रिका में अपनी रचना भेजने के कारण महीनों या वर्षों तक इंतजार करते रहते हैं, लेकिन अगर अंत में उन्हें अस्वीकार कर दिया जाता है, तो उनके पास विकल्प सीमित रह जाते हैं।

    विभिन्न पाठक वर्ग

    हर पत्रिका का अपना अलग पाठक वर्ग होता है। यदि कोई रचना कई जगह छपती है, तो यह लेखक के लिए लाभदायक हो सकता है क्योंकि उसकी रचना अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचती है। यह भी देखा गया है कि विभिन्न पत्रिकाएँ विभिन्न विषयों पर केंद्रित होती हैं, जिससे लेखक की रचनाएँ अलग-अलग प्लेटफार्म पर सही पाठकों तक पहुँच सकती हैं।

    लेखक के अधिकार

    जिस तरह संपादक को अपनी पत्रिका के लिए सर्वोत्तम रचनाएँ चुनने की स्वतंत्रता है, उसी तरह लेखक को भी यह स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह अपनी रचना को जहाँ चाहे भेज सके। यदि संपादक को यह अधिकार है कि वे किसी भी समय रचना को अस्वीकार कर सकते हैं, तो लेखक को भी यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी रचनाओं को विभिन्न मंचों पर भेजकर अधिक अवसर प्राप्त कर सके।

    डिजिटल युग में बदलते नियम

    आज के डिजिटल युग में, जहाँ ब्लॉग, ऑनलाइन पत्रिकाएँ और सोशल मीडिया प्लेटफार्मों की भरमार है, वहाँ इस बहस ने नया रूप ले लिया है। पहले जहाँ लेखकों को केवल प्रिंट पत्रिकाओं में छपने के लिए संघर्ष करना पड़ता था, वहीं अब वे विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफार्मों पर अपनी रचनाएँ प्रकाशित कर सकते हैं।

    ऑनलाइन प्रकाशन की नई संभावनाएँ

    अब कई ऑनलाइन पत्रिकाएँ और ब्लॉग ऐसे प्लेटफार्म उपलब्ध करा रहे हैं, जहाँ लेखक अपनी रचनाएँ बिना किसी रोक-टोक के प्रकाशित कर सकते हैं। इससे न केवल लेखकों को अधिक स्वतंत्रता मिल रही है, बल्कि पाठकों के लिए भी सामग्री की उपलब्धता बढ़ रही है।

    कंटेंट सिंडिकेशन और क्रॉस-प्लेटफार्म प्रकाशन

    कई बड़े मीडिया हाउस और डिजिटल प्रकाशन समूह अब “कंटेंट सिंडिकेशन” की प्रक्रिया अपना रहे हैं, जहाँ एक ही सामग्री को विभिन्न प्लेटफार्मों पर पुनः प्रकाशित किया जाता है। इससे लेखकों को अधिक व्यूअरशिप और पाठकों तक पहुँचने का अवसर मिलता है।

    समाधान और संतुलन की आवश्यकता

    इस बहस का समाधान संतुलन स्थापित करने में है। दोनों पक्षों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए कुछ संभावित समाधान निकाले जा सकते हैं:

    पारदर्शी संपादकीय नीति

    यदि कोई पत्रिका केवल मौलिक रचनाएँ ही प्रकाशित करना चाहती है, तो उसे स्पष्ट रूप से यह नियम बताना चाहिए और यह भी निर्दिष्ट करना चाहिए कि कितने समय में निर्णय लिया जाएगा। इससे लेखकों को यह स्पष्ट रहेगा कि वे अपनी रचना को कितने समय तक किसी पत्रिका के लिए आरक्षित रखें।

    साझा प्रकाशन की अनुमति

    कुछ पत्रिकाएँ यह नीति अपना सकती हैं कि वे ऐसी रचनाएँ स्वीकार करेंगी जो पहले सीमित पाठक वर्ग तक पहुँची हों, लेकिन व्यापक स्तर पर नहीं। यह एक मध्य मार्ग हो सकता है, जिससे लेखकों और संपादकों दोनों के हितों की रक्षा हो सके।

    संपादन और पुनर्प्रकाशन की सुविधा

    यदि कोई रचना पहले प्रकाशित हो चुकी है, तो उसे थोड़ा संशोधित और अद्यतन कर पुनः प्रकाशित करने की अनुमति दी जानी चाहिए। इससे न केवल पत्रिकाओं की विशिष्टता बनी रहेगी, बल्कि लेखकों को भी अपनी रचनाओं को दोबारा प्रस्तुत करने का अवसर मिलेगा।

    साहित्य और प्रकाशन की दुनिया में लेखक और संपादक, दोनों का योगदान महत्वपूर्ण है। एक ओर संपादकों की जिम्मेदारी होती है कि वे अपने पाठकों को नई और मौलिक सामग्री दें, तो दूसरी ओर लेखकों के अधिकारों की भी रक्षा की जानी चाहिए। यदि एक स्वस्थ और पारदर्शी प्रणाली विकसित की जाए, तो यह दोनों पक्षों के लिए लाभदायक होगी। अंततः, साहित्य का उद्देश्य विचारों का प्रसार और ज्ञान का विस्तार करना है, और इसमें अनावश्यक प्रतिबंधों की जगह नहीं होनी चाहिए।

    क्या एक आदर्श संतुलन संभव है?

    इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है, लेकिन यह बहस साहित्यिक समुदाय में पारदर्शिता और संवाद को प्रोत्साहित कर सकती है। यदि पत्रिकाएँ लेखकों के अधिकारों का सम्मान करें और लेखक संपादकीय नीतियों को समझते हुए उनके अनुरूप कार्य करें, तो एक बेहतर प्रकाशन संस्कृति का निर्माण किया जा सकता है।

  • समाजवादी पार्टी के खिलाफ लामबंद हुई 36 बिरादरी!

    समाजवादी पार्टी के खिलाफ लामबंद हुई 36 बिरादरी!

    चरण सिंह 
    पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजपूतों ने फिर से हुंकार भरी है। इस बार उस समाजवादी पार्टी के खिलाफ यह हुंकार भरी गई है, जिस पार्टी को राजपूतों ने बीजेपी का विरोध कर जितवाया था। पहले बीजेपी नेता पुरुषोत्तम रुपाला के राजपूतों के खिलाफ टिप्पणी करने पर राजपूत गुस्से में थे तो इस बार समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने राणा सांगा के खिलाफ टिप्पणी करने पर आग बबूला हो उठे हैं। दोनों मामलों में एक बात तो सामने आई है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजपूत अपने मान सम्मान और अधिकार के प्रति जागरूक और संगठित हो रहे हैं। राजपूतों को संगठित करने का काम कर रहे हैं, किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष ठाकुर पूरन सिंह।पूरन सिंह ने लोकसभा चुनाव के समय पुरुषोत्तम रुपाला के खिलाफ मोर्चा खोलकर राजपूतों को बीजेपी के खिलाफ लामबंद किया था और चुनाव में राजपूतों की ताकत का एहसास करा दिया था। 70 से अधिक सीट जीतने का दावा करने वाली बीजेपी यूपी में 36 सीटों पर सिमट कर रह गई थी। इस बार पूरन सिंह हर कार्यक्रम में बोल रहे हैं कि वह न तो रामजी लाल सुमन से माफ़ी मंगवाना चाहते हैं। न सदस्यता खत्म कराना चाहते हैं। पूरन सिंह ने कहा है रामजी लाल सुमन की सजा उन लोगों ने सजा तय कर ली है। उनको सजा मिलेगी 100 फीसदी मिलेगी। मतलब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पूरन सिंह राजपूतों के नेता बनकर उभरे हैं।लोकसभा चुनाव में बीजेपी को ललकार कर उन्होंने हरवाया था और इस बार समाजवादी पार्टी का इलाज करने की बात कर रहे हैं। मतलब विधानसभा चुनाव में राजपूत समाजवादी प्रति के खिलाफ पंचायत करेंगे। देखने की बात यह है कि राजपूत समाज से तमाम सांसद, विधायक और नेता हैं पर गत दिनों में देखने को मिला है कि राजपूतों के मान सम्मान की लड़ाई पूरन सिंह ने लड़ी है। पूरन सिंह की काम करने की खासियत यह है कि वह के ओर किसान मजदूर का मुद्दा उठाते हैं वहीं किसी भी समाज के महापुरुष के अपमान पर वह उठ खड़े होते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को नेता जाटलैंड के रूप में याद करते रहे हैं पर पूरन सिंह ने जिस तरह से लोकसभा में राजपूतों की महापंचायतें की और जिस तरह से अब मुजफ्फरनगर में 36 बिरादरियों की पंचायत की है। उससे वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े नेता के रूप में उभरे हैं। यह पंचायत संयुक्त हिन्दू मोर्चा के बैनर तले हुई है। मतलब बात सीधी है कि बीजेपी के खिलाफ राजपूतों ने मोर्चा खोला था और समाजवादी पार्टी के खिलाफ 36 बिरादरी मोर्चा खोल रही है। तो क्या समाजवादी पार्टी की दिक्कत विधानसभा चुनाव में बढ़ने वाली है।मुजफ्फरनगर की यह 36 बिरादरियों की पंचायत विधानसभा चुनाव के लिए एक बड़ी भूमिका बनने वाली है। इस पंचायत का असर 12 अप्रैल को राणा सांगा की जयंती पर आगरा में देखने को मिलेगा। इस जयंती समारोह में करनी सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष महिपाल सिंह मकराना समेत तमाम राजपूत नेता पहुंच रहे हैं। देखने की बात यह है कि यह मुद्दा लोकसभा में भी उठा है। सड़क से लेकर संसद तक यह मुद्दा उठाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों ही मामलों में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम सामने आया था। बीजेपी के खिलाफ राजपूतों की लामबंदी में भी योगी की शह बताई जा रही थी तो समाजवादी पार्टी के खिलाफ लामबंदी में भी योगी आदित्यनाथ की शह बताई जा रही है।

  • वक्फ संसोधन बिल पर तीन सुझाव नीतीश का दांव या फिर बीजेपी की रणनीति ?

    वक्फ संसोधन बिल पर तीन सुझाव नीतीश का दांव या फिर बीजेपी की रणनीति ?

  • घिब्ली की दुनिया बनाम हकीकत: कला, रोजगार और मौलिकता का संघर्ष

    घिब्ली की दुनिया बनाम हकीकत: कला, रोजगार और मौलिकता का संघर्ष

    रोजगार हमारी ज़रूरतों के लिए आवश्यक है, लेकिन कला और मनोरंजन मानसिक शांति और प्रेरणा का स्रोत बन सकते हैं। घिब्ली स्टाइल इमेजरी और एआई टूल्स सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहे हैं, जिससे मौलिकता पर सवाल उठ रहे हैं। पहले जहां कलाकारों को महीनों मेहनत करनी पड़ती थी, अब एआई कुछ सेकंड में वैसा ही आर्ट तैयार कर देता है, जिससे असली कलाकारों को चुनौती मिल रही है।

    प्रियंका सौरभ

     

    अगर हम हकीकत की दुनिया में देखें, तो रोज़गार ज़रूरी है। बिना नौकरी या व्यवसाय के, सिर्फ घिब्ली की खूबसूरत दुनिया में खोकर पेट नहीं भरा जा सकता। लेकिन मानसिक शांति और प्रेरणा के लिए कला भी आवश्यक है। यही वजह है कि सोशल मीडिया पर घिब्ली स्टाइल की इमेज और वीडियो एक ट्रेंड बन चुके हैं। लोग पिनटेरेस्ट, इंस्टाग्राम और टिकटोक पर इसे देखकर टाइम पास कर रहे हैं, कुछ इसे खुद ट्राई कर रहे हैं, और एआई टूल्स की मदद से घिब्ली-स्टाइल की इमेज बना रहे हैं।

    आजकल सोशल मीडिया पर घिब्ली स्टाइल इमेज और वीडियो बहुत लोकप्रिय हो गए हैं। एआई टूल्स की मदद से अब कोई भी बिना आर्ट स्किल्स के घिब्ली जैसी इमेज बना सकता है। लोग पिनटेरेस्ट और इंस्टाग्राम पर घिब्ली मूवी के सीन से बनी एस्थेटिक गिफ्स और वॉलपेपर शेयर कर रहे हैं। टिकटोक और रील्स में घिब्ली सीन के साथ रिलेटेबल ऑडियो या कोट्स लगाकर मज़ेदार कंटेंट बनाया जा रहा है। कुछ एआई टूल्स अब आपकी असली फोटो को भी घिब्ली स्टाइल में बदल सकते हैं, जिससे लोग अपनी तस्वीरों को फेयरीटेल लुक दे रहे हैं। यह ट्रेंड सिर्फ मनोरंजन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक बड़ी बहस को जन्म दे रहा है—क्या एआई जनरेटेड आर्ट असली कला की जगह ले सकती है?

    एआई-जनरेटेड घिब्ली स्टाइल इमेजरी ने मौलिकता पर सवाल खड़ा कर दिया है। पहले कलाकारों को महीनों मेहनत करके घिब्ली जैसी पेंटिंग बनानी पड़ती थी, अब एआई कुछ सेकंड में वैसा ही कुछ तैयार कर देता है। लोग खुद से नया सोचने के बजाय रेडीमेड आर्ट पर निर्भर हो रहे हैं। असली कलाकार अब एआई-जेनरेटेड कंटेंट से मुकाबला करने को मजबूर हैं। एआई और टेम्प्लेट्स के चलते “कुछ हटकर” करने की सोच धीरे-धीरे खत्म हो रही है। अगर आर्ट को केवल एक ट्रेंड बना दिया गया, तो मौलिकता धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी। इसका समाधान यह है कि लोग घिब्ली स्टाइल से प्रेरणा लेकर अपनी खुद की यूनिक कहानियाँ और आर्ट बनाएं, न कि बस इंटरनेट पर मौजूद चीज़ों को दोहराएँ। घिब्ली की आत्मा सिर्फ उसकी खूबसूरत विज़ुअल्स में नहीं, बल्कि उसकी गहरी कहानियों और भावनात्मक जुड़ाव में है।

    अगर किसी को घिब्ली की दुनिया इतनी पसंद है कि वह इसमें कुछ नया जोड़ना चाहता है, तो यह एक रोजगार का साधन भी बन सकता है। उदाहरण के लिए डिजिटल आर्टिस्ट घिब्ली-स्टाइल आर्ट बनाकर पैसा कमा सकते हैं। मर्चेंडाइज़ बिज़नेस (पोस्टर, स्टिकर, कपड़े) से आय हो सकती है। YouTube और सोशल मीडिया पर घिब्ली स्टाइल कंटेंट क्रिएट करना एक करियर विकल्प हो सकता है। एनिमेशन इंडस्ट्री में घिब्ली से प्रेरित होकर ओरिजिनल शॉर्ट फिल्म्स और सीरीज़ बनाई जा सकती हैं। गेम डिज़ाइन और वीएफएक्स स्टूडियो में भी घिब्ली जैसी विज़ुअल स्टाइल को अपनाकर कैरियर बनाया जा सकता है। हालांकि, केवल घिब्ली की दुनिया में खोए रहना नुकसानदायक हो सकता है। असली ज़िंदगी के काम टलते रहते हैं, और लोग प्रोडक्टिविटी खो सकते हैं। अगर कोई सिर्फ एनीमेशन देखने में उलझा रहता है और अपने करियर पर ध्यान नहीं देता, तो यह एक समस्या बन सकती है।

    घिब्ली की दुनिया आदर्श (Idealistic) होती है—जहाँ हर चीज़ खूबसूरत, शांत और जादुई होती है। लेकिन असली दुनिया संघर्ष, तनाव और कठिनाइयों से भरी होती है। अगर कोई हर समय घिब्ली जैसी ज़िंदगी ढूंढे, तो असली दुनिया बेरंग और कठिन लग सकती है। समय की बर्बादी: लोग घंटों तक घिब्ली मूवीज़, पिनटेरेस्ट आर्ट, एआई -जनरेटेड इमेज और इंस्टाग्राम रील्स देखते रहते हैं। यह “टाइम पास” कब “टाइम वेस्ट” में बदल जाता है, पता भी नहीं चलता। अगर कोई सिर्फ एनीमेशन देखने में उलझा रहता है, लेकिन उसे अपने करियर पर ध्यान देना चाहिए, तो यह नुकसानदेह हो सकता है।

    अगर कोई हर समय घिब्ली जैसी ज़िंदगी ढूंढे, तो असली दुनिया बेरंग और कठिन लग सकती है। कुछ लोग इस वजह से प्रेरणा और महत्वाकांक्षा (Ambition) भी खो सकते हैं। घिब्ली स्टाइल इतना लोकप्रिय हो गया है कि कई कलाकार अपनी खुद की स्टाइल डिवेलप करने के बजाय सिर्फ घिब्ली-स्टाइल आर्ट कॉपी कर रहे हैं। घिब्ली स्टाइल एन्जॉय करें, लेकिन उसमें खो न जाएँ। अगर आपको आर्ट पसंद है, तो इसे एक स्किल में बदलें, जिससे आप कमाई कर सकें। अपने करियर और लाइफ गोल्स को इग्नोर न करें—काम ज़रूरी है, कला सिर्फ सुकून के लिए है। मौलिकता बनाए रखें—घिब्ली से प्रेरित हों, लेकिन अपनी खुद की यूनिक स्टाइल डेवलप करें। टाइम मैनेजमेंट करें—आर्ट और मनोरंजन का आनंद लें, लेकिन काम और ज़िम्मेदारियों को नज़रअंदाज़ न करें।

    घिब्ली का जादू खूबसूरत है, लेकिन अगर यह हमारी असली ज़िंदगी को प्रभावित करने लगे, तो नुकसान हो सकता है। बैलेंस बनाना ज़रूरी है—कला और करियर, कल्पना और हकीकत के बीच! घिब्ली-प्रेरित कला को करियर में बदला जा सकता है—डिजिटल आर्ट, मर्चेंडाइज़, यू ट्यूब कंटेंट और एनिमेशन इंडस्ट्री में इसका उपयोग हो सकता है। लेकिन सिर्फ घिब्ली की दुनिया में खो जाना नुकसानदेह हो सकता है—यह समय की बर्बादी, करियर पर असर, असली दुनिया से डिस्कनेक्ट और मौलिकता की कमी ला सकता है।

    समाधान यह है कि घिब्ली की प्रेरणा से कुछ नया और मौलिक बनाया जाए, न कि केवल कॉपी किया जाए। कला और रोजगार के बीच संतुलन बनाए रखना ज़रूरी है ताकि हम जीवन के दोनों पहलुओं का पूरा लाभ उठा सकें।

  • अभद्रता और अश्लीलता का गठजोड़ बन गया है क्रिकेट खेल …

    अभद्रता और अश्लीलता का गठजोड़ बन गया है क्रिकेट खेल …

    केएम भाई

    साथियों क्रिकेट खेल की शुरुआत जेंटल मैन गेम से हुयी थी| इसे बहुत ही सलीके से मित्रता के भाव के साथ खेला जाता था| यह खेल खिलाड़ियों के कौशल और शौक पर आधारित था गेंद और बल्ले से खेले जाने वाले इस गेम में जातिगत टिप्पणियाँ और भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं थी| सभी खेल भावना के साथ खेलते थे| पर जैसे जैसे समय बीता खेल के स्तर, तरीके और तकनीक में बदलाव तो हुआ ही साथ ही में खेल भावना में बदलाव हो गया| जीत-हार का प्रश्न बन गया, देशों के मान सम्मान का मामला बन गया, मैदान से ज्यादा यह मैदान के बाहर राजनीति का खेल बन गया है| और धीरे धीरे इसने एक अंतराष्ट्रीय व्यापार का रूप ले लिया| जहाँ खेल को निवेश के तौर पर खरीदा जाता है और एक अच्छे मुनाफे में बेचा जाता है और इस खरीद फरोख्त के खेल सब कुछ जायज है यहाँ बड़े-बड़े उद्योगपति अपने काले धन के निवेश के लिए खिलाडियों को ऊँचे ऊँचे दामों पर खरीदते हैं और फिर उनके बच्चे,खिलाडियों के साथ अय्यासी का खेल खेलते हैं यहाँ मुजरा घर की तरह देर शाम को महफ़िल जमती है चीयर लीडर्स के नाम पर मासूम लड़कियों को लाखों की भीड़ के मनोरंजन के लिए नचाया जाता है, चकाचौंध से सरोबोर मैदान में अय्यासी का खेल शुरू हो जाता है हर मैच को जानबूझ कर इतना रोमंचाकरी बनाया जाता है कि सट्टा बाजार में अधिक से अधिक पैसा लगाया जा सके और जनता के पैसे को लूटा जा सके|
    दरअसल सट्टेबाजी की कमाई से आईपीएल का एक गहरा नाता है, जाने-अनजाने तौर पर हम इस तमाशे को लगातार देख भी रहे हैं कि लोग आईपीएल में गली-मोहल्ले में दांव खेलते रहे. लेकिन हम इसे लगातार अनदेखा कर रहे हैं. हम इस बात की परवाह भी नहीं कर रहे हैं कि लोग सट्टेबाजों के जाल में उलझ कर पैसे तो गंवा ही रहे हैं, कईयों ने तो खुदकुशी तक कर ली है| आईपीएल में क्रिकेट का रोमांच कम, पैसे का खेल ज्यादा होता है| आईपीएल में पैसा बोलता भी है और पैसा खेलता भी है| इसी पैसे की बदौलत मैचो को रोमांचक भी बनाया जाता है और नतीजों को भी प्रभावित किया जाता है|

    सच तो यह है कि आईपीएल में खिलाड़ी भी खेलते हैं और मालिकान भी| सट्टेबाजी का दाग कुछ साल पहले लगा था तो खिलाड़ियों के साथ-साथ मालिकों का कलंक भी सामने आया था| अदालती कार्रवाई के बावजूद आईपीएल में जो खेल मैदान के बाहर हो रहा है वह बदस्तूर जारी है| सट्टेबाजी का खेल उजागर होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में मामला पहुंचा और सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस लोढा सिमति का गठन किया था| लोढा समिति ने अपनी सिफारिशों में भारत में सट्टेबाजी को वैध करने की बात कही थी| लोढा समिति ने अपनी इस सिफारिश को सार्वजनिक भी कर दिया| लेकिन सरकार ने ऐसा करने की इजाजत नहीं दी| सट्टेबाजी को सरकारों ने अनदेखा किया है हालांकि इसे बहुत सलीके और सुनियोजित तरीके से माफिया चला रहे हैं और पैसा बना रहे हैं|

    इसी सट्टेबाजी के लिए इसमें आलग अलग तरीके से रोमांच पैदा करने का प्रयास भी होता रहता है जिसमें भद्दे किस्म के विज्ञापन, मीडिया एड और हिंदी भाषा में देसी कमेंट्री भी शामिल है जहाँ खेल कमेंट्री के नाम पर नश्ल्भेदी टिप्प्णी की जाती हैखिलाड़ियों के रंग और धर्म पर तंज कसा जाता है| अभी हाल ही में एक मैच के दौरान भारतीय टीम के भूतपूर्व खिलाड़ी वर्तमान में आम आदमी पार्टी से राज्यसभा सांसद हरभजन सिंह ने इंग्लैण्ड टीम के एक खिलाड़ी के रंग पर टिप्पड़ी करते है हुए उसे काली टैक्सी कहकर संबोधित किया, पिछड़े क्षेत्रों से आने वाले खिलाड़ियों पर गरीबी में आटा गीला वाला मुहावरा दिया जाता है| जीत हार के नाम पर खिलाड़ियों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया जाता है  उनके परिवार और समाज पर तंज कसा जाता है| तो कैसे आप इसे भद्रजनों का खेल कहेंगे, यह तो एकदम अभद्रता पूर्ण खेल बन चुका है खेल की आड़ में नशे और जुए का कारोबार चल रहा है लाखों युवाओं को जीवन चौपट किया जा रहा है उन्हें जुए और नशे का आदी बनाया जा रहा है जिसकी वजह से कई परिवार कर्ज में डूबकर आत्महत्या को मजबूर हैं| और देश की सरकारें शांत हैं|

    इसलिए हम देश के सर्वोच्च न्यायालय से इंडियन प्रीमियर लीग  (आईपीएल) के आयोजन पर तुरंत रोक लगाने की मांग करते हैं इसके साथ ही ऑनलाइन सट्टेबाजी एप पर प्रतिबंध एवं इनके आयोजकों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही की सिफारिश करते हैं|

  • क्या सचमुच सिमट रही है दामन की प्रतिष्ठा?

    क्या सचमुच सिमट रही है दामन की प्रतिष्ठा?

    समय के साथ परिधान और समाज की सोच में बदलाव आया है। पहले “दामन” केवल वस्त्र का टुकड़ा नहीं, बल्कि मर्यादा और संस्कृति का प्रतीक माना जाता था। पारंपरिक वस्त्रों—साड़ी, घाघरा, अनारकली—को महिलाओं की गरिमा से जोड़ा जाता था। “दामन की प्रतिष्ठा” अब भी बनी हुई है, परंतु उसकी परिभाषा बदल चुकी है। परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। क्या छोटे वस्त्र संस्कारों का ह्रास हैं, या फिर मानसिकता का परिष्करण? क्या स्त्री का सम्मान उसके पहनावे से तय होना चाहिए, या फिर उसकी बुद्धिमत्ता, शिक्षा और आत्मनिर्भरता अधिक महत्वपूर्ण हैं?

    प्रियंका सौरभ

    समय की करवटों ने जब फैशन के रेशों को बुना, तब परिधान भी परिवर्तनों की सीढ़ियाँ चढ़ते चले गए। परंतु क्या इस बदलाव ने “दामन की प्रतिष्ठा” को भी प्रभावित किया है? क्या आधुनिक वस्त्रों ने पारंपरिक गरिमा को बिसरा दिया, या फिर समाज की दृष्टि अब और व्यापक हो चली है? समय के साथ परिधान और समाज की सोच में बदलाव आया है। पहले “दामन” केवल वस्त्र का टुकड़ा नहीं, बल्कि मर्यादा और संस्कृति का प्रतीक माना जाता था। क्या हम ये कह सकते है कि जैसे-जैसे दामन छोटा हुआ वैसे-वैसे मर्यादा और संस्कृति भी घटती गई।

    पारंपरिक दामन: गरिमा का प्रतीक

    “दामन” केवल वस्त्र का टुकड़ा नहीं, यह मर्यादा का आँचल, संस्कृति की पहचान और शालीनता की परिधि रहा है। भारतीय नारी के परिधान—साड़ी, घाघरा, अनारकली और दुपट्टा—न केवल उसके सौंदर्य को सँवारते थे, बल्कि उसकी गरिमा और मर्यादा का भी पर्याय बने। पहले “52 गज़ के दामन” का अर्थ भव्यता, शालीनता और गौरव से लिया जाता था। “दामन संभालना” मात्र वस्त्रों का सहेजना नहीं, बल्कि अपनी प्रतिष्ठा और चारित्रिक दृढ़ता को बचाए रखना भी था। समाज ने मर्यादा को बाह्य आवरण में समेट दिया, जिससे व्यक्तित्व का आकलन केवल परिधानों से होने लगा।

    बदलते परिधान, बदलती परिभाषाएँ

    समय अपनी गति से प्रवाहमान रहा, और उसके साथ समाज की सोच भी विस्तारित होती चली गई। अब वह समय नहीं, जब गरिमा की परिभाषा केवल कपड़ों की सिलवटों में समेट दी जाती थी। आज महिलाएँ अपने आत्मविश्वास की उड़ान को चुन रही हैं—जींस, टॉप, स्कर्ट, फॉर्मल सूट और इंडो-वेस्टर्न परिधानों के साथ। परिधान अब मात्र देह को ढकने का माध्यम नहीं, बल्कि व्यक्तित्व और विचारों की अभिव्यक्ति का स्वरूप बन गए हैं। परंपरा और आधुनिकता के ताने-बाने से एक नया फ्यूज़न जन्म ले चुका है, जो संस्कृति और स्वतंत्रता के बीच संतुलन स्थापित करता है। गरिमा अब वस्त्रों की परिधि में सीमित नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और व्यवहार में प्रतिबिंबित होती है।

    क्या आधुनिकता ने दामन की प्रतिष्ठा को धूमिल किया?

    यह एक जटिल प्रश्न है, जिसकी गूँज समय और समाज दोनों में सुनी जा सकती है। क्या वस्त्रों का लघु होना संस्कारों का ह्रास है, या फिर मानसिकता का परिष्करण? क्या किसी स्त्री का सम्मान उसके पहनावे तक सीमित रहना चाहिए? क्या उसकी बुद्धिमत्ता, शिक्षा और आत्मनिर्भरता उससे अधिक मूल्यवान नहीं? क्या परिधान की लंबाई उसके विचारों की ऊँचाई से अधिक महत्त्व रखती है? कुछ का मत है कि आधुनिकता ने संस्कृति को धूमिल किया, परंतु अन्य इसे आत्म-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रूप में देखते हैं। वास्तविकता यह है कि गरिमा बाह्य आवरण में नहीं, बल्कि आचरण और आत्मसम्मान में होती है।

    समाज का नजरिया और स्त्रियों की स्वतंत्रता

    अब भी कई स्थानों पर परिधानों को लेकर परंपरा की बेड़ियाँ जकड़ी हुई हैं। “ऐसे वस्त्र मत पहनो, लोग क्या कहेंगे?” जैसे शब्द आज भी अनगिनत घरों की दीवारों से टकराते हैं। “कपड़ों से संस्कार झलकते हैं!” “लड़की हो, थोड़ा सभ्य कपड़े पहनो!” “ऐसे खुले विचार नहीं, यह हमारी संस्कृति नहीं!” परंतु क्या परिधान ही संस्कारों की कसौटी है? समाज को इस सोच से आगे बढ़ना होगा कि स्त्रियों की मर्यादा वस्त्रों से नहीं, उनके विचारों से आँकी जानी चाहिए। समय के प्रवाह में समाज ने अनेक रूप बदले हैं, परंतु स्त्रियों की स्वतंत्रता को लेकर उसकी सोच अब भी दो ध्रुवों में बँटी हुई प्रतीत होती है। एक ओर आधुनिकता की लहर उन्हें आत्मनिर्भर और स्वतंत्र बना रही है, तो दूसरी ओर परंपरा की जड़ें अब भी उनकी उड़ान में अवरोध उत्पन्न करती हैं। सवाल यह उठता है—क्या स्त्री सचमुच स्वतंत्र हुई है, या यह केवल एक भ्रम है?

    संस्कृति और स्वतंत्रता: संतुलन आवश्यक है

    “दामन की प्रतिष्ठा” अब भी बनी हुई है, बस उसकी परिभाषा ने एक नया रूप धारण कर लिया है। परंपरा हमारी जड़ों से जुड़ी होती है, लेकिन जड़ों को मजबूती देने के लिए शाखाओं का फैलना भी जरूरी है। संस्कृति को आधुनिकता के साथ संतुलित करना आवश्यक है। महिलाओं को अपनी इच्छा से परिधान चुनने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। असली गरिमा पहनावे में नहीं, बल्कि विचारों, कर्मों और आत्म-सम्मान में बसती है। समय की सुइयाँ कभी पीछे नहीं दौड़तीं। परिधान बदल सकते हैं, परंतु सम्मान और गरिमा की वास्तविक पहचान व्यक्ति के आचरण और आत्मसम्मान में होती है। “दामन की प्रतिष्ठा” आज भी जीवंत है, बस उसका अस्तित्व अब कपड़ों की सिलवटों में नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और स्वतंत्रता के विस्तृत आकाश में देखा जाता है।

    कई बार जब “दामन की प्रतिष्ठा” पर चर्चा होती है, तो असल में यह संस्कृति और स्वतंत्रता के बीच संतुलन का मामला होता है। परंपराएँ समाज की जड़ों से जुड़ी होती हैं, लेकिन उनका बदलते समय के साथ ढलना भी जरूरी है। महिलाओं को यह अधिकार होना चाहिए कि वे जो पहनना चाहें, पहन सकें, बिना किसी सामाजिक दबाव के। गरिमा और मर्यादा पहनावे से ज्यादा व्यक्ति के व्यवहार, सोच और कृत्यों में झलकती है। संस्कृति और आधुनिकता में संतुलन बनाए रखना सबसे अच्छा समाधान है। फैशन और पहनावा बदल सकते हैं, लेकिन सम्मान और गरिमा व्यक्ति की सोच और कर्मों से आती है। “दामन की प्रतिष्ठा” आज भी बनी हुई है, बस उसकी परिभाषा बदल गई है – यह अब सिर्फ कपड़ों में नहीं, बल्कि व्यक्तित्व और आत्म-सम्मान में दिखती है।

  • सौगात – ए – मोदी या हिंद ?

    सौगात – ए – मोदी या हिंद ?

  • Senseless Justice : बार-बार समाज को झकझोरते सवेंदनहीन, अमानवीय फैसले

    Senseless Justice : बार-बार समाज को झकझोरते सवेंदनहीन, अमानवीय फैसले

    क्या हमारी न्याय प्रणाली यौन अपराधों के मामलों में और अधिक संवेदनशील हो सकती है? या फिर ऐसे सवेंदनहीन, अमानवीय फैसले बार-बार समाज को झकझोरते रहेंगे? यह मामला न्यायपालिका की संवेदनशीलता और यौन अपराधों के खिलाफ कड़े कानूनों की प्रभावशीलता पर सवाल उठाता है। महिला संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने फैसले का विरोध किया, जिससे सोशल मीडिया पर #JusticeForVictims और #JudiciaryReform जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे। यह जरूरी है कि न्याय व्यवस्था सिर्फ कानूनी पहलुओं पर नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक आधारों पर भी फैसले ले, ताकि पीड़ितों को न्याय मिले और अपराधियों को कड़ा संदेश जाए।

     


    प्रियंका सौरभ

    17 मार्च को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसने कानूनी गलियारों से लेकर आम जनता तक सभी को हैरान कर दिया। मामला था नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म की कोशिश का, लेकिन कोर्ट ने आरोपी को जमानत देते हुए कुछ ऐसी टिप्पणियाँ कर दीं, जिन पर बवाल मच गया। देखते ही देखते यह मामला गरमाया और सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत एक्शन लेते हुए हाई कोर्ट की विवादास्पद टिप्पणियों पर रोक लगा दी और यूपी सरकार व केंद्र सरकार से जवाब मांग लिया। अब यह मामला और भी दिलचस्प हो गया है, क्योंकि यह सिर्फ एक कानूनी लड़ाई नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का विषय भी बन चुका है।

    विवाद की जड़ क्या थी?

    हाई कोर्ट के फैसले में कहा गया कि पीड़िता के निजी अंग पकड़ना और नाड़ा खोलने की कोशिश करना ‘दुष्कर्म की कोशिश’ की परिभाषा में नहीं आता। बस, यही बयान आग में घी डालने जैसा साबित हुआ! कानून के जानकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम जनता ने इस पर सवाल उठाए। कई लोगों ने इसे यौन अपराधों के खिलाफ बनाए गए कड़े कानूनों को कमजोर करने वाला करार दिया। POCSO (Protection of Children from Sexual Offences) एक्ट के तहत दर्ज इस मामले में हाई कोर्ट की टिप्पणी न केवल चौंकाने वाली थी, बल्कि इसने यह संकेत भी दिया कि शायद न्यायपालिका में कुछ बदलावों की जरूरत है।

    न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता

    यह कोई पहला मामला नहीं है जब न्यायपालिका के किसी फैसले ने विवाद खड़ा किया हो। इससे पहले भी कई ऐसे निर्णय सामने आए हैं, जिन्होंने यौन हिंसा से जुड़े मामलों में न्याय व्यवस्था की संवेदनशीलता पर सवाल उठाए हैं। कई बार पीड़ितों को न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं, और कई मामलों में फैसले इतने कमजोर होते हैं कि अपराधियों को इसका लाभ मिल जाता है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायपालिका को यौन अपराधों के मामलों में अधिक जागरूक और संवेदनशील होने की जरूरत है। सिर्फ कानून की किताबों में लिखी धाराओं का पालन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह भी देखना जरूरी है कि इनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है।

    सुप्रीम कोर्ट का जवाबी हमला

    सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को गंभीरता से लेते हुए पाया कि इस तरह की टिप्पणियाँ समाज में गलत संदेश दे सकती हैं। इससे भविष्य में अन्य मामलों में भी गलत नज़ीर (precedent) बन सकती है। ऐसे में, शीर्ष अदालत ने फौरन हाई कोर्ट की विवादास्पद टिप्पणियों पर रोक लगा दी।
    इसके अलावा, यूपी सरकार और केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी कर दिया गया कि वे इस पर अपना पक्ष रखें। अब देखना दिलचस्प होगा कि सरकारें इस मुद्दे पर क्या रुख अपनाती हैं।

    सड़क से सोशल मीडिया तक विरोध

    यह मामला सिर्फ अदालत तक सीमित नहीं रहा। महिला अधिकार संगठनों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे अन्याय करार दिया। ट्विटर से लेकर सड़क तक, इस फैसले का जमकर विरोध हुआ। ट्रेंड्स में #JusticeForVictims और #JudiciaryReform जैसे हैशटैग छा गए। लोगों का कहना था कि ऐसे फैसले यौन हिंसा के पीड़ितों का हौसला तोड़ सकते हैं और अपराधियों को बढ़ावा मिल सकता है। महिला संगठनों ने भी इस मुद्दे पर कड़ा विरोध जताया और मांग की कि ऐसे मामलों में न्यायपालिका को ज्यादा सतर्क रहना चाहिए। कई विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के फैसले समाज में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर डर का माहौल बना सकते हैं।

    क्या कहता है कानून?

    भारतीय दंड संहिता (IPC) और POCSO अधिनियम के तहत यौन अपराधों के खिलाफ सख्त प्रावधान हैं। इनमें सजा के स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं, लेकिन कई बार अदालतों की व्याख्या इन मामलों में दोषियों को राहत देने का काम करती है। विशेषज्ञों का मानना है कि POCSO एक्ट को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसमें संशोधन की जरूरत है, ताकि ऐसे मामलों में सख्त और त्वरित न्याय मिल सके। सरकार को भी इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ऐसी कानूनी खामियों को दूर करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए। अब सबकी नज़रें सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई पर टिकी हैं। क्या हाई कोर्ट का फैसला पूरी तरह पलटा जाएगा? क्या आरोपी की जमानत रद्द होगी? या फिर सुप्रीम कोर्ट कोई नई गाइडलाइन जारी करेगा? यह मामला सिर्फ कानूनी लड़ाई तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह भारतीय न्याय प्रणाली की कार्यप्रणाली और उसकी संवेदनशीलता की परीक्षा भी बन चुका है।

    समाज के लिए एक सीख

    इस पूरे घटनाक्रम से एक बड़ा सवाल उठता है – क्या हमारी न्याय प्रणाली यौन अपराधों के मामलों में और अधिक संवेदनशील हो सकती है? या फिर ऐसे सवेंदनहीन, अमानवीय फैसले बार-बार समाज को झकझोरते रहेंगे? यह जरूरी है कि न्याय व्यवस्था सिर्फ कानूनी पहलुओं पर नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक आधारों पर भी फैसले ले, ताकि पीड़ितों को न्याय मिले और अपराधियों को कड़ा संदेश जाए। कानून सिर्फ किताबों में दर्ज शब्द नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे पीड़ितों की आवाज़ बनना चाहिए। इसके अलावा, सरकार और न्यायपालिका को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि यौन हिंसा से जुड़े मामलों में दोषियों को सख्त सजा मिले और पीड़ितों को जल्द से जल्द न्याय मिले। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक ऐसे विवादित फैसले समाज को झकझोरते रहेंगे और पीड़ितों का न्याय प्रणाली से भरोसा उठता रहेगा।

    बार-बार समाज को झकझोरते सवेंदनहीन, अमानवीय फैसले

    क्या हमारी न्याय प्रणाली यौन अपराधों के मामलों में और अधिक संवेदनशील हो सकती है? या फिर ऐसे सवेंदनहीन, अमानवीय फैसले बार-बार समाज को झकझोरते रहेंगे? यह मामला न्यायपालिका की संवेदनशीलता और यौन अपराधों के खिलाफ कड़े कानूनों की प्रभावशीलता पर सवाल उठाता है। महिला संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने फैसले का विरोध किया, जिससे सोशल मीडिया पर #JusticeForVictims और #JudiciaryReform जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे। यह जरूरी है कि न्याय व्यवस्था सिर्फ कानूनी पहलुओं पर नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक आधारों पर भी फैसले ले, ताकि पीड़ितों को न्याय मिले और अपराधियों को कड़ा संदेश जाए।

     


    प्रियंका सौरभ

    17 मार्च को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐसा फैसला सुनाया, जिसने कानूनी गलियारों से लेकर आम जनता तक सभी को हैरान कर दिया। मामला था नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म की कोशिश का, लेकिन कोर्ट ने आरोपी को जमानत देते हुए कुछ ऐसी टिप्पणियाँ कर दीं, जिन पर बवाल मच गया। देखते ही देखते यह मामला गरमाया और सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने तुरंत एक्शन लेते हुए हाई कोर्ट की विवादास्पद टिप्पणियों पर रोक लगा दी और यूपी सरकार व केंद्र सरकार से जवाब मांग लिया। अब यह मामला और भी दिलचस्प हो गया है, क्योंकि यह सिर्फ एक कानूनी लड़ाई नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का विषय भी बन चुका है।

    विवाद की जड़ क्या थी?

    हाई कोर्ट के फैसले में कहा गया कि पीड़िता के निजी अंग पकड़ना और नाड़ा खोलने की कोशिश करना ‘दुष्कर्म की कोशिश’ की परिभाषा में नहीं आता। बस, यही बयान आग में घी डालने जैसा साबित हुआ! कानून के जानकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम जनता ने इस पर सवाल उठाए। कई लोगों ने इसे यौन अपराधों के खिलाफ बनाए गए कड़े कानूनों को कमजोर करने वाला करार दिया। POCSO (Protection of Children from Sexual Offences) एक्ट के तहत दर्ज इस मामले में हाई कोर्ट की टिप्पणी न केवल चौंकाने वाली थी, बल्कि इसने यह संकेत भी दिया कि शायद न्यायपालिका में कुछ बदलावों की जरूरत है।

    न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता

    यह कोई पहला मामला नहीं है जब न्यायपालिका के किसी फैसले ने विवाद खड़ा किया हो। इससे पहले भी कई ऐसे निर्णय सामने आए हैं, जिन्होंने यौन हिंसा से जुड़े मामलों में न्याय व्यवस्था की संवेदनशीलता पर सवाल उठाए हैं। कई बार पीड़ितों को न्याय मिलने में सालों लग जाते हैं, और कई मामलों में फैसले इतने कमजोर होते हैं कि अपराधियों को इसका लाभ मिल जाता है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायपालिका को यौन अपराधों के मामलों में अधिक जागरूक और संवेदनशील होने की जरूरत है। सिर्फ कानून की किताबों में लिखी धाराओं का पालन करना पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह भी देखना जरूरी है कि इनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है।

    सुप्रीम कोर्ट का जवाबी हमला

    सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के फैसले को गंभीरता से लेते हुए पाया कि इस तरह की टिप्पणियाँ समाज में गलत संदेश दे सकती हैं। इससे भविष्य में अन्य मामलों में भी गलत नज़ीर (precedent) बन सकती है। ऐसे में, शीर्ष अदालत ने फौरन हाई कोर्ट की विवादास्पद टिप्पणियों पर रोक लगा दी।
    इसके अलावा, यूपी सरकार और केंद्र सरकार को भी नोटिस जारी कर दिया गया कि वे इस पर अपना पक्ष रखें। अब देखना दिलचस्प होगा कि सरकारें इस मुद्दे पर क्या रुख अपनाती हैं।

    सड़क से सोशल मीडिया तक विरोध

    यह मामला सिर्फ अदालत तक सीमित नहीं रहा। महिला अधिकार संगठनों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे अन्याय करार दिया। ट्विटर से लेकर सड़क तक, इस फैसले का जमकर विरोध हुआ। ट्रेंड्स में #JusticeForVictims और #JudiciaryReform जैसे हैशटैग छा गए। लोगों का कहना था कि ऐसे फैसले यौन हिंसा के पीड़ितों का हौसला तोड़ सकते हैं और अपराधियों को बढ़ावा मिल सकता है। महिला संगठनों ने भी इस मुद्दे पर कड़ा विरोध जताया और मांग की कि ऐसे मामलों में न्यायपालिका को ज्यादा सतर्क रहना चाहिए। कई विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के फैसले समाज में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा को लेकर डर का माहौल बना सकते हैं।

    क्या कहता है कानून?

    भारतीय दंड संहिता (IPC) और POCSO अधिनियम के तहत यौन अपराधों के खिलाफ सख्त प्रावधान हैं। इनमें सजा के स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं, लेकिन कई बार अदालतों की व्याख्या इन मामलों में दोषियों को राहत देने का काम करती है। विशेषज्ञों का मानना है कि POCSO एक्ट को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए इसमें संशोधन की जरूरत है, ताकि ऐसे मामलों में सख्त और त्वरित न्याय मिल सके। सरकार को भी इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और ऐसी कानूनी खामियों को दूर करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए। अब सबकी नज़रें सुप्रीम कोर्ट की अगली सुनवाई पर टिकी हैं। क्या हाई कोर्ट का फैसला पूरी तरह पलटा जाएगा? क्या आरोपी की जमानत रद्द होगी? या फिर सुप्रीम कोर्ट कोई नई गाइडलाइन जारी करेगा? यह मामला सिर्फ कानूनी लड़ाई तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह भारतीय न्याय प्रणाली की कार्यप्रणाली और उसकी संवेदनशीलता की परीक्षा भी बन चुका है।

    समाज के लिए एक सीख

    इस पूरे घटनाक्रम से एक बड़ा सवाल उठता है – क्या हमारी न्याय प्रणाली यौन अपराधों के मामलों में और अधिक संवेदनशील हो सकती है? या फिर ऐसे सवेंदनहीन, अमानवीय फैसले बार-बार समाज को झकझोरते रहेंगे? यह जरूरी है कि न्याय व्यवस्था सिर्फ कानूनी पहलुओं पर नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक आधारों पर भी फैसले ले, ताकि पीड़ितों को न्याय मिले और अपराधियों को कड़ा संदेश जाए। कानून सिर्फ किताबों में दर्ज शब्द नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे पीड़ितों की आवाज़ बनना चाहिए। इसके अलावा, सरकार और न्यायपालिका को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि यौन हिंसा से जुड़े मामलों में दोषियों को सख्त सजा मिले और पीड़ितों को जल्द से जल्द न्याय मिले। जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक ऐसे विवादित फैसले समाज को झकझोरते रहेंगे और पीड़ितों का न्याय प्रणाली से भरोसा उठता रहेगा।

  • कहिए श्रीमान क्या हाल है

    कहिए श्रीमान क्या हाल है

    मैं सत्यदेव त्रिपाठी बोल रहा हूं। जब कभी सत्यदेव जी का टेलीफोन आता था तो इसी वाक्य से बात शुरू शुरू करते थे। 7 दिन पहले 19 मार्च 2025 को सायंकाल 6:36 पर आखरी बार उनसे टेलीफोन पर बात हई। तकरीबन 59 साल पहले नवंबर 1966 में पहली बार उनसे मुलाकात हुई थी। दिल्ली यूनिवर्सिटी के नॉर्थ कैंपस में लाइब्रेरी के सामने बने कैफेटेरिया में हमारे नेता प्रोफेसर विनय कुमार मिश्रा ने बृजभूषण तिवारी तथा सत्यदेव त्रिपाठी से परिचय करवाया था। मैं उस वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ का उपाध्यक्ष था। डॉ राममनोहर लोहिया ने छात्रों, युवकों की मांग के समर्थन में 18 नवंबर 1966 को संसद को मांग पत्र देने के लिए प्रदर्शन की घोषणा कर दी थी। प्रदर्शन की घोषणा के कारण कांग्रेस सरकार रेडियो, अखबारों से लगातार मुनादी कर रही थी कि दिल्ली की सरहद में बाहर से आने वाले किसी युवक को आने की इजाजत नहीं है। रेलवे स्टेशनों बस अड्डों तथा दिल्ली की सीमाओं में दाखिल होने वाले सारे रास्तों में पुलिस का कड़ा पहरा लगा हुआ था। दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाखिल होने वाले गेटों को बंद कर दिया गया था। उस समय के केंद्रीय उपमंत्री विद्या चरण शुक्ल लगातार चेतावनियां जारी कर रहे थे कि दिल्ली में किसी भी बाहर के युवक को आने की इजाजत नहीं है। दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष सुभाष गोयल जो कि यूथ कांग्रेस के थे, उनके वक्तव्य कि दिल्ली में कोई प्रदर्शन नहीं होगा, लगातार अखबारों रेडियो में प्रकाशित हो रहे थे। माहौल बहुत ही तनावपूर्ण था क्योंकि कुछ ही दिन पहले संसद पर गौरक्षा को लेकर साधुओं का प्रदर्शन हुआ था जिस पर गोली चलने के कारण कई साधु संसद भवन के सामने मारे गए थे, अनेक लोग घायल हुए थे। संसद पर घोषित प्रदर्शन में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के युवा संगठन स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया तथा ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन भी शामिल थे। प्रोफेसर विनय कुमार ने मुझे खबर दी कि डॉक्टर लोहिया के रकाबगंज के आवास पर एक आवश्यक बैठक में जरूर पहुंचना है। बैठक में जब मैं वहां पहुंचा तो डॉक्टर लोहिया के साथ जनेश्वर मिश्र, (भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री) प्रोफेसर विनय कुमार मिश्रा, बृजभूषण तिवारी (भूतपूर्व सांसद) सत्यदेव त्रिपाठी, सतपाल मलिक (भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री एवं राज्यपाल) तथा दो तीन अन्य साथी वहां मौजूद थे। डॉक्टर साहब ने सूचना दी कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने प्रदर्शन से अपने आप को यह कहकर अलग कर लिया है कि हमें गुप्त सूचना मिली है कि जैसे साधुओं के जुलूस पर गोली चली थी, वैसा ही खतरा इस प्रदर्शन पर है। डॉक्टर साहब ने हमसे पूछा कि अब आप लोगों का क्या इरादा है, हमारी ओर से सबसे पहले और बड़े दमदार तरीके से सत्यदेव त्रिपाठी ने कहा कि हम पीछे नहीं हटेंगे, प्रदर्शन होकर रहेगा। आखरी में फैसला हुआ की 18 नवंबर को प्रदर्शन होगा। उसी दिन कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भूपेश गुप्त (राज्यसभा सदस्य) के फिरोजशाह रोड के सरकारी घर पर एसएफआई के बड़े नेता विमान बोस जो कि बाद में बंगाल में लेफ्ट पार्टियों के संयोजक तथा बड़े नेता रहे हैं तथा ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के रंजीत गुहा तथा जोगेंद्र दयाल भी पहले से मौजूद थे। समाजवादी युवजन सभा की तरफ से बृजभूषण तिवारी, सत्यदेव त्रिपाठी, सतपाल मलिक तथा में शामिल हुए। स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ़ इंडिया तथा ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के प्रतिनिधियों ने कहा कि प्रदर्शन को टाल दिया जाए, जिसकी सूचना डॉक्टर लोहिया ने हमें पहले से ही दे दी थी। कुछ ही मिनट के बाद पुलिस की बख़्तरबंद लारी मकान के गेट पर आकर रुकी तथा पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया। उनके अफसर ने कहा कि आप लोग गिरफ्तार है। पुलिस को अंदर आता देखकर मै और सतपाल मलिक एक मंजिला मकान की छत पर गिरफ्तारी से बचने के लिए पहुंच गए। नीचे कमरे से सत्यदेव जी की जोरदार आवाज में गिरफ्तारी से पूर्व के स्टेटमेंट की डिक्टेशन जारी थी। सत्यदेव त्रिपाठी, बृजभूषण तिवारी को पुलिस पकड़ कर ले गई। मैं और सतपाल मलिक पुलिस जाने के बाद छत से उतरकर बचते बचाते अपने स्थान पर पहुंचे।
    18 नवंबर को मैंने और मेरे पांच साथियों प्रसिद्ध पत्रकार रमेश गौड, मनजीत सिंह एडवोकेट ने विश्वविद्यालय में नारा लगाते हुए जुलूस निकाला। पुलिस ने हमें गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल की बैंरक नंबर दो में पहुंचा दिया, जहां डॉक्टर लोहिया सहित सैकड़ो गिरफ्तार साथी मौजूद थे।
    सत्यदेव त्रिपाठी हमारे संगठन के प्रमुख नेता थे। लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के महामंत्री के पद पर भी चुने जा चुके थे, वे धारा प्रवाह भाषा में माहौल बना देते थे। वह हमारे संगठन “समाजवादी युवजन सभा” के महामंत्री भी रह चुके थे। उस दौर में उनका समय क्या तो रेल में या जेल में बितता था। बिना किसी साधन के दौरा करके विपरीत हालात में संगठन को विस्तार देने में लगे रहते थे। देहरादून में समाजवादी युवजन सभा का शिक्षण शिविर आयोजित था, प्रतिनिधियों के लिए जिस व्यक्ति ने भोजन की जिम्मेदारी ली थी किन्हीं कारण वश वे उसको निभा नहीं पाए। सत्यदेव त्रिपाठी और मारकंडेय सिंह बिना देर किए देहरादून की अनाज मंडी में पहुंच गए तथा अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर कुछ ही समय में राशन पानी की व्यवस्था कर दी।
    19778 में उत्तर प्रदेश सरकार में वे मंत्री भी बनाए गए,तभी उनका विवाह भी हुआ था। उनकी राजनीति का दुखद अध्याय उनके गृह नगर इटावा की स्थानीय सियासत से शुरू हुआ। मुलायम सिंह यादव भी इटावा के थे और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मुलायम सिंह जी की 1966 में राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहचान नहीं बनी थी, वह बेशक विधायक बन गए थे। सोशलिस्टों में राष्ट्रीय स्तर पर त्रिपाठी जी को सभी नेता कार्यकर्ता जानते थे। हालांकि मुलायम सिंह जी भी उनका सम्मान करते थे। परंतु स्थानीय राजनीति में कुछ लोगों ने इन दोनों के बीच अलगाव पैदा कर दिया। मुलायम सिंह प्रदेश के नेता के साथ ही राष्ट्रीय स्तर के नेता भी बन गए। मुख्यमंत्री तथा केंद्र में डिफेंस मिनिस्टर के पद पर भी वे पहुंच गए।
    निराशा के दौर में सत्यदेव त्रिपाठी कांग्रेस में शामिल हो गए। परंतु अपनी आदत से मजबूर वे कांग्रेस पार्टी में भी सोशलिस्ट स्टाइल में जवाब सवाल करने लगे, वहां उनका बहुत दिनों तक कैसे निर्वाह होता। इधर बढ़ती हुई उम्र और परिवार के दबाव में वे आखिर में भाजपा में भी शामिल हो गए। भाजपा में शामिल होने के बाद उनके पुराने संगी साथी जो उनका आदर करते थे वह भी उनसे नाराज हो चले थे। कांग्रेस में रहते वक्त भी उनका अधिकतर समय अपने पुराने सोशलिस्टों की संगत में गुजरता था तथा सब उनका बेहद सम्मान करते थे। परंतु बीजेपी में जाने के बाद वे निराशा के शिकार हो गए। मेरी आखिरी बातचीत में भी मैंने उनसे कहा कि आप हमारे नेता रहे हैं, आपको भाजपा में नहीं जाना चाहिए था। उन्होंने कहा कि हां गलती हुई है, मैं तुम्हारे, रमाशंकर और अन्य साथीयों के साथ बैठकर बात कर भाजपा को छोड़ दूंगा। अफसोस उससे पहले ही उनका इंतकाल हो गया।
    सत्यदेव त्रिपाठी वैचारिक प्रतिबद्ध, आस्थावान सोशलिस्ट थे। तमाम उम्र उन्होंने संघर्ष किया। सोशलिस्ट इतिहास, सिद्धांतों नीतियों के बहुत ही उच्च कोटि के व्याख्याकार थे। मिलनसारिता, खुशमिजाजी, बिना किसी शिकायत उनकी शख्सियत के आयाम थे।
    मैं अपने अग्रज सोशलिस्ट नेता को श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं।
    राजकुमार जैन