Category: विचार

  • अखिलेश का अकेले मुश्किल है भाजपा से निपटना

    अखिलेश का अकेले मुश्किल है भाजपा से निपटना

    चरण सिंह राजपूत

    ले ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तारीख अभी घोषित न हुई हो पर सभी दल चुनावी समर में उतर चुके हैं। वैसे तो कई दल सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं पर असली लड़ाई सपा और भाजपा के बीच मानी जा रही है। दोनों ही पार्टियां एक दूसरे की गलतियां निकालते हुए चुनावी प्रचार में लगी हैं। भाजपा जहां सत्ता के बल पर समाजवादी पार्टी को निशाना बना रही है वहीं सपा सरकार की कमियों को उजागर करके चुनावी माहौल बनाने में लगी है। उत्तर प्रदेश चुनाव में लखीमपुर खीरी कांड बड़ा मुद्दा बन चुका है। किसानों को अपनी गाड़ी से कुचलने के आरोप का सामना कर रहे केंद्रीय राज्य मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष को भले ही जमानत न मिल रही हो पर किसानों को सुधर जाओ नहीं तो सुधार दिये जाआगे की धमकी देने वाली अजय मिश्रा का भाजपा कुछ न बिगाड़ पा रही है। किसान संगठनों के अलावा विपक्ष भी लगातार अजय मिश्रा को उनके पद से हटाने की मांग कर रहा है। संसद में भी अजय मिश्रा को हटाने की मांग जोर शोर से हो रही है पर अजय मिश्रा का कुछ नहीं बिगड़ पा रहा है। दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मनोहर जोशी, शत्रुघन सिन्हा को ठिकाने लगाने वाली भाजपा टेनी का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे है। अजय मिश्रा का गृह मंत्री अमित शाह के साथ मंच शेयर करना और  पत्रकारों के साथ बदसलूकी करना भाजपा के खिलाफ जा रहा है। विपक्ष के साथ ही पत्रकारों ने भी अजय मिश्रा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है पर भाजपा अजय मिश्रा पर एक्शन लेने से बच रही है। इसमें दो राय नहीं है कि भाजपा जितना समय अजय मिश्रा के खिलाफ कार्रवाई करन में ले रही है उतना ही नुकसान उसे विधानसभा चुनाव में उठाने का अंदेशा हो रहा है। भले ही येागी सरकार ने राकेश टिकैत को साधकर लखीमपुर खीरी कांड को काफी हद तक शांत कर दिया था पर अजय मिश्रा के खिलाफ कार्रवाई की मांग राकेश टिकैत भी समय-समय पर करते रहे हैं। भाजपा को विधानसभा चुनाव में नुकसान उठाने का बड़ा कारण अजय मिश्रा का आपराधिक रिकार्ड रहा है। लखीमपुर खीरी मामले में एसआइटी ने जो जांच रिपोर्ट बनाई है, उसमें भी अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्र पर गंभीर आरोप लगे हैं, जिस पर पत्रकारों ने उनसे बात करना चाहा तो वे धमकी देते हुए बुरी तरह भड़क गए और बदसलूकी भी की। पत्रकार टेनी की आपराधिक छवि पर चर्चा तेज हो गई है।

    दरअसल अजय मिश्रा उर्फ़ टेनी की आपराधिक डोर बहुत लंबी है, 1990 में ही इन पर आपराधिक मामला दर्ज हुआ, 1996 में हिस्ट्रीशीटर घोषित किए गए, जिसकी नोटिस बाद में रद्द हो गई। वहीं 2000 में हत्या मामले में इन पर मुकदमा हुआ, जिस पर ये निचली अदालत से बरी हो गए मगर मामला अभी उच्च न्यायालय में चल रहा है। इसकी वजह से इनकी आम छवि अपराधी की रही है। लखीमपुर की घटना के बाद से इन पर कार्रवाई की मांग की जा रही है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार चुनावी नफा-नुकसान को देखते हुए इन पर कार्रवाई नहीं कर रही है। कहा जा रहा है कि अगर सरकार इनको हटाती है तो किसानों की नाराजगी कम जरूर होगी, लेकिन विपक्ष चुनाव के दौरान यह कहते हुए हावी हो जाएगा कि सरकार ने देर से एक्शन देर से लिया। दूसरी तरफ अगर सरकार हटाती है तो विपक्ष  भले ही चुप हो जाओ लेकिन ब्राह्मण वोट जरूर नाराज होगा। हटाने पर सरकार जीरो टॉलरेंस नीति का प्रचार करेगी, लेकिन लखीमपुर कांड में गिरफ्तार किसानों की रिहाई की मांग भी जोर पकड़ेगी। दरअसल लखीमपुर हिंसा से कुछ दिन पहले ही लखीमपुर के सम्पूर्णानगर में हुई एक बैठक में मंत्री टेनी किसान आंदोलन के प्रति बेहद कठोर दिखे थे । टेनी किसानों को धमकाते हुए कह रहे थे कि ‘सुधर जाओ नहीं तो हम सुधार देंगे, केवल दो मिनट लगेंगे। मैं केवल मंत्री, सांसद, विधायक नहीं हूं, जो लोग मेरे मंत्री बनने से पहले के बारे में जानते हैं उनसे पूछ लो कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं हूं। जिस दिन ये चुनौती मैं स्वीकार कर लूंगा तो तुम लोगों को पलियां ही नही बल्कि लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा’। बहरहाल टेनी का इतिहास सबके सामने है और लखीमपुर मामला टेनी पर भारी पड़ता दिख रहा है। फिर भी भाजपा का अपराध और अपराधों के प्रति सख्ती का रवैया कुछ साफ नहीं हो रहा। मोदी के मंत्रिमंडल में टेनी अब भी बने हुए हैं, जबकि बुधार को पत्रकारों के साथ उनकी बदसलूकी मीडिया में वायरल हो चुकी है। सूत्रों का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस पूरे प्रकरण पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

  • किसानों के सबसे बड़े पैरोकार चौधरी चरण सिंह चौधरी

    किसानों के सबसे बड़े पैरोकार चौधरी चरण सिंह चौधरी

    देश में जब भी किसान और खेत खलियान की बात आती है तो चौधरी चरण सिंह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। समाजवादी नेताओं में भी चरण सिंह अगली पंक्ति में रहे हैं। सत्ता की नींव में जहां डॉ. राममनोहर लोहिया का खाद-पानी स्मरणीय है वहीं पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का जाति तोड़ो सिद्धांत व उनकी स्वीकार्यता भी अहम बिन्दु है। चौधरी चरण सिंह की जयंती पर समाजवाद सरोकार में उनके जैसे खांटी नेताओं की याद आना लाजमी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस के विरुद्ध सशक्त समाजवादी विचारधारा की स्थापना का श्रेय भले ही डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को जाता हो पर आज की तारीख में जितनी भी समाजवाद पर पार्टियां हैं उनमें से अधिकतर के रहनुमा जिस पाठशाला में राजनीति का ककहरा सीख कर आए, उसके आचार्य चरण सिंह रहे हैं। यहां तक कि हरियाणा और बिहार के समाजवादियों को भी चरण सिंह ने राजनीतिक पाठ पढ़ाया।
    चौधरी चरण सिंह ने अजगर शक्ति अहीर, जाट, गुज्जर और राजपूत का शंखनाद किया। उनका कहना था कि अजगर समूह किसान तबका है। उन्होंने अजगर जातियों से रोटी-बेटी का रिश्ता जोड़ने का भी आह्वान किया तथा अपनी एक बेटी को छोड़ सारी बेटियों की शादी अंतरजातीय की। यह चरण सिंह की विचारधारा का ही असर है कि उत्तर प्रदेश की सपा सरकार चरण सिंह की नीतियों पर चलने का आश्वासन देती रही है तो उनके पुत्र और अजीत सिंह के निधन के बाद उनके पौत्र जयंत चौधरी उनके नाम पर राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं।
    आज भले ही उनके शिष्यों पर परिवाद और पूंजीवाद के आरोप लग रहे हों पर चौधरी चरण सिंह पूंजीवाद और परिवारवाद के घोर विरोधी थे तथा गांव गरीब तथा किसान उनकी नीति में सर्वोपरि थे। हां अजित सिंह को विदेश से बुलाकर पार्टी की बागडोर सौंपने पर उन पर पुत्रमोह का आरोप जरूर लगा। तबके कम्युनिस्ट नेता चौ. चरण सिंह को कुलक नेता जमीदार कहते थे जबकि सच्चाई यह भी है चौ. चरण सिंह के पास भदौरा (गाजियाबाद) गांव में मात्र 27 बीघा जमीन थी जो जरूरत पडने पर उन्होंने बेच दी थी। यह उनकी ईमानदारी का प्रमाण है कि जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके नाम कोई जमीन और मकान नहीं था।
    चरण सिंह ने अपने करियर की शुरुआत मेरठ से वकालत के रूप में की। चरण सिंह का व्यक्तित्व और कृतित्व विलक्षण था तथा गांव तथा किसान के मुद्दे पर बहुत संवेदनशील हो जाते थे। आर्य समाज के कट्टर अनुयायी रहे चरण सिंह पर महर्षि दयानंद का अमिट प्रभाव था। चरण सिंह मूर्ति पूजा, पाखंड और आडम्बर में कतई विश्वास नहीं करते थे । यहां तक कि उन्होंने जीवन में न किसी मजार पर जाकर चादर चढ़ाई और न ही मूर्ति पूजा की। चौधरी चरण सिंह की नस-नस में सादगी और सरलता थी तथा वह किसानों की पीड़ा से द्रवित हो उठते थे। उन्होंने कांग्रेस के गढ़ को ध्वस्त करने का जो संकल्प लिया, उसे पूरा भी किया।शून्य से शिखर पर पहुंचकर भी उन्होंने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। चरण सिंह ने कहा था कि भ्रष्टाचार की कोई सीमा नहीं है जिस देश के लोग भ्रष्ट होंगे, चाहे कोई भी लीडर आ जाये, चाहे कितना ही अच्छा कार्यक्रम चलाओ, वह देश तरक्की नहीं कर सकता।
    वैसे तो चौधरी चरण सिंह छात्र जीवन से ही विभिन्न  सामाजिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में भाग लेने लगे थे पर उनकी राजनीतिक पहचान 1951 में उस समय बनी जब उन्हें उत्तर प्रदेश में कैबिनेट मंत्री का पद प्राप्त हुआ। उन्होंने न्याय एवं सूचना विभाग संभाला।
    चरण सिंह स्वभाव से ही किसान थे। यह उनका किसानों के प्रति लगाव ही था कि उनके हितों के लिए अनवरत प्रयास करते रहे। 1960 में चंद्रभानु गुप्ता की सरकार में उन्हें गृह तथा कृषि मंत्रालय दिया गया। उस समय तक वह उत्तर प्रदेश की जनता के मध्य अत्यंत लोकप्रिय हो चुके थे। उत्तर प्रदेश के किसान चरण सिंह को अपना मसीहा मानते थे। उन्होंने किसान नेता की हैशियत से उत्तर प्रदेश में भ्रमण करते हुए किसानों की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास किया। किसानों में सम्मान होने के कारण चरण सिंह को किसी भी चुनाव में हार का मुंह नहीं देखना पड़ा। उनकी ईमानदाराना कोशिशों की सदैव सराहना हुई। वह लोगों के लिए एक राजनीतिज्ञ से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ता थे। उन्हे भाषण देने में महारत हासिल थी। यही कारण था कि उनकी जनसभाओं में भारी भीड़ जुट जाती थी। यह उनकी भाषा शैली ही थी कि लोग उन्हें सुनने को लालायित रहते थे। 1969 में कांग्रेस का विघटन हुआ तो चौधरी चरण सिंह कांग्रेस (ओ) के साथ जुड़ गए। इनकी निष्ठा कांग्रेस सिंडिकेट के प्रति रही। वह कांग्रेस (ओ) के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री तो बने पर बहुत समय तक इस पद पर न रह सके।
    कांग्रेस विभाजन का प्रभाव उत्तर प्रदेश राज्य की कांग्रेस पर भी पड़ा था। केंद्रीय स्तर पर हुआ विभाजन राज्य स्तर पर भी लागू हुआ। चरण सिंह इंदिरा गांधी के सहज विरोधी थे। इस कारण वह कांग्रेस (ओ) के कृपापात्र बने रहे। जिस समय इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तो उस समय भी उत्तर प्रदेश संसदीय सीटों के मामले मे बड़ा और महत्वपूर्ण राज्य था। इंदिरा गांधी का गृह प्रदेश होने का कारण एक वजह था। इस कारण उन्हें यह स्वीकार न था कि कांग्रेस (ओ) का कोई व्यक्ति उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहे। इंदिरा गांधी ने दो अक्टूबर 1970 को उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। चौधरी चरण सिंह का मुख्यमंत्रित्व जाता रहा। इससे इंदिरा के प्रति चौधरी चरण सिंह का रोष और बढ़ गया था। हालांकि उत्तर प्रदेश की जमीनी राजनीति से चरण सिंह को बेदखल करना संभव न था। चरण सिंह उत्तर प्रदेश में प्रदेश में भूमि सुधार के लिए अग्रणी नेता माने जाते हैं। 1960 में उन्होंने भूमि हदबंदी कानून लागू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
    ईमरजेंसी लगने के बाद 1977 में हुए चुनाव में जब जनता पार्टी जीती तो आंदोलन के अगुआ जयप्रकाश नारायण के सहयोग मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने और चरण सिंह को गृहमंत्री बनाया गया। सरकार बनने के बाद से ही मोरारजी देसाई और चरण सिंह के मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे। 28 जुलाई, 1979 को चौधरी चरण सिंह समाजवादी पार्टियों तथा कांग्रेस (यू) के सहयोग से प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गए। कांग्रेस और सीपीआई ने उन्हें बाहर से समर्थन दिया। प्रधानमंत्री बनने में इंदिरा गांंधी का समर्थन लेना राजनीतिक पंडित चरण सिंह की पहली और आखिरी गलती मानते हैं।
    दरअसल इंदिरा गांधी जानती थीं कि मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के रिश्ते खराब हो चुके हैं। यदि चरण सिंह को समर्थन देने की बात कहकर बगावत के लिए मना लिया जाए तो जनता पार्टी में बिखराव शुरू हो जाएगा। इंदिरा गांधी ने ही चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की भावना को हवा दी थी। चरण सिंह ने इंदिरा गांधी की बात मान ली और प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी ने 20 अगस्त 1979 तक लोकसभा में बहुमत सिद्ध करने को  कहा इस प्रकार विश्वास मत प्राप्त करने के लिए उन्हें मात्र 13 दिन ही मिले । इसे चरण सिंह का दुर्भाग्य कहें या फिर समय की नजाकत कि इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त, 1979 को बिना बताए समर्थन वापस लिए जाने की घोषणा कर दी। चरण सिंह जानते थे कि विश्वास मत प्राप्त करना असंभव ही है। यहां पर यह बताना जरूरी होगा कि इंदिरा गांधी ने समर्थन के लिए शर्त लगा दी थी। उसके अनुसार जनता पार्टी सरकार ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध जो मुकदमें कायम किए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए, चौधरी साहब इसके लिए तैयार न थे। इसलिए उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी चली गई। वह जानते थे कि जो उन्होंने ईमानदार और सिद्धांतवादी नेता की छवि बना रखी। वह सदैव के लिए खंडित हो जाएगी। अत: संसद का एक बार भी सामना किए बिना चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया।
    प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के साथ-साथ चौधरी चरण सिंह ने राष्ट्रपति नीलम संजीवन रेड्डी से मध्यावधि चुनाव की सिफारिश भी की ताकि किसी अन्य द्वारा प्रदानमंत्री का दावा न किया जा सके। राष्ट्रपति ने इनकी अनुशंसा पर लोकसभा भंग कर दी। चौधरी चरण सिंह को लगता था कि इंदिरा गांधी की तरह जनता पार्टी भी अलोकप्रिय हो चुकी है। अत: वह अपनी लोकदल पार्टी और समाजवादियों से यह उम्मीद लगा बैठे कि मध्यावधि चुनाव में उन्हें बहुमत प्राप्त हो जाएगा। इसके अलावा चरण सिंह को यह आशा भी थी कि उनके द्वारा त्यागपत्र दिए जाने के कारण उन्हें जनता की सहानुभूति मिलेगी। किसानों में उनकी जो लोकप्रियता थी कि वह असंदिग्ध थी। वह मध्यावधि चुनाव में ‘किसान राजा के चुनावी नारे के साथ में उतरे। तब कार्यवाहक प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ही थे, जब मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए। वह 14 जनवरी 1980 तक ही भारत के प्रधानमंत्री रहे। इस प्रकार उनका कार्यकाल लगभग नौ माह का रहा।
    चौधरी चरण सिंह की व्यक्तिगत छवि एक ऐसे देहाती पुरुष की थी जो सादा जीवन और उच्च विचार में विश्वास रखता था। इस कारण इनका पहनावा एक किसान की सादगी को प्रतिबिम्बत करता था। एक प्रशासक के तौर पर उन्हें बेहद सिद्धांतवादी और अनुशासनप्रिय माना जाता था। वह सरकारी अधिकारियों की लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार के प्रबल विरोधी थे। प्रत्येक राजनीतिज्ञ की यह स्वभाविक इच्छा होती है कि वह राजनीति के शीर्ष पद पहुंचे। इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं है। चरण सिंह अच्छे वक्ता थे और बेहतरीन सांसद भी थे। वह जिस कार्य को करने का मन बना लें तो फिर उसे पूरा करके ही दम लेते थे। चौधरी चरण सिंह राजनीति में स्वच्छ छवि रखने वाले इंसान थे। वह अपने समकालीन लोगों के समान गांधीवादी विचारधारा में यकीन रखते थे। स्वतंत्रता प्राप्त के बाद गांधी टोपी को कई दिग्गज नेताओं ने त्याग दिया था पर चौधरी चरण सिंह ने इसे जीवन पर्यंत धारण किए रखा।
    बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि चरण सिंह एक कुशल लेखक की आत्मा भी रखते थे। उनका अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। उन्होंने ‘आबॉलिशन ऑफ जमींदारी, लिजेंड प्रोपराटरशिप और इंडियास पॉवर्टी एंड सोल्यूशंस नामक पुस्तकों का लेखन भी किया। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी का पुरागमन चरण सिंह की राजनीतिक विदाई का महत्वपूर्ण कारण बना।

  • बीजेपी को भारी पड़ सकता है टेनी का बचाव

    बीजेपी को भारी पड़ सकता है टेनी का बचाव

    चरण सिंह राजपूत 

    ले ही उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तारीख अभी घोषित न हुई हो पर सभी दल चुनावी समर में उतर चुके हैं। वैसे तो कई दल सरकार बनाने का दावा कर रहे हैं पर असली लड़ाई सपा और भाजपा के बीच मानी जा रही है। दोनों ही पार्टियां एक दूसरे की गलतियां निकालते हुए चुनावी प्रचार में लगी हैं। भाजपा जहां सत्ता के बल पर समाजवादी पार्टी को निशाना बना रही है वहीं सपा सरकार की कमियों को उजागर करके चुनावी माहौल बनाने में लगी है। उत्तर प्रदेश चुनाव में लखीमपुर खीरी कांड बड़ा मुद्दा बन चुका है। किसानों को अपनी गाड़ी से कुचलने के आरोप का सामना कर रहे केंद्रीय राज्य मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष को भले ही जमानत न मिल रही हो पर किसानों को सुधर जाओ नहीं तो सुधार दिये जाआगे की धमकी देने वाली अजय मिश्रा का भाजपा कुछ न बिगाड़ पा रही है। किसान संगठनों के अलावा विपक्ष भी लगातार अजय मिश्रा को उनके पद से हटाने की मांग कर रहा है। संसद में भी अजय मिश्रा को हटाने की मांग जोर शोर से हो रही है पर अजय मिश्रा का कुछ नहीं बिगड़ पा रहा है। दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मनोहर जोशी, शत्रुघन सिन्हा को ठिकाने लगाने वाली भाजपा टेनी का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहे है। अजय मिश्रा का गृह मंत्री अमित शाह के साथ मंच शेयर करना और  पत्रकारों के साथ बदसलूकी करना भाजपा के खिलाफ जा रहा है। विपक्ष के साथ ही पत्रकारों ने भी अजय मिश्रा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है पर भाजपा अजय मिश्रा पर एक्शन लेने से बच रही है। इसमें दो राय नहीं है कि भाजपा जितना समय अजय मिश्रा के खिलाफ कार्रवाई करन में ले रही है उतना ही नुकसान उसे विधानसभा चुनाव में उठाने का अंदेशा हो रहा है। भले ही येागी सरकार ने राकेश टिकैत को साधकर लखीमपुर खीरी कांड को काफी हद तक शांत कर दिया था पर अजय मिश्रा के खिलाफ कार्रवाई की मांग राकेश टिकैत भी समय-समय पर करते रहे हैं। भाजपा को विधानसभा चुनाव में नुकसान उठाने का बड़ा कारण अजय मिश्रा का आपराधिक रिकार्ड रहा है। लखीमपुर खीरी मामले में एसआइटी ने जो जांच रिपोर्ट बनाई है, उसमें भी अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्र पर गंभीर आरोप लगे हैं, जिस पर पत्रकारों ने उनसे बात करना चाहा तो वे धमकी देते हुए बुरी तरह भड़क गए और बदसलूकी भी की। पत्रकार टेनी की आपराधिक छवि पर चर्चा तेज हो गई है।

    दरअसल अजय मिश्रा उर्फ़ टेनी की आपराधिक डोर बहुत लंबी है, 1990 में ही इन पर आपराधिक मामला दर्ज हुआ, 1996 में हिस्ट्रीशीटर घोषित किए गए, जिसकी नोटिस बाद में रद्द हो गई। वहीं 2000 में हत्या मामले में इन पर मुकदमा हुआ, जिस पर ये निचली अदालत से बरी हो गए मगर मामला अभी उच्च न्यायालय में चल रहा है। इसकी वजह से इनकी आम छवि अपराधी की रही है। लखीमपुर की घटना के बाद से इन पर कार्रवाई की मांग की जा रही है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार चुनावी नफा-नुकसान को देखते हुए इन पर कार्रवाई नहीं कर रही है। कहा जा रहा है कि अगर सरकार इनको हटाती है तो किसानों की नाराजगी कम जरूर होगी, लेकिन विपक्ष चुनाव के दौरान यह कहते हुए हावी हो जाएगा कि सरकार ने देर से एक्शन देर से लिया। दूसरी तरफ अगर सरकार हटाती है तो विपक्ष  भले ही चुप हो जाओ लेकिन ब्राह्मण वोट जरूर नाराज होगा। हटाने पर सरकार जीरो टॉलरेंस नीति का प्रचार करेगी, लेकिन लखीमपुर कांड में गिरफ्तार किसानों की रिहाई की मांग भी जोर पकड़ेगी। दरअसल लखीमपुर हिंसा से कुछ दिन पहले ही लखीमपुर के सम्पूर्णानगर में हुई एक बैठक में मंत्री टेनी किसान आंदोलन के प्रति बेहद कठोर दिखे थे । टेनी किसानों को धमकाते हुए कह रहे थे कि ‘सुधर जाओ नहीं तो हम सुधार देंगे, केवल दो मिनट लगेंगे। मैं केवल मंत्री, सांसद, विधायक नहीं हूं, जो लोग मेरे मंत्री बनने से पहले के बारे में जानते हैं उनसे पूछ लो कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं हूं। जिस दिन ये चुनौती मैं स्वीकार कर लूंगा तो तुम लोगों को पलियां ही नही बल्कि लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा’। बहरहाल टेनी का इतिहास सबके सामने है और लखीमपुर मामला टेनी पर भारी पड़ता दिख रहा है। फिर भी भाजपा का अपराध और अपराधों के प्रति सख्ती का रवैया कुछ साफ नहीं हो रहा। मोदी के मंत्रिमंडल में टेनी अब भी बने हुए हैं, जबकि बुधार को पत्रकारों के साथ उनकी बदसलूकी मीडिया में वायरल हो चुकी है। सूत्रों का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस पूरे प्रकरण पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।
  • यूपीए से ज्यादा तो एनडीए है बिखराव का शिकार

    यूपीए से ज्यादा तो एनडीए है बिखराव का शिकार

    अनिल जैन
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने के लिए बेताब तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पिछले दिनों कहा कि कांग्रेस अब विपक्ष की भूमिका निभाने और विपक्षी एकता की अगुवाई करने में सक्षम नहीं है। यह कहने के साथ ही उन्होंने यह सवाल भी उठाया कि यूपीए अब कहां है? हालांकि उनके इस सवाल पर तमिलनाडु की सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनैत्र कड़गम यानी डीएमके, शिव सेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) आदि विपक्षी पार्टियों ने तत्काल प्रतिक्रिया जताते हुए साफ कर दिया कि कांग्रेस के बगैर कोई विपक्षी मोर्चा नहीं सकता। डीएमके की ओर से यह भी कह दिया गया कि वह अभी भी यूपीए में ही है और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अगुवाई में यूपीए अभी भी अस्तित्व में है।
    गौरतलब है कि यूपीए यानी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन का गठन 2004 में लोकसभा चुनाव के बाद हुआ था। कांग्रेस की अगुवाई में बने इस गठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल, डीएमके, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, नेशनल कांफ्रेन्स, तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस), केरल कांग्रेस, भारतीय मुस्लिम लीग आदि पार्टियां शामिल थीं। केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में इस गठबंधन की सरकार बनी थी।
    यह सही है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपीए को करारी हार का सामना करना पड़ा और उसके एक-दो घटक भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए में शामिल होकर सरकार का हिस्सा बन गए। लेकिन चार राज्यों तमिलनाडु, महाराष्ट्र, झारखंड और कर्नाटक में उसने एनडीए को सत्ता से बेदखल किया। बिहार में भी उसने एनडीए को कड़ी टक्कर दी लेकिन मतगणना के दौरान चुनाव आयोग के विवादास्पद और पक्षपातपूर्ण फैसलों ने उसे बहुमत हासिल करने से रोक दिया। कर्नाटक में भी उसकी सरकार लंबे समय तक नहीं चल पाई और वहां विधायकों की खरीद-फरोख्त और बड़े पैमाने पर दलबदल के जरिए भाजपा सत्ता पर काबिज हो गई।
    जो भी हो, यूपीए ने भले ही पिछले सात सालों के दौरान मौजूदा सरकार की जनविरोधी नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ आंदोलन या संघर्ष का कोई कार्यक्रम नहीं बनाया हो, मगर उसका वजूद तो बना हुआ ही है। अगर लोक जनशक्ति पार्टी जैसी एक-दो पार्टियां उसे छोड़ कर एनडीए में शामिल हुई हैं तो शिव सेना जैसा एनडीए का सबसे पुराना और मजबूत घटक भाजपा से नाता तोड़ कर यूपीए के साथ अनौपचारिक तौर पर जुड़ा भी है। महाराष्ट्र में उसके नेतृत्व में गठबंधन सरकार चल रही है, जिसमें कांग्रेस और एनसीपी साझेदार है।
    बहरहाल यूपीए के वजूद पर ममता बनर्जी के सवाल उठाए जाने के बाद से भाजपा के प्रचार तंत्र के रूप में काम करने वाले मीडिया में यह बहस लगातार चल रही है कि यूपीए अब कहां है, कौन उसका अध्यक्ष है, किसी को याद नहीं कि उसकी आखिरी बैठक कब हुई थी आदि आदि। अगर इसी आधार पर गठबंधन का आकलन करना है तो फिर सवाल उठता है कि एनडीए कहां है? उसमें कौन-कौन सी पार्टियां शामिल हैं? उसका अध्यक्ष कौन है और उसकी आखिरी बैठक कब हुई थी? हकीकत यह है कि एनडीए भी सिर्फ कहने भर को है और कागजों पर ही है। अगर उसमें शामिल रही पार्टियों के उससे अलग होने की चर्चा करेंगे तो पता चलेगा कि वह यूपीए से ज्यादा बिखरा हुआ और लुंजपुंज हालत में है।
    भाजपा के नेतृत्व में एनडीए का गठन 1998 में हुआ था। उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम की छोटी-बड़ी 27 पार्टियों को मिला कर बने देश के इस सबसे बड़े गठबंधन की अटल बिहारी वाजपेयी के अगुवाई में सरकार बनी थी। वह सरकार छह साल तक चली। साल 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए के सत्ता से बाहर होते ही कई दल उस गठबंधन से छिटक गए। भाजपा के साथ उस गठबंधन में रह गए थे सिर्फ शिव सेना, शिरोमणि अकाली दल, जनता दल (यू), अन्ना द्रमुक और तेलुगू देशम पार्टी। लेकिन 2014 के चुनाव में एनडीए का फिर विस्तार हुआ और करीब 16 छोटी-बड़ी पार्टियां उसका हिस्सा बनी, लेकिन पांच साल बाद ही कई पार्टियों ने उससे नाता तोड़ लिया।
    कहने को तो आज भी एनडीए अस्तित्व में है, लेकिन उसमें भाजपा के साथ रही सबसे पुरानी दो सहयोगी पार्टियां उससे न सिर्फ अलग हो गई हैं बल्कि दोनों के साथ भाजपा की दुश्मनी चल रही है। भाजपा की सबसे पुरानी और विश्वस्त मानी जाने वाली शिव सेना थी, जो एनडीए में उसके गठन के पहले दिन से शामिल थी लेकिन अब वह पिछले डेढ़ साल से कांग्रेस के साथ है और महाराष्ट्र में उसके तथा एनसीपी के साथ मिल कर सरकार चला रही है। भाजपा और शिव सेना की दुश्मनी का आलम यह है कि महाराष्ट्र में शिवसेना की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार को एक तरफ राज्यपाल के जरिए आए दिन परेशान किया जा रहा है तो दूसरी ओर उसके कई नेताओं को आयकर और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जैसी केंद्रीय एजेंसियों ने अपने निशाने पर ले रखा है।
    शिव सेना की तरह ही शुरू से एनडीए में रहा अकाली दल भी एक साल पहले तीन कृषि कानूनों का विरोध करते हुए भाजपा और एनडीए से नाता तोड़ चुका है। उसके साथ भी भाजपा ने शत्रुतापूर्ण रवैया अपना रखा है। दिल्ली में अकाली दल के सबसे बड़े नेता को तोड़ कर अपने साथ लाने के बाद अब भाजपा पंजाब में भी अकाली दल को तोड़ने के लिए मेहनत कर रही है।
    अटल बिहारी वाजपेयी के समय बने एनडीए में भाजपा के साथ रही तेलुगू देशम पार्टी भी बहुत पहले एनडीए से नाता तोड़ चुकी है। एक समय एनडीए का हिस्सा रही हरियाणा की दो पार्टियां-ओमप्रकाश चौटाला का इंडियन नेशनल लोकदल और कुलदीप विश्नोई की हरियाणा जनहित कांग्रेस भी अब भाजपा के साथ नहीं हैं। झारखंड की पार्टी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) भी भाजपा से अलग हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में कुछ समय पहले तक भाजपा की सहयोगी रही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी अब उसके साथ नहीं है और वह समाजवादी पार्टी के गठबंधन में शामिल हो गई है।
    कुल मिलाकर हाल के वर्षों में यूपीए से ज्यादा बिखराव का शिकार एनडीए हुआ है। जनता दल (यू) के अलावा भाजपा के सभी बड़े सहयोगी दल एनडीए से बाहर निकल चुके हैं। अलबत्ता पूर्वोत्तर के राज्यों में जरूर भाजपा ने अपने पैर जमाने के लिए वहां के अलगाववादी गुटों से हाथ मिला कर उन्हें अपने गठबंधन में शामिल किया है। ऐसे संगठनों के सहयोग से असम, मणिपुर, अरुणाचल, त्रिपुरा आदि राज्यों में उसने चुनाव भी लड़े हैं और अब उनके साथ वह सरकार भी चला रही है।
    यूपीए और एनडीए के बारे में एक दिलचस्प बात यह भी है कि यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी हैं, यह तो सबको मालूम है, लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम है और शायद एनडीए में शामिल कई दलों को भी नहीं मालूम होगा कि एनडीए के चेयरमैन 2014 के बाद से अभी तक अमित शाह ही हैं।

  • योग कर ऑफिस में होने वाले तनाव से पाएं छुटकारा 

    योग कर ऑफिस में होने वाले तनाव से पाएं छुटकारा 

    अंकित कुमार गोयल 

    फिस कर्मचारी (Physical and mental problems) शारीरिक  और मानसिक समस्याएँ से हैं ग्रसित, तो आइयें जानतें हैं वो अपनी (Routine) दिनचर्या में बदलाव करके आसान से (yoga tips) योग के टिप्स अपनाकर कैसे आसानी से इन समस्याओं (Problems) से पा सकतें हैं छुटकारा –
    जब हम (long hours of office) लम्बे समय तक ऑफिस में काम करते हैं । सुबह ऑफिस जल्दी पहुँचने की चिंता में नाश्ता breakfast ठीक से ग्रहण नहीं कर पाते हैं ।  ऑफिस में दिन भर एक ही अवस्था में बैठकर कार्य करते हैं या फिर ऑफिस का (environment) वातावरण शांत नहीं होता हैं अर्थात तनावपूर्ण (stressful) रहता है,  (work pressure) कार्य का दबाव अधिक रहता हैं,  तो ऐसी स्थिति में शरीर में  तेज़ी के साथ दोष आने लगते हैं  ।  वो व्यक्ति , महिला या पुरुष जो लम्बे समय तक ऑफिस में एक बैठकर एक ही अवस्था में कार्य करते हैं या फिर ऑफिस में उनको लम्बे समय तक कम्प्यूटर पर कार्य करना पड़ता हे,  तो उनके शरीर में धीरे -धीरे कई प्रकार के दोष आने लगते हैं जैसे – हाथों और पैरो में जकड़न होना , कंधे और गर्दन में दर्द होना , पाचन बिगड़ना , हड्डियों में दर्द , शरीर की प्रणालियों में शिथिलता आ जाना , तनाव का होना और मानसिक अशांत रहना आदि।
    हम अपनी दिनचर्या में कुछ बदलाव करके , प्रतिदिन  कुछ योगिक क्रियाएँ करके और प्राणायाम करके ना सिर्फ़  इन सब परेशानियों से बहुत आसानी से निज़ात पा सकते हैं बल्कि अपना जीवन को शांत ,बेहतर और सयंमित और ऊर्जावान बना सकते हैं। आइये जानते हैं क्या है लक्षण , कारण और निवारण-
    लक्षण :- ऑफिस कर्मचारियों के शरीर में आने वाले दोषो के सामान्य लक्षण निम्नलिखित  हो सकते हैं ।
    हाथों में और कमर अकड़न और जकड़न रहना , (shoulder) कंधे और (neck) गर्दन में दर्द और अकड़न होना , (lower back pain) कमर के निचले भाग में दर्द होना , पैट में (Constipation and gas formation) कब्ज की शिकायत और गैस बनना , सिर में भारीपन लगना , तनाव रहना , उच्च रक्त चाप रहना , आँखों के आगे धुंधलापन होना , आँखों से पानी आना , आँखों में स्ट्रेन बनना ,रीढ़ की हड्डी का सख्त हो जाना , घबराहट होना , मन अशांत रहना , मोटापा और मधुमेह का रोग होना ।
    कारण :-देर तक कुर्सी पर बैठकर एक ही अवस्था में कम्प्यूटर पर टकटकी लगाकर काम करना ,   बॉस के द्वारा कार्य का दबाव बनाना  , पदोन्नति में रूकावट ,
    आयु का बढ़ना , चाय और कॉफ़ी का बार – बार सेवन करना , योग्यतानुसार कार्य ना मिलना , (smoking) धूम्रपान और  तम्बाकू का सेवन करना , (living a passive life) निष्क्रिय जीवन जीना, (physical activity) शारीरिक गतिविधि या योगाभ्यास का प्रतिदिन ना होना ये कुछ ऐसे कारण हैं जिससे ऑफिस कर्मचारियों की (physical and mental problems) शारीरक और मानसिक समस्याएँ पैदा होती हैं ।निवारण (Redressal):-
    ऑफिस में काम करने वाले कर्मचारियों को लम्बे समय तक एक ही अवस्था में बैठकर काम करना पड़ता हैं, उनके शरीर के कुछ भाग की माशपेशियों में जकड़न आने लगती है जिससे उनके शरीर में रक्त का प्रवाह ठीक से नहीं हो पाता है , उनके संकुचन (सिकुड़न) contraction और आंकुचन Flexion (विस्तार में कमी होना) की क्रिया भी ठीक से नहीं हो पाती है,  धीरे धीरे रीढ़ की हड्डी वाला भाग भी सख्त होने लगता है, जिससे शरीर के इन जगह पर दर्द रहना लगता है, शरीर के इन हिस्सों को फ्लेक्सिबल (लचकदार) बनाने के लिए पाचन , निष्काषन और रीढ़ को मज़बूत बनाने वाले अभ्यास करने चाहियें ।
    योगासन :- योगासन में शुक्ष्म क्रियाएं गर्दन , कन्धे और  हाथों की शुक्ष्म क्रियाएं करनी चाहियें इसके अलावा ताड़ासन , तिर्यक ताड़ासन , कटिचक्रासन , हस्तोतानासन, पादहस्तासन का अभ्यास करना चाहिये और इसके अतिरिक्त भुजंगासन , उष्ट्राषन फिर उष्ट्रासन का काउंटर पोज़  शशांकसन और मकरासन को प्रतिदिन योगसाधना में शामिल करें।

    प्राणायाम :- प्राणायाम का सरल अर्थ  है – प्राण या श्वास का आयाम या (Expansion) विस्तार  ही प्राणायाम कहलाता है।  प्राणायाम में (bhastrika pranayama) भस्त्रिका प्राणायाम , लम्बे गहरे स्वास लेना और छोड़ना , कपालभाति प्राणायाम (kapalbhati pranayama), भ्रामरी प्राणायाम (bhramari pranayama)  का अभ्यास किया जा सकता है।

    भोजन (Diet) :- सांयकालीन भोजन सुपाच्य और  आठ भजे तक ग्रहण कर  लें। दिन के समय में मौसम के हिसाब से सामान्य या गुनगुना पानी का सेवन करते रहें।  भोजन करने से पहले मौसम के सलाद अवश्य लें।  (tea and coffee) चाय और कॉफी  का सेवन कम करें।  चाय या कॉफ़ी की जगह (Sattvik tea) सात्विक चाय भी ले सकते हैं। (homely made food) ऑफिस में घर का बना भोजन अपने साथ लेकर जाएँ।

    अन्य सुझाव (Other suggestions) :-

    ऑफिस से घर आने के बाद दस मिनट शवासन (SAVASANA) या बीस से पच्चीस मिनट योगनिंद्रा (YOGANINDRA) का अभ्यास अवश्य करें,  योगनिंद्रा करने से ना सिर्फ़ आपको दिन भर की थकान  से राहत मिलेगी बल्कि शारीरिक स्थिरता, हल्कापन  और मानसिक शांति मिलेगी।  ऑफिस में प्रत्येक डेढ़ से दो घंटे के बाद कुर्सी के पास खड़े होकर या कुर्सी पर बैठकर ही गर्दन, कंधे, बाजु और रीढ़ की हड्डी से सम्बंधित योगिक क्रियाएँ करनी चाहियें। कम्प्यूटर पर देर तक काम करने वाले कर्मचारियों को सलाह दी जाती है 20 -25 फ़ीट की दूरी पर बार-बार देखना तथा  आँखों को बार – बार बंद करना और खोलने की क्रिया करना।  कुर्सी पर बैठे – बैठे शरीर को ढीला छोड़े।  आँखे बंद कर लें। nostrils नासिका के अग्रभाग (आगे का भाग) पर एकाग्रचित होते हुए दो से दिन मिनट तक दृष्टा (बिना कुछ अच्छे और बुरा देखे) भाव  से breathe स्वासों को देखें।

  • रंग लाया नेताजी का प्रयास : एक हुए चाचा भतीजे 

    रंग लाया नेताजी का प्रयास : एक हुए चाचा भतीजे 

    सी.एस. राजपूत   
    खिरकार नेताजी का प्रयास रंग लाया। जो चाचा भतीजा एक दूसरे को देखना भी पसंद नहीं कर रहे थे वे अब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में मिलकर भाजपा के खिलाफ ताल ठोकने जा रहे हैं। जिन नेताजी को उनके साथी बेनीप्रसाद का बिछुड़ना विचलित न कर सका। राजबब्बर का बिछुड़ना विचलित न कर सका। आजम खां का बिछुड़ना विचलित न कर सका। यहां तक अमर सिंह के बिछुड़ने से भी वह न डगमगाए। उन नेताजी को उनके अनुज शिवपाल यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव के विवाद ने विचलित कर दिया। जिस चूल्हे की रोटी ने अखिलेश यादव को हस्ट-पुष्ट बनाया, वही चूल्हा नेताजी और अखिलेश यादव से अलग हो गया था। यह पीड़ा नेताजी न छुपा पा रहे थे और न ही उससे उबर पा रहे थे। चार महीने जब शिवपाल यादव उनकेस्वास्थ्य का हाल जानने के लिए उनसे मिलने पहुंचे तो उन्होंने इस मुलाकात और मजबूत होने के संकेत शिवपाल यादव को दिये। वह मजबूती अखिलेश यादव से मिलाने की थी। शिवपाल यादव भी लगातार अखिलेश यादव से समय मांगने की बात कर रहे थे। यहां तक गत दिनों जब शिवपाल यादव आजम खां से जेल में मिले तो उन्होंने आजम खां की ओर से भी समाजवादियों को मिलकर भाजपा का मुकाबला करने की बात कही। अब जब अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए छोटे-छोटे दलों के साथ गठबंधन कर रहे हैं तो कल वह अपने चाचा शिवपाल यादव से भी मिले। चाचा भतीजे की मुलाकात ने उत्तर प्रदेश के समीकरण बदलने के संकेत दे दिय है
    मुलायम सिंह की पीड़ा यह है कि अखिलेश यादव के हाथों में आने के बाद समाजवादी पार्टी लगातार कमजोर हुई है। नेताजी जानते हैं कि भले ही योगी सरकार से लोग नाराज हों पर अखिलेश यादव का अकेले दम पर भाजपा को हराना मुश्किल है। नेताजी चाहते हैं कि अखिलेश यादव और शिवपाल यादव मिलकर चुनाव लड़ें और उत्तर प्रदेश में सरकार बनायें । नेताजी अखिलेश यादव के निर्णय से नाराज भी हुए। २०१७  के विधानसभा चुनाव में जब अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया तो मुलायम सिंह यादव इस गठबंधन से सहमत नहीं थे। उनका कहना था कि जिस कांग्रेस के साथ वह जिंदगी भर लड़ते रहे। जिस कांग्रेस ने उन पर गोलियां चलवाई उसी कांग्रेस के साथ उनके बेटे ने हाथ मिला लिया। ऐसी टीस का सामना उन्हंे तब करना पड़ा जब २०१९ के लोकसभा चुनाव में उनकी चिर प्रतिद्वंद्वी मानी जाने वाली बसपा से हाथ मिला लिया।
    जहां तक शिवपाल यादव और अखिलेश यादव के बीच विवाद की बात है तो जब अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब 1 जनवरी 2017 को उन्होंने चाचा रामगोपाल यादव के साथ मिलकर लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क में समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुलाया। इसी अधिवेशन में अखिलेश यादव ने पार्टी में तख्तापलट करते हुए न केवल शिवपाल यादव बल्कि अपने पिता मुलायम सिंह यादव के राज को भी खत्म कर दिया। सपा में चल रहा अमर सिंह का वर्चस्व भी खत्म कर दिया गया। अखिलेश यादव खुद पार्टी के अध्यक्ष बन बैठे। इसी अधिवेशन में पार्टी ने कुल तीन बड़े प्रस्ताव पारित किए थे। पहला, अखिलेश यादव को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाना और मुलायम सिंह यादव को पार्टी का मार्गदर्शक बनाना। दूसरा, शिवपाल सिंह यादव को सपा के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और उनकी जगह अखिलेश ने भाई धर्मेंद्र यादव को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया। तीसरे प्रस्ताव में अमर सिंह को पार्टी से निकाला दे दिया गया।
    अखिलेश यादव और चाचा शिवपाल में लंबे समय से टकराव चल रहा था। इससे पहले अक्टूबर 2016 में सार्वजनिक मंच पर ही दोनों के बीच तू-तू,मैं-मैं भी हो चुकी थी। मुलायम सिंह यादव ने सपा के प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी अखिलेश से छीनकर शिवपाल को दे दी थी। इसके जवाब में अखिलेश ने शिवपाल को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया था। हालांकि राज्य के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार की लड़ाई मान-मनौव्वल के बाद शांत पड़ गई थी लेकिन टिकट बंटवारे के विवाद में दोबारा झगड़ा ऐसा शुरू हुआ कि मुलायम सिंह यादव ने 30 दिसंबर 2016 को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (बेटे) और पार्टी महासचिव रामगोपाल यादव (भाई) को समाजवादी पार्टी से निकाला दे दिया। इसके बाद अखिलेश ने तब 212 विधायकों संग शक्ति प्रदर्शन करते हुए गेंद अपने पाले में कर लिया था और 2017 के नए साल के पहले दिन पार्टी में तख्तापलट कर दिया।
    इस तख्तापलट में रामगोपाल यादव ने पार्टी के संविधान को अपना हथियार बनाया था। पार्टी संविधान में यह उल्लेख था कि पार्टी महासचिव भी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन बुला सकता है।  लिहाजा, उन्होंने अधिवेशन बुलाया था। राम गोपाल को पता था की तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव अधिवेशन में नहीं आएंगे, लिहाजा उन्होंने पार्टी उपाध्यक्ष किरणमय नंदा को अधिवेशन में आमंत्रित किया था। रामगोपाल और अखिलेश यादव ने आंकड़ों के खेल पर ये उलटफेर किया था।
    इस तख्तापलट के बाद पार्टी पर वर्चस्व की लड़ाई चुनाव आयोग तक भी पहुंची लेकिन जीत अखिलेश यादव की ही हुई। यह वह दौर था जिसमें कभी छत्तीस का आंकड़ा रखने वाले शिवपाल यादव और अमर सिंह भी एक साथ नजर आने लगे थे। इस घटनाक्रम के बाद मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के बीच बातचीत लगभग बंद हो गई थी। यह दौर लम्बे समय तक चल पर ज्यादा दिनों तक बाप बेटा अलग न रह सके। आख़िरकार मुलायम सिंह को अखिलेश के साथ मंच शेयर करना ही पड़ा। इस विवाद का सबसे अधिक नुकसान शिवपाल यादव को उठाना पड़ा।
  • सवाल पर सवाल : सीबीएसई तुझे हुआ क्या है?

    सवाल पर सवाल : सीबीएसई तुझे हुआ क्या है?

    समी अहमद

    केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई आजकल बिल्कुल अप्रिय कारणों से खबरों में बना है। अपनी श्रेष्ठता के लिए ख्यात सीबीएसई को आखिर क्या हो गया है कि कभी उसे किसी सवाल के लिए माफी मांगनी पड़ रही, कभी उसे कोई सवाल हटाना पड़ रहा है और कभी अपने ही बनाये ओएमआर शीट के नियम बदलने पड़ रहे हैं।
    सीबीएसई ने इस साल से दसवीं और बारहवीं बोर्ड परीक्षा में बड़े पैमाने पर परिवर्तन किये हैं। उसने एक बार बोर्ड परीक्षा लेने की जगह टर्म 1 और टर्म 2 में परीक्षा की व्यवस्था की है। टर्म 1 में सिर्फ बहुविकल्पीय प्रश्न रहेंगे जिसके लिए ओएमआर शीट की व्यवस्था है। दूसरे और अंतिम टर्म में वस्तुनिष्ठ प्रश्न होंगे जिसके के लिए अलग अलग अंक निर्धारित होंगे।
    सीबीएसई ने यह घोषणा भी थी कि दोनों टर्म के लिए होनी वाली परीक्षा का सिलेबस अलग होगा। मगर पहले टर्म की परीक्षा के दौरान ही परीक्षार्थियों की शिकायत मिल रही है कि प्रश्न सिलेबस से बाहर के पूछे जा रहे हैं। इसके अलावा किस टर्म के लिए कौन से पाठ से प्रश्न आएंगे, इसमें भी इतने परिवर्तन हुए कि परीक्षार्थियों के लिए याद रखना मुश्किल हो रहा है। एनसीईआरटी की किताबों से कौन सा पाठ परीक्षा के लिए हटाया गय है और कौन सा पाठ अलग से जोड़ा गया है, यह भी परीक्षार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों के लिए भी सिरदर्द बना हुआ है।
    इसी तरह ओएमआर शीट भरने के नियमों को भी इतनी बार बदला गया है कि यह काफी उलझ गया है। बड़े पैमाने पर ओएमआर शीट भरने में गलतियों और दिक्कतों की शिकायतें मिल रही हैं।
    सीबीएसई ने दो टर्म परीक्षा लेने की वजह यह बतायी है कि कोरोना से उपजी अनिश्चित स्थिति में यह तय नहीं कि एक बार बोर्ड की परीक्षा ली जा सकेगी या नहीं, जैसा कि इस साल बोर्ड परीक्षा के समय समस्या हो चुकी थी। इस साल की परीक्षा में बड़े पैमाने पर यह शिकायत मिली थी कि स्कूलों ने मनमानी नंबर दिये थे क्योंकि इस बार बोर्ड परीक्षा नहीं हुई थी और स्कूल के आंतरिक आकलन के आधार पर रिजल्ट तैयार किये गये थे।
    सीबीएसई की नयी व्यवस्था के बारे में दूसरी शिकायत यह मिल रही है कि स्कूल ओएमआर शीट भरवाने में धांधली कर रहे हैं क्योंेकि परीक्षा होम सेेन्टर पर हो रही है। ऐसे में परीक्षा के अंकों में हेराफेरी की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है।
    सिलेबस और ओएमआर शीट के झमेले के बाद टर्म 1 की बारहवीं की समाजशास्त्र परीक्षा के एक सवाल पर बखेड़ा हो गया। उस सवाल पर सीबीएसई ने माफी मांगी तो शिक्षाशास्त्री हैरान रह गये क्योंकि यह सवाल तो एनसीईआरटी की पुस्तक से लिया गया था। यह सवाल था कि गुजरात में मुस्लिम विरोधी 2002 के दंगों के समय किसकी सरकार थी। सीबीएसई ने फौरन इस सवाल के लिए माफीनामा जारी कर दिया। सवाल यह है कि उसी पाठ में यह भी बताया गया है कि 1984 के सिख विरोधी दंगों के समय किसकी सरकार थी। तो क्या यह पाठ अब सीबीएसई के पाठ्यक्रम में नहीं रहेगा? अगर यह पाठ रहेगा तो यह सवाल गलत कैसे हुआ और इसके लिए माफीनामा क्यों?
    सीबीएसई के सवालों के बारे में अगला विवाद दसवीं की अंग्रेजी की परीक्षा में दिये गये एक गद्यांश पर हुआ। इसके बारे में यह आरोप लगा कि महिला विरोधी बातें लिखी गयी हैं। यह मामला राजनीतिक मुद्दा बना तो सीबीएसई ने यह सवाल ही हटाने की घोषणा कर दी। सवाल यह है कि आखिर सीबीएसई को क्या हो गया है कि उसके बारे में इतनी सारी शिकायतें मिल रही हैं और उसे पछताना पड़ रहा है। क्या यह सवाल तैयार करने वाले शिक्षकों के चयन में उसकी लापरवाही नहीं मानी जानी चाहिए?
    सीबीएसई के पक्ष में यह बात कही जा सकती है कि कोरोना के कारण उसे कई दिक्कतों का सामना है लेकिन यह बात परीक्षा के पैटर्न के हद तक मानी जा सकती है। जहां तक सिलेबस तय करने और इसकी ससमय घोषणा की बात है, उसमें तो सीबीएसई को मुस्तैद रहना चाहिए। इसी तरह सवाल तैयार करने वाले शिक्षकों के चयन में भी उसे पूरा सावधान रहना चाहिए।

  • महिला की ललकार

    महिला की ललकार

    कल्पना पांडे      

    पुरुष समाज की बनाई दुनिया में मां तो बस मां होती है। ( सिर्फ़ कहने को) भाभी ,बहन, बहू ,सास, ननद, नानी- दादी, ताई, मौसी ये सब तो पारिवारिक रिश्तों में हंसी के पात्र हैं। बाहरी समाज में अध्यापक , इंजीनियर, डॉक्टर, कारपोरेट जगत के लोग और न जाने कितने अनगिनत ओहदे। सब में स्त्रीपरक राजनीति। संकीर्ण सोच और हावी होता पुरुष समाज।

    मनुवादी व्यवस्था का लचर, लड़खड़ाता और रोगग्रस्त पुरुषत्व। ऐसा कौन सा कार्य है जिसे नारी अंजाम तक नहीं पहुंचा सकती! सबसे बड़ा कर्म सृजन है । उस सृजनात्मक सत्ता को बार-बार दबाना, खाई में धकेलना क्यों पड़ता है ? क्यों डरते हो ? क्यों उसकी व्यापकता, विस्तृत सोच को अपनी छोटी बुद्धि से जांचते हो ?

    वह संस्कारशाला है, आदिशक्ति है ,ओंकार की पवित्रता उसी से सिद्ध है‌। उसके बराबर पुरुष हो ही नहीं सकता। वह तो पहले से ही सर्वोच्च है। पर अपने करुणामई और सहृदयी अवतार ने, उसे अपने को, सबसे आगे कभी बड़ा बनने का घमंड करना नहीं सिखाया । किस बात का डर है पुरुष समाज को जो आज भी नारी शक्ति के पराक्रम से भय खाता है? और उसके आत्मबल को बार-बार नीचा दिखाने की कोशिश में उस मां की कोख को भूल जाता है जो उसका पवित्र जन्म- स्थान है।

    सदियों से पुरुष स्त्री पर ही आश्रित है। पर परिवार -समाज का नाम देकर उसके हक़ और अधिकार को छीनने का कुचक्र चलता ही रहता है राम- कृष्ण से लेकर अब तक पूरे ब्रह्मांड की उत्पत्ति के केंद्र में स्त्री है और उसका व्यापक विस्तार है। पर उसी के अस्तित्व और अस्मिता को हर बार अग्नि परीक्षा क्यों?

    बच्चे की प्रथम पाठशाला है। स्त्री जो संस्कारों -मूल्यों की पहचान कराती है, जो नैतिकता का पाठ पढ़ाती है। उसे ही पाठ्यक्रम में चिन्हित कर गिराने की सतत् और अपवित्र कोशिश क्यों?

    नारी को किसी भी पैमाने में तौलने का पुरुष को किसने अधिकार दे दिया ! जैसे पुरुष को स्व की सत्ता पर स्वतंत्रता मोहित करती है उसी तरह स्त्री के स्व पर पुरुष का वर्चस्व सरासर औचित्यहीन है। संवारना- निखारना नारी का व्यक्तित्व है ।उसके अस्तित्व का अनादर पुरुष समाज की छोटी सोच और कहीं न कहीं स्त्री के गुणों से ख़ुद के कमतर होने का उन्हें है भय है।

    विनम्रता को कायरता समझने की गलती पुरुष समाज न करे। स्त्री समर्थ है। उसे किसी सहारे की ज़रूरत नहीं। बेचारगी शब्द बेमानी है। अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए नारी की अस्मिता से खिलवाड़ पुरुष समाज के भीतर पल रहे डर और भय का प्रतीक है।

    स्त्री -पुरुष हमसफ़र- साथी हो सकते हैं पर वर्चस्व नहीं ले सकते । स्त्रियों की महानता ही उनके लिए अभिशाप बन गई ।तभी तो पुरुष ने उन पर काबिज़ होना अपना अधिकार समझ लिया। मगर उन्हें नहीं मालूम नारी -शक्ति को चुनौती देना उनके सामर्थ्य में नहीं।

  • एमएसपी के साथ ही किसानों पर दर्ज मामलों को वापस कराने में भी फंसेगा पेंच !

    एमएसपी के साथ ही किसानों पर दर्ज मामलों को वापस कराने में भी फंसेगा पेंच !

    सी.एस. राजपूत 
    तो क्या किसानों के घर वापसी के तुरंत बाद केंद्र सरकार उनकी मांगों पर राजनीति करने लगी है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर के बयान से तो ऐसा ही लग रहा है। यदि केंद्र सरकार ने किसानों की मांगें मानी हैं और उन मांगों में किसानों पर दर्ज मामलों को वापस लेने की बात कही गई है तो मामलों को वापस कराने की जिम्मेदारी और जवाबदेही भी केंद्र सरकार की ही है। नरेंद्र तोमर कह रहे हैं कि मामलों को वापस करने का मामला राज्य सरकारों का है। उन्हें कानून व्यवस्था देखनी होती है। राज्य सरकारें कानून व्यवस्था का हवाला देकर दर्ज मामलों में पेंच भी फंसा सकती हैं। वैसे भी २६ जनवरी को निकाली गई ट्रैक्टर परेड पर लाल किला प्रकरण मामले में दर्ज मामले केंद्र सरकार के ही अधीन आते हैं और लालकिला प्रकरण को केंद्र सरकार ने राष्ट्रवाद से जोड़कर बड़ा मुद्दा बना लिया।
    वैसे भी मांगों को इम्प्लीमेंट कराने के लिए संयुक्त किसान मोर्चा के पांच सदस्यीय कमेटी सरकार सरकार से बातचीत करेगी। ऐसे किसानों पर दर्ज मामलों को राज्य सरकारों को टाल देना मतलब पेंच फंसने का पूरा अंदेशा है। होना यह चाहिए कि केंद्रीय कृषि मंत्री को संबंधित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को साथ लेकर किसानों की कमेटी से बातचीत करनी चाहिए। वैसे अधिकतर मामले पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में दर्ज हैं। पंजाब और उत्तर प्रदेश में चुनाव के चलते दर्ज काफी मामले वापस हो सकते हैं तो हरियाणा सरकार खुद ही मामलों को वापस लेने की बात कर चुकी है।
    हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने रविवार को कहा कि संबंधित जिलों के उपायुक्त और पुलिस अधीक्षक रिपोर्ट तैयार करें कि पिछले एक साल में किसानों के खिलाफ दर्ज  कितने मामले हैं, जिन्हें तत्काल वापस लिया जा सकता है। सीएम मनोहर लाल खट्टर ने कहा कि उन मामलों पर उचित कदम उठाया जाएगा, जो पहले ही अदालत में हैं। किसान आंदोलन के दौरान मरे किसानों के परिवारों को मुआवजा देने के सवाल पर मुख्यमंत्री ने कहा कि इस संबंध में उनसे बात चल रही है और ऐसे लोगों की सूची किसानों द्वारा मुहैया कराई गई है, जिनका सत्यापन पुलिस द्वारा किया जाएगा। उन्होंने प्रदर्शन खत्म करने के किसानों के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि प्रदर्शन के कारण बंद टोल बूथों को जल्द ही दोबारा खोला जाएगा.
    गौरतलब है कि किसान आंदोलन स्थगित किए जाने के बाद किसान घर वापसी कर रहे हैं। जीटी रोड पर जाम की आशंका को देखते हुए किसानों ने अलग-अलग जत्थों में निकलने का फैसला किया था। सिंघू बॉर्डर, कुंडली बॉर्डर, टिकरी बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर (दिल्ली-यूपी सीमा) से भी किसान अपने घरों की ओर रवाना हो रहे हैं। उधर, राकेश टिकैत ने कहा कि हमारे किसान भाइयों ने घर वापसी शुरू कर दी है, इसमें चार से पांच दिन लगेंगे। मैं अपने घर की ओर 15 दिसंबर को निकलूंगा।
    किसानों की वापसी के साथ ही कुंडली बॉर्डर पर करीब आठ किलोमीटर तक का मार्ग खाली हो जाएगा। 50 फीसदी से अधिक किसान पहले ही लौट चुके हैं। माना जा रहा है कि तीन दिन तक मामूली मरम्मत होने के बाद जीटी रोड के दोनों तरफ की सर्विस लेन को चालू किया जा सकेगा। इससे वाहन चालकों को राहत मिल सकेगी।
  • किसान आंदोलन से सबक लेकर कामगार वर्ग भी झुका सकता है सरकार को!

    किसान आंदोलन से सबक लेकर कामगार वर्ग भी झुका सकता है सरकार को!

    अनिल जैन

    क साल से कुछ ज्यादा दिन तक चले किसान आंदोलन ने केंद्र सरकार और कुछ राज्य सरकारों के बहुआयामी दमनचक्र का जिस शिद्दत से मुकाबला करते हुए उन्हें अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर किया है, वह अपने आप में ऐतिहासिक है और साथ ही केंद्र सरकार के तुगलकी फैसलों से आहत समाज के दूसरे वर्गों के लिए एक प्रेरक मिसाल भी। इस आंदोलन ने साबित किया है कि जब किसी संगठित और संकल्पित आंदोलित समूह का मकसद साफ हो, उसके नेतृत्व में चारित्रिक बल हो और आंदोलनकारियों में धीरज हो तो उसके सामने सत्ता को अपने कदम पीछे खींचने ही पड़ते हैं, खास कर ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में, जिनमें वोटों के खोने का डर किसी भी सत्तासीन राजनीतिक नेतृत्व के मन में सिहरन पैदा कर देता है। देश की खेती-किसानी से संबंधित तीन विवादास्पद कानूनों का रद्द होना बताता है कि देश की किसान शक्ति ने सरकार के मन में यह डर पैदा करने में कामयाबी हासिल की है।

    किसानों के इस ऐतिहासिक आंदोलन के चलते पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान करना और फिर किसानों की बाकी मांगों को भी मान लेना बताता है कि सरकार किसान आंदोलन से बुरी तरह डरी हुई थी। पिछले महीने विभिन्न राज्यों में लोकसभा और विधानसभा की कुछ सीटों के लिए उपचुनाव के नतीजों को देख कर प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया था। उन्हें उम्मीद थी कि उनके इस ऐलान के बाद किसान अपना आंदोलन खत्म कर अपने-अपने घरों को लौट जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

    किसानों ने तीन कानूनों की वापसी के ऐलान का तो स्वागत किया लेकिन साथ ही यह भी साफ कर दिया कि वे सरकार की झांसेबाजी में फंसने को तैयार नहीं हैं। वे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी, बिजली कानून, किसानों पर कायम किए गए फर्जी मुकदमों की वापसी जैसे मुद्दों पर भी एक मुश्त फैसला चाहते थे। इसीलिए उन्होंने सरकार को बता दिया कि जब तक उनकी बाकी मांगों पर भी फैसला नहीं होगा तब तक वे अपना आंदोलन समाप्त नहीं करेंगे। इस बीच विधानसभा चुनाव वाले राज्यों खासकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में हो रही प्रधानमंत्री की रैलियों में तमाम सरकारी संसाधन झोंक देने के बावजूद अपेक्षित भीड़ नहीं जुट पाने और विपक्षी दलों की रैलियों में उमड़ रही स्वस्फूर्त भीड़ ने भाजपा को उसकी राजनीतिक जमीन खिसकने का अहसास करा दिया। इसी अहसास ने ‘मजबूत’ सरकार को किसानों की बाकी मांगे मानने के लिए भी मजबूर कर दिया।

    इस किसान आंदोलन ने याद दिलाया है कि संसद जब आवारा या बदचलन होने लगती है तो सड़क उस पर अंकुश लगाने और उसे सही रास्ता दिखाने का काम करती है। किसानों की यह जीत न सिर्फ सरकार के खिलाफ बल्कि कॉरपोरेट घरानों की सर्वग्रासी और बेलगाम हवस के खिलाफ भी एक ऐसी ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल होने का क्षण है, जिसके दूरगामी प्रभाव अवश्यम्भावी है। यह जीत रेलवे, दूरसंचार, बैंक, बीमा आदि तमाम सार्वजनिक और संगठित क्षेत्र के उन कामगार संगठनों के लिए एक शानदार नजीर और सबक है, जो प्रतिरोध की भाषा तो खूब बोलते हैं लेकिन कॉरपोरेट के शैतानी इरादों से लड़ने और उनके सामने चट्टान की तरह अड़ने का साहस और धैर्य नहीं दिखा पाते हैं। उनकी इसी कमजोरी की वजह से सरकार एक के बाद एक सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम उपक्रम अपने चहते कॉरपोरेट महाप्रभुओं के हवाले करती जा रही है।

    पिछले साल संविधान दिवस (26 नवंबर) से शुरू हुआ और इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस (10 दिसंबर) पर स्थगित हुआ किसानों का यह आंदोलन दुनिया के इतिहास में संभवत: इतना लंबा चलने वाला पहला ऐसा आंदोलन है, जो हर तरह की सरकारी और सरकार प्रायोजित गैर सरकारी हिंसा का सामने करते हुए भी पूरी तरह अहिंसक बना रहा। हालांकि इसको हिंसक बनाने के लिए सरकार की ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। तमाम तरह से उकसावे की कार्रवाई हुई है, लेकिन आंदोलनकारियों ने गांधी के सत्याग्रह का रास्ता नहीं छोड़ा है। यही नहीं, इस आंदोलन ने सांप्रदायिक और जातीय भाईचारे की भी अद्भूत मिसाल कायम की है, जिसे तोड़ने की सरकार की तमाम कोशिशें भी नाकाम रही हैं।

    यह सब चलता रहा और इस दौरान ठंड, गरमी, बरसात और कोरोना महामारी का सामना करते हुए आंदोलन स्थलों पर करीब 800 किसानों की मौत हो गई। सरकार के मंत्री और सत्तारूढ़ दल के नेता उन किसानों की मौत को लेकर भी निष्ठुर बयान देते रहे, खिल्ली उड़ाते रहे। इसी के साथ सरकार की ओर से यह बात भी लगातार दोहराई जाती रही कि कानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिए जाएंगे।

    सरकार की मगरुरी और उसके दमनचक्र का मुकाबला करते हुए संगठित और संकल्पित किसानों ने नजीर पेश की कि मौजूदा दौर में नव औपनिवेशिक शक्तियों से अपने हितों की, अपनी भावी पीढ़ियों के भविष्य की रक्षा के लिये कैसे जूझा जाता है। उन्हें अच्छी तरह अहसास है कि अगर कॉरपोरेट और सत्ता के षड्यंत्रों का डट कर प्रतिकार नहीं गया तो उनकी भावी पीढ़ियां हर तरह से गुलाम हो जाएंगी।

    किसानों ने अपने आंदोलन के दौरान सत्ता-शिखर के मन में जो डर पैदा किया है, वह डर निजीकरण की आंच में झुलस रहे सार्वजनिक क्षेत्र के आंदोलित कर्मचारी नहीं पैदा कर पाए हैं। इसकी वजह यह है कि सत्ता में बैठे लोग और उनके चहेते कॉरपोरेट घराने इन कर्मचारियों के पाखंड और भीरुता को अच्छी तरह समझते हैं। वे जानते हैं कि दिन में अपने दफ्तरों के बाहर या किसी चौक-चौराहे पर खडे होकर नारेबाजी करने वाली बाबुओं की यह जमात शाम को घर लौटने के बाद अपने-अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर सत्ताधारी दल के हिंदू-मुसलमान, मंदिर-मस्जिद, गाय-गोबर, श्मशान-कब्रस्तान, जिन्ना, पाकिस्तान जैसे तमाम प्रपंचों को हवा देने वाले व्हाट्सएप संदेशों, टीवी की चैनलों की बकवास या फूहड़ कॉमेडी शो में रम जाएगी।

    ”विकल्प क्या है’’ और ”मोदी नहीं तो कौन’’ जैसे सवालों का नियमित उच्चारण करने में आगे रहने वाले ये कर्मचारी अपने आंदोलन रूपी कर्मकांड से किसी भी तरह का डर सत्तासीन राजनीतिक नेतृत्व के मन नहीं जगा पाए हैं। यही हाल नोटबंदी और जीएसटी की मार से कराह रहे छोटे और मझौले कारोबारी तबके का भी है। इसे हम राजनीतिक फलक पर शहरी मध्य वर्ग के उस चारित्रिक पतन से भी जोड़ सकते हैं जो उन्हें उनके हितों से तो वंचित कर ही रहा है, उसकी भावी पीढ़ियों की जिंदगियों को दुश्वार करने का आधार भी तैयार कर रहा है। बहरहाल देश के श्रम कानूनों के दायरे में आने वाले संगठित और असंगठित क्षेत्र के कामगारों को किसानों का शुक्रगुजार होना चाहिए, क्योंकि किसान आंदोलन से डरी सरकार ने न सिर्फ किसानों की सभी मांगों को मंजूर किया है बल्कि उसी डर से वह श्रम सुधार के नाम पर बनाए गए नए श्रम कानूनों को भी अब टालने की तैयारी में है।