Category: समाज

  • कलम से खींची गई नई सरहदें : स्याही की सादगी : प्रियंका सौरभ की चुपचाप क्रांतिकारी कहानी

    कलम से खींची गई नई सरहदें : स्याही की सादगी : प्रियंका सौरभ की चुपचाप क्रांतिकारी कहानी

    हर युग में कुछ आवाज़ें होती हैं जो चीखती नहीं, बस लिखती हैं — और फिर भी गूंजती हैं। ये आवाज़ें न नारे लगाती हैं, न मंचों पर दिखाई देती हैं, लेकिन उनके शब्द पिघलते लोहे की तरह समाज के ज़मीर को गढ़ते हैं। प्रियंका सौरभ ऐसी ही एक आवाज़ हैं — जो लेखनी की नोंक से स्त्रीत्व, संघर्ष और संवेदना का नया भूगोल रच रही हैं।

     

    एक गाँव, एक सपना, और एक लड़की:

     

    हरियाणा के हिसार जिले का एक साधारण सा गाँव — आर्य नगर। यहाँ से उठी एक असाधारण सोच, जिसने कलम को हथियार नहीं, हथेली बनाया — समाज के चेहरे पर सहलाती भी रही और थपकी देती रही। प्रियंका का साहित्यिक सफर किसी किताब की कहानी जैसा लगता है — लेकिन उसकी जड़ें उस मिट्टी में हैं, जहाँ लड़कियों को आज भी चुप रहना सिखाया जाता है।

    राजनीति विज्ञान में एम.ए. और एम.फिल करते हुए उन्होंने देश की नीतियों को न सिर्फ़ समझा, बल्कि उनके प्रभाव को महसूस भी किया। फिर उन्होंने एक सरकारी नौकरी को चुना, लेकिन समाज की सेवा को सिर्फ़ दफ्तर की दीवारों तक सीमित नहीं रखा।

     

    महामारी और साहित्य का पुनर्जन्म:

     

    जब 2020 की महामारी आई, तो पूरी दुनिया ठहर गई — लेकिन प्रियंका की कलम चल पड़ी। जहाँ ज़्यादातर लोग Netflix और डर के बीच फंसे थे, वहाँ उन्होंने ‘समय की रेत पर’ लिखा — एक ऐसा निबंध संग्रह, जो उस दौर की मनःस्थिति, असमंजस और सामाजिक दरारों को बेबाकी से सामने लाता है।

    यह उनकी लेखकीय यात्रा की सिर्फ़ शुरुआत थी। इसके बाद एक के बाद एक कई किताबें आईं — ‘दीमक लगे गुलाब’, ‘निर्भया’, ‘परियों से संवाद’, और महिलाओं के लिए लिखी गई ‘Fearless’।

     

    स्त्रीत्व की अनकही परिभाषा:

     

    प्रियंका की रचनाएं किसी आदर्शवादी स्त्री विमर्श की नक़ल नहीं हैं। वे उस जमीन से उपजी हैं, जहाँ महिलाओं के सपने अक्सर परिवार की ‘इज्ज़त’ से दबा दिए जाते हैं। ‘निर्भया’ उनकी कलम का ऐसा प्रतिरोध है जो चीखता नहीं, लेकिन सन्नाटा चीर देता है।

    वह ‘स्त्री विमर्श’ नहीं लिखतीं, बल्कि ‘स्त्री का विस्मृत इतिहास’ फिर से दर्ज करती हैं। वह सवाल उठाती हैं — क्या महिला सिर्फ़ संघर्ष की कहानी है? या वह समाज को बदलने का सपना भी है?

     

    शब्दों की नहीं, दृष्टिकोण की क्रांति:

     

    प्रियंका का लेखन किसी आंदोलन जैसा नहीं है — वह एक धीमी बारिश की तरह है जो आत्मा की ज़मीन को भिगोता है। उनकी भाषा में कोई नाटकीयता नहीं, कोई चमत्कार नहीं — बस यथार्थ है, और उसे देखने का साहस।

    उनका लेखन पढ़ते हुए लगता है जैसे कोई अपनी माँ की चिट्ठी पढ़ रहा हो — सीधा, सच्चा और दिल के बेहद करीब। उन्होंने हमेशा उन आवाज़ों को जगह दी है जो अक्सर दबा दी जाती हैं — अकेली महिलाएं, विकलांग बच्चे, बुज़ुर्गों की उदासी, और शिक्षित पर चुप समाज।

     

    कर्म और कलम का सामंजस्य:

     

    सरकारी नौकरी और लेखन का मेल अक्सर असंभव लगता है, लेकिन प्रियंका ने दोनों को एक दूसरे का पूरक बना दिया। वह स्कूल में पढ़ाती हैं, बच्चों को सोचने की आदत सिखाती हैं — और फिर घर आकर समाज को लिखकर आईना दिखाती हैं।

    उनके लिए लेखन सिर्फ़ एक काम नहीं, जिम्मेदारी है। जैसे कोई नर्स हर ज़ख्म को सहला कर भी मुस्कुराती है, वैसे ही प्रियंका हर सामाजिक पीड़ा को महसूस कर, उसमें कविता ढूंढ लाती हैं।

     

     

    सम्मान नहीं, सवालों की तलाश:

     

     

    उन्हें ‘सुपर वुमन 2023’ का खिताब मिला — लेकिन उनके लेखों में कोई ‘महानता’ की चकाचौंध नहीं है। वह हर उस औरत को महान मानती हैं जो हार के बाद भी फिर खड़ी होती है, हर उस शिक्षक को जो परीक्षा के बाहर सोच सिखाता है, और हर उस बच्चे को जो “क्यों?” पूछना नहीं छोड़ता।

    प्रियंका की असली उपलब्धि वह सम्मान नहीं हैं, जो आयोजनों में मिलते हैं — बल्कि वे पल हैं, जब कोई पाठक उनके लेख को पढ़कर कहे, “मैंने अपने भीतर कुछ बदलता हुआ महसूस किया।”

     

    प्रियंका सौरभ क्यों ज़रूरी हैं?

     

    क्योंकि आज जब साहित्य ब्रांडिंग का शिकार हो गया है, प्रियंका अब भी अपने शब्दों को जमीन से उठाती हैं, प्रकाशन की चमक से नहीं।
    क्योंकि जब मीडिया टीआरपी के पीछे भागता है, वह उन कहानियों को उठाती हैं जो टीआरपी नहीं, टीआर (तप, रचना) की मांग करती हैं।
    क्योंकि जब महिलाएं सोशल मीडिया के ‘फिल्टर’ में फँसी हैं, वह अपने चेहरे से नहीं, अपनी सोच से सुंदर बनती हैं।

     

    उपनिषद की स्त्री, इंटरनेट की दुनिया में:

     

    प्रियंका उस पुरानी परंपरा की लेखिका हैं, जहाँ ज्ञान और करुणा का संगम होता है — लेकिन उनकी लेखनी नए समय के हर कोने को पहचानती है। वे परंपरा की धड़कनों को आधुनिकता के स्टेथोस्कोप से सुनती हैं।

     

    उनकी सोच ‘बोल्ड’ नहीं है, लेकिन स्पष्ट है। उनकी भाषा ‘जादुई’ नहीं है, लेकिन आत्मा को छूती है। वे ‘ट्रेंड’ नहीं करतीं, लेकिन एक दिशा ज़रूर दिखाती हैं।

    प्रियंका सौरभ का जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक साधारण इंसान भी समाज को असाधारण रूप से छू सकता है — अगर वह लिखना जानता हो, और लिखने से डरता न हो।
    उन्होंने सिद्ध कर दिया कि साहित्य आज भी क्रांति कर सकता है — बिना मोर्चा खोले, बिना शोर मचाए, बिना किसी हैशटैग के।

    उनकी कहानी नारे नहीं देती, बल्कि एक सवाल छोड़ती है —
    “जब हर ओर शोर है, तब क्या आप अब भी सुन पा रहे हैं — वो एक स्त्री की चुपचाप चलती कलम की आवाज़?”

    प्रियंका सौरभ: एक झलक

    जन्मस्थान: आर्य नगर, हिसार, हरियाणा

    शिक्षा: एम.ए. और एम.फिल (राजनीति विज्ञान)

    प्रकाशित कृतियाँ:

    समय की रेत पर (निबंध संग्रह)

    दीमक लगे गुलाब (कविता संग्रह)

    निर्भया (सामाजिक विषयक लेखन)

    परियों से संवाद (बाल साहित्य)

    फीयरलेस(अंग्रेज़ी में)

    प्रकाशनः देश-विदेश के 10 हजार से अधिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में दैनिक संपादकीय प्रकाशन।

    सम्मान और पुरस्कार:

    1. आईपीएस मनुमुक्त ‘मानव’ पुरस्कार, 2020

    2. नारी रत्न पुरस्कार, दिल्ली 2021

    3. हरियाणा की शक्तिशाली महिला पुरस्कार, दैनिक भास्कर समूह, 2022

    4. जिला प्रशासन भिवानी द्वारा 2022 में पुरस्कृत

    5. यूके, फिलीपींस और बांग्लादेश से डॉक्टरेट की मानद उपाधि, 2022

    6. विश्व हिंदी साहित्य रत्न पुरस्कार, संगम अकादमी और

    प्रकाशन 2023

    7. सुपर वुमन अवार्ड, FSIA, 2023

    8. ग्लोबल सुपर वुमन अवार्ड, जीएसआईआर फाउंडेशन गाजियाबाद, 2023

    9. महिला रत्न सम्मान, द विलेज टुडे ग्रुप, 2023

    10. विद्यावाचस्पति मानद पीएच.डी. साहित्य, विक्रमशिला हिन्दी

    विद्यापीठ, बिहार 2023

     

    उद्धरण बॉक्स:

    “मैंने अपने हिस्से का आकाश नहीं माँगा,
    मैंने बस इतना चाहा —
    कि जो ज़मीन मेरी सोच को उगने दे,
    वो बंजर न हो।”
    — प्रियंका सौरभ

  • वक्फ कानून का विरोध जारी, सड़कों पर मुसलमान, कोलकाता-मुंबई-श्रीनगर-जयपुर में प्रदर्शन!

    वक्फ कानून का विरोध जारी, सड़कों पर मुसलमान, कोलकाता-मुंबई-श्रीनगर-जयपुर में प्रदर्शन!

    नई दिल्ली। नये वक्फ कानून के खिलाफ देश के कई राज्यों में प्रदर्शन किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, मुंबई, श्रीनगर सहित कई राज्यों में इस कानून के खिलाफ मुस्लिम संगठन के लोग सड़कों पर उतर आये हैं। कोलकाता के आलिया यूनिवर्सिटी के छात्रों ने शुक्रवार को नये वक्फ कानून के विरोध में रैली निकाली और इसे वापस लेने की मांग की. छात्रों कैंपस के अंदर मार्च निकाला और नारे लगाए।

    वारिस पठान को पुलिस ने हिरासत में लिया

    एक न्यूज एजेंसी की रिपोर्ट के मुताबिक रैली में शामिल एक छात्र ने कहा कि बीजेपी सबका साथ सबका विकास की बात करती है, लेकिन एक समुदाय के साथ भेदभाव किया जा रहा है। मुंबई में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM के कार्यकर्ताओं ने जुमे की नमाज के बाद वक्फ कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। मुंबई के बायकुला स्थित चिश्ती हिंदुस्तानी मजीद में प्रदर्शन कर रहे AIMIM नेता वारिस पठान और दूसरे अन्य कार्यकर्ताओं को पुलिस ने हिरासत में लिया है। पुलिस ने बताया कि प्रदर्शन करने की अनुमति नहीं थी।

    AIMIM नेता वारिस पठान ने कहा, “बायकुला मस्जिद के ट्रस्टियों ने हमें मोदी सरकार की ओर से लाए गए काले वक्फ कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के लिए बुलाया था। हमारा शांतिपूर्ण विरोध पूरे देश में जारी रहेगा क्योंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में है और 16 अप्रैल को सुनवाई होगी. हम चाहते हैं कि इस कानून को वापस लिया जाए जैसे कृषि कानूनों को निरस्त किया गया था।

    लखनऊ में हाथों में तख्ती लेकर प्रदर्शन

    उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में शिया समुदाय के लोगों ने वक्फ कानून के खिलाफ प्रदर्शन किया है। जुमे की नमाज के बाद शिया धर्मगुरु कल्बे जवाद की अगुवाई में विरोध प्रदर्शन हुआ।  प्रदर्शन कर रहे लोगों के हाथों में तख्ती लेकर आए थे, जिसमें वक्फ संशोधन के खिलाफ स्लोगन लिखा था।

     

    पीडीपी ने जम्मू कश्मीर में वक्फ कानून के खिलाफ किया प्रोटेस्ट

    जम्मू-कश्मीर में पीडीपी ने शुक्रवार को वक्फ कानून के खिलाफ श्रीनगर में विरोध प्रदर्शन किया। पार्टी ने केंद्र सरकार पर मुसलमानों पर हाशिए पर रखने के लिए इसका इस्तेमाल करने का आरोप लगाया। प्रदर्शनकारियों ने हाथों में तख्तियां लिए हुए वक्फ बिल स्वीकार नहीं के नारे भी लगाए। कार्यकर्ता पार्टी कार्यालय से बाहर निकलकर शहर के बीच में प्रदर्शन करने के लिए निकले तो पुलिस ने उन्हें रोक लिया।

    राजस्थान में भी नये वक्फ कानून के खिलाफ कई जगहों पर मस्जिदों के बाहर प्रदर्शन किया गया। जयपुर में कई जगहों पर प्रदर्शन किया गया और इस दौरान खूब नारेबाजी हुई. जयपुर में कुरेशियान मस्जिद के बाहर जुमे की नमाज के बाद वक्त कानून के विरोध प्रदर्शन हुआ।

  • सामाजिक ताना-बाना बिखेर रहे नंगापन और रील्स के परिवेश

    सामाजिक ताना-बाना बिखेर रहे नंगापन और रील्स के परिवेश

    मॉडर्न परिवेश में जीवन का चरमसुख अब फॉलोअर्स पाने और कमेंट आने पर निर्भर हो गया है। फ़ेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर नग्न अवस्था में तस्वीरें शेयर कर आज लड़कियाँ लाइक कमेंट पाकर ख़ुद को ऐसे अनुगृहित करती दिखाई देती है; मानो जीवन की सबसे अहम और ज़रूरी ऊंचाई को उन्होंने पा लिया हो। इस नग्नता को हम आधुनिकता के इस दौर में न्यू फैशन कहते हैं। सोशल मीडिया पर फैशन की उबाल आई तो सोशल नेटवर्क पर युवा पीढ़ी ने ख़ुद को खूबसूरत युवतियों से पीछे पाया, फिर क्या युवकों ने ख़ुद की नग्नता का नंगा नाच शुरू किया कहा मैं पीछे कैसे? युवा अपने यौवन को दिखाते घूम रहे हैं मैं किसी से कम नहीं। पहले के ज़माने में बड़े बुज़ुर्ग इस तरह की हरकतों पर नकेल कसते थे। खैर ज़माना आधुनिक है इस लिए समाज इसे स्वीकारता और आनंदित होता है। ऐसे बिगड़ैल यूट्यूबर के इंटरव्यूज होना और भी अचरज की बात है। सोशल मीडिया पर आजकल जो ये फॉलोवर बढ़ाने के लिए जो नग्नता परोसी जा रही है। क्या उसमें परोसने वाले ही दोषी हैं? क्या उसको लाइक और शेयर करने वाले दोषी नहीं हैं? मेरे हिसाब से तो वह ज़्यादा दोषी हैं। अगर हम ऐसी पोस्ट या वीडियो को लाइक शेयर करना ही बंद कर दें तो क्या ये बंद नहीं हो सकता?

    डॉ.  सत्यवान सौरभ

    पूरा देश नग्नता के लिए फ़िल्मों को दोष देता है परंतु आज सोशल मीडिया (सामाजिक पटल) पर इतनी भयंकर नग्नता है कि हमारी जो भारतीय फ़िल्में को भी शर्म आ जाए। आज कोई भी सोशल प्लेटफार्म अछूता नहीं है फूहड़पन और नग्नता से। सोशल मीडिया के अंधे दौर में कुछ लाइक और व्यू पाने के लिए हमारे समाज की नारियों को कैसे लक्षित किया जा रहा है और उन्हें नग्नता परोसना पड़ रहा है और वह लाइक और व्यू के आसमान में उड़ने के लिए नग्नता परोस स्वयं के मान सम्मान स्वाभिमान का सौदा आसानी से कर रही है। कुछ चप्पल छाप यूट्यूबर्स लोग केवल व्यू पाने के लिए हमारी आस्था पर इस तरह के अश्लीलता वाले थम्बनेल लगाते हैं। किससे क्या कहें? जीवन का चरमसुख अब फॉलोअर्स पाने और कमेंट आने पर निर्भर हो गया है। फ़ेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर नग्न अवस्था में तस्वीरें शेयर कर आज लड़कियाँ लाइक कमेंट पाकर ख़ुद को अनुगृहित करती दिखाई देती है, मानो जीवन की सबसे अहम और ज़रूरी ऊंचाई को उन्होंने पा लिया हो। इस नग्नता को हम आधुनिकता के इस दौर में न्यू फैशन कहते हैं। सोशल मीडिया पर फैशन की उबाल आई तो सोशल नेटवर्क पर युवा पीढ़ी ने ख़ुद को खूबसूरत युवतियों से पीछे पाया, फिर क्या युवकों ने ख़ुद की नग्नता का नंगा नाच शुरू किया और कहा, मैं पीछे कैसे? युवा अपने यौवन को दिखाते घूम रहे हैं मैं किसी से कम नहीं। ऐसे बिगड़ैल यूट्यूबर के इंटरव्यूज होना और भी अचरज की बात है। पहले के ज़माने में बड़े बुज़ुर्ग इस तरह की हरकतों पर नकेल कसते थे। खैर ज़माना आधुनिक है इस लिए समाज इसे स्वीकारता और आनंदित होता है।
    पर ये बहुत ही गम्भीरता से सोचने का विषय है-हमारे घरों के छोटे-छोटे बच्चे किस दिशा में जा रहे हैं। माता-पिता क्यों जानबूझ कर अनदेखा कर रहें हैं? क्यों नहीं अपने बच्चों को टाईम और संस्कार देना चाहते हैं? क्यों अपने हाथो अपने बच्चो को दलदल में धकेल रहें हैं। आजकल के माता-पिता बहुत ज़्यादा मार्डन है और उन्हें नंगापन, बॉयफ्रेंड और मार्डन परिवेश बेहद आकर्षित करती है। ये आने वाली पीढ़ी और समाज के लिए घातक सिद्ध होगा। टीनएजर लड़कियों की मनःस्थिति को अपने ख़ास मकसद के मुताबिक ढाला जा रहा है। अब तो सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मस आभासी नग्नता के अड्डे बने हुए हैं। वल्गर रील्स और वीडियोस तो अब हर घर के टीनेजरस बना ही रहे हैं। अब तो ऐसा महसूस होने लगा है कि वैश्यावृति के अड्डे भी नये विकल्पों के साथ हवस परस्त मर्दो के लिए उपलब्ध हो गए हैं। सोशल मीडिया पर आजकल जो ये फॉलोवर बढ़ाने के लिए जो नग्नता परोसी जा रही है। क्या उसमें परोसने वाले ही दोषी हैं? क्या उसको लाइक और शेयर करने वाले दोषी नहीं हैं? मेरे हिसाब से तो वह ज़्यादा दोषी हैं। अगर हम ऐसी पोस्ट या वीडियो को लाइक शेयर करना ही बंद कर दें तो क्या ये बंद नहीं हो सकता? आज सामाजिक विकार अपने सफ़र के सफलतम पड़ाव में है। रोकथाम की कोई गुंजाइश नहीं है। अब तो प्रलय ही इसकी गति को रोक सकती है। सोशल मीडिया में रील्स पर नग्न और अश्लील नृत्य की नौटंकी करने वाली बेटियों से निवेदन है कि चंद काग़ज़ के टुकड़ों के लिए अपने परिवार और धर्म की इज़्ज़त तार-तार ना करो। पैसे आपको आज नृत्य के लिए नहीं अपितु नग्नता परोसने के लिए दिए जा रहे है ताकि पूरे समाज को एक दिन रसातल में धकेल कर नीचा दिखाया जा सके।
    हमारी संस्कृति ही नहीं बचेगी तो-तो हमारे राष्ट्र का और आने वाली पीढ़ियों का दुर्गुणों से विनाश होने से कोई बचा नहीं सकता है। अभी समझे कि संस्कृति क्या है और इसे बचाना क्यों ज़रूरी है। यह हमारे राष्ट्र का स्वाभिमान है। हमें चाहिए अश्लीलता और नग्नता मुक्त समाज अपनी नष्ट हो रहे सभ्यता और संस्कृति की रक्षा करें। बॉलीवुड की अश्लीलता, नग्नता और गाली गलौज से भरी फ़िल्मों और वेब सीरीज का बहिष्कार करें। अश्लील गाना एवं अश्लील फ़िल्मों का बहिष्कार करें। सोशल मीडिया में ट्वीटर, फ़ेसबुक आदि ऐसे प्लेटफार्म हैं जिसके माध्यम से लोग अपने विचार, अभिव्यक्ति के साथ किसी महत्त्वपूर्ण जानकारी का प्रेषण करते हैं। किन्तु वर्तमान में इन प्लेटफार्मो में अश्लील, आपत्तिजनक व नग्नता पूर्ण मैसेज व विज्ञापन की भरभार होने के साथ जुए जैसे खेलों को खेलने के लिए प्रोत्साहित कर सामाजिक प्रदूषण फैलाया जा रहा है। हमारे नौनिहाल, बहन बेटी भी इन प्लेटफार्मो का बहुतायत उपयोग करते है। इस प्रदूषण पर अंकुश लगवाने के लिए सभी को सोचना होगा और ख़ुद पहल करनी होगी। आज चेतना चाहिए नहीं तो कल रास्तों में होगा नंगा नाच। आप देश का भविष्य हो, कठपुतली मत बनो। स्वच्छंदता के नाम पर फूहड़ता सोशल मीडिया के इस दौर में अपने चरम पर है। हमारी संस्कृति में स्त्री को धन की संज्ञा से नवाजा गया वह भी बहुमूल्य न कि टके बराबर। इसलिए राजदरबारो में होने वाले मुजरे भी चारदीवारो के अंदर ही होते थे। सत्य यह है कि अश्लीलता को किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं ठहराया जा सकता। ये कम उम्र के बच्चों को यौन अपराधों की तरफ़ ले जाने वाली एक नशे की दुकान है और इसका उत्पादन आज सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म स्त्री समुदाय के साथ मिलकर कर रहा है। मस्तिष्क विज्ञान के अनुसार 4 तरह के नशों में एक नशा अश्लीलता से भी है।
    आचार्य कौटिल्य ने चाणक्य सूत्र में वासना’ को सबसे बड़ा नशा और बीमारी बताया है। यदि यह नग्नता आधुनिकता का प्रतीक है तो फिर पूरा नग्न होकर स्त्रियाँ पूर्ण आधुनिकता का परिचय क्यों नहीं देती? गली-गली और हर मोहल्ले में जिस तरह शराब की दुकान खोल देने पर बच्चों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है उसी तरह अश्लीलता समाज में यौन अपराधों को जन्म देती है। इसको किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है। विचार करिए और चर्चा करिए या फिर मौन धारण कर लीजिए।

  • आखिर प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा का कारण क्या है?

    आखिर प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा का कारण क्या है?

    आंकड़ों के अनुसार, जो लोग आजीविका की तलाश में स्थानीय और क्षेत्रीय सीमाओं के पार जाते हैं, उन्हें अपने मेजबान समाज में स्थायी रूप से बाहरी समझे जाने का अपमान सहना पड़ता है। श्रमिकों को अक्सर टेलीविजन स्क्रीन पर दुखद घटनाओं के पात्र के रूप में दिखाया जाता है, जिससे उनके योगदान और उन्हें प्राप्त मान्यता के बीच का अंतर उजागर होता है। राष्ट्र के बुनियादी ढांचे के पीछे की ताकत होने के बावजूद, राष्ट्रीय महानता के विमर्श में उनकी भूमिका को शायद ही कभी स्वीकार किया जाता है। पॉलिसी शून्य होने के कारण अक्सर असुरक्षित छोड़ दिया जाता है यद्यपि प्रवासी कार्यबल राष्ट्रीय गौरव के प्रत्यक्ष चिह्नों में महत्वपूर्ण योगदान देता है, फिर भी उनके अधिकारों को नियंत्रित करने वाली नीतियों का घोर अभाव है।

     

    डॉ. सत्यवान सौरभ

    भारत के असंगठित कार्यबल का एक महत्त्वपूर्ण लेकिन कमज़ोर वर्ग, प्रवासी श्रमिक, अक्सर सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों से बाहर रह जाते हैं। दशकों से कानूनी ढाँचे और सिफारिशों के बावजूद, सामाजिक सुरक्षा तक उनकी पहुँच अपर्याप्त रही है। अंतरराज्यीय प्रवासी कामगार अधिनियम, 1979 में प्रावधान और असंगठित क्षेत्र में राष्ट्रीय उद्यम आयोग (2007) और असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम (2008) द्वारा श्रमिक पंजीकरण के लिए सिफारिशों के बावजूद, ई-श्रम पोर्टल तक प्रवासी श्रमिक आधिकारिक डेटाबेस में काफ़ी हद तक अदृश्य रहे। जबकि ई-श्रम पोर्टल पर 300 मिलियन से अधिक श्रमिक पंजीकृत हैं, उनमें से अधिकांश को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में एकीकृत नहीं किया गया है। मौसमी और परिपत्र प्रवासियों को वंचितता, कलंक, तस्करी और सार्वजनिक सेवाओं तक खराब पहुँच सहित अनूठी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उनकी उच्च गतिशीलता सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने को जटिल बनाती है। कई श्रमिकों में डिजिटल साक्षरता या ई-श्रम पंजीकरण और लाभ ट्रैकिंग के लिए आवश्यक उपकरणों तक पहुँच की कमी है, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में। राज्यों में अक्सर कल्याणकारी योजनाओं का असंगत कार्यान्वयन होता है, जिससे समन्वय सम्बंधी समस्याएँ पैदा होती हैं जो लाभों की पोर्टेबिलिटी को कमज़ोर करती हैं।

    मौजूदा कल्याणकारी योजनाएँ जैसे कि मनरेगा, पीएम श्रम योगी मानधन और वन नेशन वन राशन कार्ड अक्सर अलग-अलग तरीके से काम करती हैं, जिससे प्रवासी श्रमिकों के लिए निर्बाध पहुँच में बाधाएँ पैदा होती हैं। 2021 में लॉन्च किए गए ई-श्रम पोर्टल का उद्देश्य असंगठित श्रमिकों का दुनिया का सबसे बड़ा राष्ट्रीय डेटाबेस बनाना है। इसमें 300 मिलियन से अधिक श्रमिक पंजीकृत हैं, जिनमें प्रवासियों का एक महत्त्वपूर्ण अनुपात शामिल है। यह कल्याणकारी योजनाओं के लिए श्रमिकों की बेहतर पहचान और लक्ष्यीकरण की सुविधा प्रदान करता है। हालाँकि, यह मुख्य रूप से एक “पंजीकरण अभियान” है जिसका सामाजिक सुरक्षा में समावेश पर सीमित ध्यान है। 2024 में लॉन्च किया गया विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं को ई-श्रम पोर्टल के साथ एकीकृत करके पंजीकरण और सामाजिक सुरक्षा तक पहुँच के बीच की खाई को पाटने का प्रयास करता है। इसके लाभों में एकीकृत दृष्टिकोण, लाभों की पोर्टेबिलिटी और पारदर्शी तथा श्रमिक-अनुकूल प्रक्रिया शामिल है। हालाँकि, चिंताओं में मौजूदा योजनाओं का सीमित कवरेज, श्रमिकों में जागरूकता की कमी और अंतर-राज्य समन्वय का कमज़ोर होना शामिल है। ई-श्रम पोर्टल और ओएसएस प्रवासी श्रमिकों के सामने आने वाली सामाजिक सुरक्षा चुनौतियों को सम्बोधित करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम है। हालाँकि, उनकी सफलता कार्यान्वयन बाधाओं पर काबू पाने, निर्बाध अंतर-राज्य समन्वय सुनिश्चित करने और श्रमिकों के बीच जागरूकता बढ़ाने पर निर्भर करती है।

    आंकड़ों के अनुसार, जो लोग आजीविका की तलाश में स्थानीय और क्षेत्रीय सीमाओं के पार जाते हैं, उन्हें अपने मेजबान समाज में स्थायी रूप से बाहरी समझे जाने का अपमान सहना पड़ता है। श्रमिकों को अक्सर टेलीविजन स्क्रीन पर दुखद घटनाओं के पात्र के रूप में दिखाया जाता है, जिससे उनके योगदान और उन्हें प्राप्त मान्यता के बीच का अंतर उजागर होता है। राष्ट्र के बुनियादी ढांचे के पीछे की ताकत होने के बावजूद, राष्ट्रीय महानता के विमर्श में उनकी भूमिका को शायद ही कभी स्वीकार किया जाता है। पॉलिसी शून्य होने के कारण अक्सर असुरक्षित छोड़ दिया जाता है यद्यपि प्रवासी कार्यबल राष्ट्रीय गौरव के प्रत्यक्ष चिह्नों में महत्वपूर्ण योगदान देता है, फिर भी उनके अधिकारों को नियंत्रित करने वाली नीतियों का घोर अभाव है।
    अंतरराज्यीय प्रवासी कर्मकार अधिनियम, 1979, इस विशाल जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करने वाला एकमात्र कानून है।
    हालाँकि, आवास, स्वास्थ्य देखभाल, न्यूनतम मजदूरी और भेदभावपूर्ण प्रथाओं की रोकथाम के लिए इसके प्रावधान अक्सर अधूरे रह जाते हैं।
    प्रवासी श्रमिकों के साथ उनकी मानवता पर विचार किए बिना एक नौकरी मशीन की तरह व्यवहार किया जाता है। सरकारी प्रणालियाँ अक्सर प्रवासी श्रमिकों के सामने आने वाली विशिष्ट चुनौतियों और परिवर्तनों की परवाह नहीं करतीं।

    प्रवासी श्रमिकों को न केवल कानूनी सुरक्षा नहीं मिलती बल्कि उन्हें शहर के प्रतिकूल वातावरण में भी संघर्ष करना पड़ता है। शहर सड़कों और इमारतों जैसे निर्माण के लिए प्रवासी श्रमिकों पर निर्भर रहते हैं, लेकिन इन शहरों में इन प्रवासी श्रमिकों की बुनियादी मानवीय आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त सहायता नहीं होती है। यहां स्वास्थ्य सेवा, वित्तीय सहायता, रहने के लिए अच्छे स्थान, सुरक्षा उपाय या बच्चों की देखभाल की सुविधाएं नहीं हैं। इससे प्रवासी श्रमिकों को सब कुछ खुद ही संभालना पड़ता है। शहरी क्षेत्रों में प्रवासी श्रमिकों के बच्चों की दुर्दशा विशेष रूप से चिंताजनक है। शिशुओं को बड़े बच्चों की देखभाल में छोड़ दिया जाता है, जिनके पास स्वयं सार्थक शैक्षिक गतिविधियों तक पहुंच नहीं होती। इससे असुविधा का एक चक्र निर्मित होता है, जहां शिक्षा के अवसरों की कमी उनके माता-पिता द्वारा सामना की जाने वाली कठिनाइयों से मुक्त होने की उनकी क्षमता में बाधा डालती है।

    प्रवासी श्रमिकों के लिए, एक टूटा हुआ अंग अक्सर कामकाजी जीवन के अंत का संकेत देता है। कार्यस्थल पर लगी चोटों के लिए शायद ही कभी पर्याप्त सहायता या चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध हो पाती हैं। घायल श्रमिक अपने घर लौटने के लिए बाध्य होते हैं, तथा उपलब्ध स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा प्राप्त करने के लिए प्रयास करते हैं, क्योंकि शहरी क्षेत्रों में चिकित्सा सुविधाओं तक त्वरित और आवश्यक पहुंच बहुत कम उपलब्ध होती है। गांवों से शहरी क्षेत्रों की ओर मौसमी प्रवास की आवश्यकता, प्रवासी श्रमिकों के समक्ष चुनौतियों को और बढ़ा देती है। शहरी आवास की स्थिति अक्सर बहुत खराब होती है, जिससे शहर का मौसम दुख का एक अतिरिक्त स्रोत बन जाता है।

    प्रवासी श्रमिकों के लिए काम से परे जीवन की गंभीर वास्तविकताएं तत्काल ध्यान देने और व्यापक समाधान की मांग करती हैं। विचारशील शहरी नियोजन को कार्यस्थलों से आगे बढ़कर प्रवासी श्रमिकों के जीवन के संपूर्ण आयाम को शामिल करना चाहिए, जिससे न केवल रोजगार बल्कि सम्मान, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा भी उपलब्ध हो सके। बच्चों के लिए शिक्षा के अवसरों की उपेक्षा, घायल श्रमिकों के लिए सहायता की कमी, तथा शहरी आवास की प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए लक्षित नीतियों की आवश्यकता है। प्रवासी श्रमिकों के सामने आने वाली विशिष्ट चुनौतियों से निपटने के लिए नीतियों की आवश्यकता को रेखांकित करती है। उनकी विविधता का केवल जश्न मनाने के बजाय, उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं को समझने और उन्हें पूरा करने के लिए ठोस प्रयास किए जाने चाहिए। इसके लिए एक ही नीति के दृष्टिकोण से हटकर सूक्ष्म नीतियों की ओर कदम बढ़ाने की आवश्यकता है, जो प्रवासी श्रम शक्ति की जटिलताओं पर विचार करें।

  • ज़िंदा माता पिता को रोटी तक नहीं और मरने के बाद खीर पूड़ी

    ऊषा शुक्ला

    जीवित रहते है माता पिता को कभी दो वक़्त की रोटी नहीं दी। और मृत्यु पश्चात पितृ पक्ष आते ही समाज को दिखाने के लिए महाभोग किए जा रहे हैं। मृत्यु से कुछ समय पहले माता पिता के मुख में है चंद्र रोटी के टुकड़े डालने का केवल मात्र एक ही लोभ था कि किसी तरह इनकी जायजाद , उनका पैसा हड़प लिया जाए। हो सकता हो कि अगर मृत्यु से चंद दिनों पहले उन्हें रोटी खिलाने का यह सेवा करने का ढोंग न किया होता तो शायद वृद्ध माता पिता ने अपनी सारी संपत्ति किसी आश्रम में दान कर दी होती । यह भी हो सकता था कि मजबूर भारत माता पिता अपनी सारी संपत्ति अपने किसी ऐसे बच्चे के नाम कर जाते ,जो निर्दोष था जिसे जान बूझ कर घर से दूर रखा गया। ऐसी संतान जिसने पूरे जीवन अपने माता पिता का एक भी पैसा अपने परिवार पर ख़र्च न किया हो । हो सकता हो माता पिता अपने इस बच्चे का एहसान उतारना चाहते हो जिसने कभी भी अपने माता पिता के सामने झोली नहीं फैलायी। कैसा कलयुग आ गया है कि कोख से जन्मे सन्तान चंद रुपयों की ख़ातिर अपने ही वृद्ध माता पिता के साथ राजनीति खेलना शुरू कर देती है। बिस्तर पर बीमार पड़े अपने बेटे की एक झलक पाने के लिए तड़प रहे पिता को इस तरह प्रताड़ित किया कि सुनने वालों की रूह कांप गई। रिश्तों से बढ़कर पैसा आख़िर कब हुआ है। लेकिन अनपढ़ लोगों के लिए पैसा ही सब कुछ है। पैसा और मकान पाने की ख़ातिर कुछ अज्ञानी अनपढ़ अपने माता पिता को मौत के घाट उतार सकते हैं। अब तक तो सुनते थे अब तो अपनी जान पहचान में ऐसे निर्दयी कठोर संता ने देख ली। भगवान सारे पाप माफ़ कर देते हैं पर अपने ही माता पिता पर हाथ उठाने वाले कुपुत्र को कभी माफ़ नहीं करते हैं। एक बेटा एक बार अपने माता पिता से कुछ बोल भी ले पर वह या कैसे बर्दाश्त कर लेता है कि उसकी पत्नी उसके ही माता पिता को मार रही है ,पीट रही है और इससे सेवा का नाम दे रही है।कई बुजुर्ग बिल्कुल बेसहारा हैं, उनके बाद कोई इनका नाम लेने वाला भी नहीं है। वह बताते हैं कि मां-बाप की मौत के बाद सारे रिश्ते-नातेदार उनसे दूर हो गए। सबने दुत्कार दिया, कोई दो रोटी तक नहीं दे सका।
    पितृ पक्ष शुरू हो गए हैं। घर-घर लोग अपने पूर्वजों की डआत्मा की शांति के लिए सुबहड उठकर काले तिल, फूल और चावल के साथ उन्हें जल अर्पित करेंगे, ताकि उनके पूर्वज जहां भी हों, उन्हें शांति मिले। ज़रा सोचो जब तक पूर्वज ज़िंदा थे उन्हें थप्पड़ मारे जाते थे कोई उनको धक्का देता था। गालियां दी जाती थी। और जब मर गए हैं तो केवल मात्र है अपने आपको बचाने के लिए पिंडदान किया जा रहा है उनकी आत्मा की शांति की दुआ की जा रही है। चार कंधों पर चलती हुई लाचार पिता की आह बोल उठी काश कोई एक कंधा जीवित रहते मिल जाता है तो शायद मेरी आत्मा को शांति मिल जाती। जीवित रहते हैं जिन माता पिता को तिल तिल तज पाया गया आज उन्हीं को पिंडदान किया जा दिया जा रहा है। तना ही नहीं पूर्वजों के श्राद्ध के लिए पंडितों को भोज कराया जाएगा, उन्हें वस्त्र और दान दक्षिणा दी जाएगी और तो और परिवार के लोग जिन भूले-भटके पितरों के बारे में नहीं जानते, अमावस्या के दिन उनका भी तर्पण और श्राद्ध करेंगे लेकिन वृद्धाश्रमों में रह रहे असहाय बुजुर्गों की मौत के बाद उनका तर्पण कौन करेगा, इस सवाल पर वृद्धाश्रम में जीते जी गुमनान जिंदगी काट रहे बुजुर्ग अपना मुंह छिपा लेते हैं। उनकी आंखों में आंसू डबडबा जाते हैं। कुछ वृद्ध अपने ही घर में दीवारों को देख देख करके आँसू बहा रहे होते थे। निर्दयी संतान को ज़रा भी तरस नहीं आयी कि पिता को इतना भी मत तड़पा कि उनके हाय निकल जाए।दिखावा करने के लिए ऐसा करते हैं । जिसका कोई मूल्य नहीं होता है । जो करना है जीते जी कर लें मृत्यु के पश्चात कोई लाभ माता-पिता को प्राप्त नहीं होता है । जिन्होंने हमें जन्म दिया , भोजन , वस्त्र और ना जाने क्या -कया दिया उनका हम हिसाब भी नहीं लगा सकते । स्वयं गीले में सोकर हमें सुखे में सुलाया , हमें अच्छे देने के लिए स्वयं वस्त्र का त्याग किया , मेहनत करके अपने अपने तन का त्याग किया , हमारे शिक्षा अच्छे से हो इसलिए मनोरंजन का त्याग किया । ऐसे सभी पूजनीय माता-पिता को भोजन भी नहीं देने वाली संतानों से ज़्यादा दरिद्र कोई नहीं । माता-पिता तो त्याग और बलिदान, समर्पण, की पराकाष्ठा है ।

  • Vanishing Traditions : मिट्टी के बर्तनों और लाल दूध की यादें

    Vanishing Traditions : मिट्टी के बर्तनों और लाल दूध की यादें

     दीपक कुमार तिवारी 

    आज के आधुनिक युग में जहाँ मोमो, पिज्जा और बर्गर जैसे विदेशी व्यंजन हर घर में अपनी जगह बना चुके हैं, वहीँ पुरानी भारतीय परंपराएं और उनके साथ जुड़ी कई अद्वितीय चीजें धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही हैं। विशेष रूप से ग्रामीण भारत की संस्कृति और वहां की खानपान की आदतें समय के साथ धुंधली होती जा रही हैं।

     

    हड़िया और बरोसी का युग:

     

    एक समय था जब हर घर में मिट्टी के बर्तनों का विशेष महत्व होता था। हड़िया और बरोसी जैसे बर्तन घर के रसोईघर की शोभा बढ़ाते थे। दूध जब हड़िया में धीरे-धीरे गरम होता, तो उसकी मलाई लाल रंग की हो जाती थी। उस मलाई का स्वाद अविस्मरणीय होता था। जब रोटी पर वह मलाई रखकर उसे नून (नमक) और मिर्च के साथ खाया जाता था, तो उसका आनंद कुछ और ही होता था।

     

    हड़िया का लाल दूध और मेहमानों की मेजबानी:

     

    आज जब मेहमानों का स्वागत चाय या कोल्ड्रिंक से किया जाता है, तब कभी मेहमानों को हड़िया में पकाया गया लाल दूध परोसा जाता था। इस दूध का स्वाद ऐसा होता था कि लोग इसे बार-बार पीने की इच्छा जताते थे। चाय और कोल्ड्रिंक जैसे आधुनिक पेय पदार्थों का कोई नामोनिशान नहीं था।

     

    खुरचन का अद्भुत स्वाद:

     

    हड़िया में पकाए गए दूध की एक और खासियत थी—उसकी खुरचन। जब रात को दूध के नीचे की खुरचन निकाली जाती थी, तो उसका स्वाद अद्वितीय होता था। बच्चों में तो खुरचन खाने को लेकर अक्सर झगड़े हो जाया करते थे, क्योंकि इस स्वाद की तुलना किसी और व्यंजन से नहीं की जा सकती थी। यह एक अलग ही मिठास और संतोष प्रदान करता था, जो आज के आधुनिक व्यंजनों में मिलना मुश्किल है।

     

    आधुनिकता में खोती परंपराएं:

     

    अब समय के साथ-साथ मिट्टी के बर्तन, हड़िया और बरोसी जैसे पारंपरिक बर्तन घरों से गायब हो गए हैं। उनके स्थान पर स्टील, कांच और अन्य आधुनिक बर्तन आ गए हैं। न तो अब वह लाल मलाई वाली दही रही, और न ही बरोसी में पकाया गया दूध। आज के बच्चे पिज्जा, बर्गर और मोमो के स्वाद के आदी हो गए हैं, लेकिन वे शायद ही कभी उन पारंपरिक व्यंजनों के बारे में जान पाएंगे जिनका कभी उनके पूर्वज आनंद लेते थे।

     

    बचपन की यादें:

     

    यह सब केवल उन पुरानी यादों का हिस्सा बनकर रह गया है। खुद के बचपन की यादें जब ताजा होती हैं, तो वह हड़िया का लाल दूध, उसकी मलाई और खुरचन का स्वाद जुबान पर आ ही जाता है। इन पारंपरिक अनुभवों का महत्व न केवल हमारे स्वास्थ्य के लिए था, बल्कि यह हमारे जीवन की सादगी और आत्मीयता का प्रतीक भी था।

    आज भले ही आधुनिकता ने हमारी जीवनशैली को बदल दिया हो, लेकिन इन पुरानी परंपराओं और उनके साथ जुड़ी यादों का महत्व कभी कम नहीं होगा।

  • बने संतान आदर्श हमारी

    बने संतान आदर्श हमारी

    बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।
    सोच रहा हूँ जो बच्चा आये, उसका रूप, गुण सुना दूँ मैं।।

    बाल घुंघराले, बदन गठीला, चाल, ढाल में तेज़ भरा हो।
    मन शीतल हो ज्यों चंद्र-सा, ओज सूर्य सा रूप धरा हो।।
    मन भाये नक्स, नैन हो, बातें दिल की बता दूँ मैं।
    बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।

    राह चले वो वीर शिवा की, राणा की, अभिमन्यु की।
    शत्रुदल को कैसे जीते, सीख चुने वो रणवीरों की।।
    बन जाये वो सच्चा नायक, ऐसे मंत्र पढ़ा दूँ मैं।
    बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।

    सीख सिख ले माँ पन्ना की, झाँसी वाली रानी की।
    दुर्गावती -सा शौर्य हो, आबरू पद्मावत मेवाड़ी-सी।।
    भक्ति में हो अहिल्या मीरा, ऐसी घुटकी पिलवा दूँ मैं।
    बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।

    पुत्र हो तो प्रह्लाद-सा, राह धर्म की चलता जाये।
    ध्रुव तारा सा अटल बने वो, सबको सत्य पथ दिखलाये।।
    पुत्री जनकर मैत्रियी, गार्गी, ज्ञान की ज्योत जलवा दूँ मैं।
    बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।

    सोच रहा हूँ जो बच्चा आये, उसका रूप, गुण सुना दूँ मैं।
    बने संतान आदर्श हमारी, वो बातें सिखला दूँ मैं।।

    डॉ. सत्यवान सौरभ

  • बुरा करने वाले के साथ आप भला करके तो देखिए

    बुरा करने वाले के साथ आप भला करके तो देखिए

     ऊषा शुक्ला

    जो तोकूँ कॉटा बुवै, ताहि बोय तू फूल। तोकूँ फूल के फूल हैं, बाकूँ है तिरशूल ।। जब कोई आपके साथ बुरा करता है तो सबसे पहले मनुष्य उससे बदला लेने के लिए उसका और बुरा करने की सोचने लगता है जबकि यह ग़लत है । ऐसे व्यक्ति को नीचा दिखाने के लिए या हराने के लिए उसका बुरा मत करो । अगर उसका आपने भला कर दिया तो आप भगवान की नज़र में तो अच्छे हो ही गये और उसको आपकी इस प्रतिक्रिया से और लज्जित होना पड़ेगा । कहा गया है जो आपका बुरा करता है आप उसका भला कीजिए । जिसने आपके साथ बुरा किया है उसके साथ और बुरा ही होगा और जब आप उस बुरे व्यक्ति के साथ में भला कर रहे हैं तो आपके साथ ईश्वर और भी भला करेगा। कुछ नहीं रखा है बदला लेने में या दुश्मनी करने में। जो व्यक्ति आपके लिए कांटे बोता है, आप उसके लिए फूल बोइये, आपके आस-पास फूल ही फूल खिलेंगे जबकि वह व्यक्ति काँटों में घिर जाएगा।जो तुम्हारे लिए कांटा बोता है, उसके लिए तुम फूल बोओ अर्थात् जो तुम्हारी बुराई करता है तू उसकी भलाई कर।जो तेरे लिए कांटे बोता है अर्थात जो तुम्हरी राह में कांटे बोता है उसके लिए तुम फूल बोओ। अर्थात जो तुम्हारी प्रगति में बाधक बनता है उसकी प्रगति में तुम साधक (सहायक) बनो। आपके द्वारा बोये गए फूल आपको तो फूल जैसे ही लगेंगे लेकिन उसके लिए वो शर्मिंदगी के कांटे बनेंगे। अर्थात आपके द्वारा उसके लिए किया गया अच्छा कार्य आपको तो सुख ही देगा लेकिन उसके लिए आपके द्वारा की गई अच्छाई उसके हृदय को कचोटेगी कि उसने आपके साथ बुरा क्यों किया।
    अगर कोई आपके साथ बेवजह हर समय आपका बुरा ही करता है तो आप परेशान मत हो। ऐसे व्यक्ति को मानसिक बीमार रहते हैं आप उसका भला ही भला करें और इतना भला करें कि समाज देखिए ना देखिए ऊपर वाला ईश्वर जरुर देखेगा। और जब आप भगवान की नजर में आ जाओगे तो धरती की तुच्छ प्राणी आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे। और भगवान की माया अपरंपार है जब वह देता है तो छप्पर फाड़ के देता है। ईश्वर खुशियों से आपकी झोली भर देगा। देखना उसे समय आप बदला लेने की भावना बिल्कुल भूल जाएंगे। आपने जो कुछ कभी जीवन में सोचा भी नहीं होगा वह भी ईश्वर आपकी कदमों में रख देगा। आपके अंदर क्षमा करने की इतनी कठोर अनमोल हिम्मत है। जबकि आम मानव के अंदर ऐसी वीरता हो ही नहीं सकती। समाज क्या कहेगा इसकी चिंता मत करो। भगवान क्या रहेगा बस इसकी चिंता करोवह तुम्हारा बुरा करते हैं तो करने दो पर तुम्हें उनका भला ही करना चाहिए। किसी के साथ हर समय ईर्ष्या भाव रखना अच्छी बात नहीं है। आजकल का मनुष्य एक अजीब सी स्थिति में जी रहा है। पड़ोसी के पास इतना सुख क्यों है। ऐसा क्या करूं कि उसके घर में कुछ बुरा हो जाए। और अगर नहीं बुरा हो रहा है तो उन पर गलत गलत आरोप लगाओ। सबसे उनके लिए गलत गलत बोल। हर मनुष्य जानता है कि वह धरती पर आज अच्छे कर्म करने के लिए पैदा हुआ है पर फिर भी पता नहीं क्यों वह बेकार के ईर्ष्या भाव में दूसरों का बड़ा करने के लिए अपना जीवन में अपना ही सुख हो रहा है। जो तुम्हारा बड़ा करें तुम उसका भला करो। फिर चमत्कार देखो भगवान आपके साथ छप्पर फाड़ कर चमत्कार ही चमत्कार करता है।जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।वाको है तिरसुल॥ कबीरदास जी कहते हैं कि जो तुम्हारे लिए काँटा बोये (परेशानी या मुसीबत खड़ी करे), तुम उसके लिए भी फूल ही बोना (उसके आचरण के विरोध में भी अपने अच्छे स्वभाव को बनाये रखो), इससे तुमको तो फूल ही फूल मिलेंगे (तुम्हारा स्वभाव और मन-बुद्धि शीतल रहेगी) और उसको त्रिशूल/कांटे मिलेंगे (उसने जो नफरत रुपी बीज तुम्हारे लिए बोये हैं उसका फल उसको ही मिलेगा).. बहुत आसान है कि अपने दुश्मनों को कष्ट पहुँचाना। बहुत मुश्किल है कि ईर्ष्यालु व्यक्ति के साथ परोपकार करना। अब यह मनुष्य को तय करना है कि वह बदले की भावना रखता है या माफ़ करके भला करता है। एक बार भला करके साथ चल कर तो देखिए। असीम आनंद की अनुभूति होती है।जो व्यक्ति आपके लिए कांटे बोता है, आप उसके लिए फूल बोइये,
    आपके आस-पास फूल ही फूल खिलेंगे जबकि वह व्यक्ति काँटों में घिर जाएगा।

  • नारी शक्ति: घर की आत्मा और जिम्मेदारी

    नारी शक्ति: घर की आत्मा और जिम्मेदारी

     दीपक कुमार तिवारी 

    कम उम्र से ही लड़कियां घर की जिम्मेदारियों को समझने और निभाने लगती हैं। भारतीय समाज में नारी शक्ति को घर की आत्मा माना जाता है, जो पूरे परिवार को स्नेह और समर्पण से संवारती है।

    एक प्रेरणादायक उदाहरण:

    फोटो में दिख रही लड़की साइकिल पर दो बोरियों में खाद लेकर अपने दादा जी के साथ खेत पर जा रही है। यह लड़की जहानाबाद जिले के भार्थू गांव में महंत केशवदास उच्च विद्यालय की दसवीं कक्षा की छात्रा है। खेत से काम करके लौटने के बाद, वह स्कूल भी जाती है। यह दिखाता है कि किस प्रकार कम उम्र में ही लड़कियां मेहनत और जिम्मेदारियों का निर्वहन करती हैं।

    लड़कों का संघर्ष और चुनौती:

    इसके विपरीत, इसी उम्र के कुछ लड़के घर के काम करने में शर्म महसूस करते हैं। समाज में कई लड़के कम उम्र में ही नशे की गिरफ्त में आ जाते हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास कमजोर हो जाता है और वे गलत रास्तों पर चल पड़ते हैं।

    नशे से मुक्ति और नई दिशा:

    इन लड़कों को सबसे पहले नशे को छोड़ने का प्रयास करना चाहिए और मेहनत से एक अच्छी और सकारात्मक जिंदगी की शुरुआत करनी चाहिए। नशे की लत छोड़ने में जितनी जल्दी सफलता मिलेगी, उतना ही वे गंभीर बीमारियों और गलत आदतों से बच सकेंगे। इस प्रकार, लड़कियों का अपने जीवन और परिवार के प्रति समर्पण जहां प्रेरणादायक है, वहीं लड़कों को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास करते हुए नशे जैसी समस्याओं से बचने की दिशा में कदम उठाना चाहिए।

  • इतिहास के पन्नों में 13 मार्चः उधम सिंह ने लिया ‘जलियांवाला बाग’ का बदला, जनरल डायर को मारी गोली

    इतिहास के पन्नों में 13 मार्चः उधम सिंह ने लिया ‘जलियांवाला बाग’ का बदला, जनरल डायर को मारी गोली

    13 अप्रैल… वह तारीख जब एक ओर उत्तर भारत के कई राज्यों में फसल

    पकने की खुशी में बैसाखी का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। वहीं दूसरी ओर यह दिन एक बेहद दुखद घटना की याद दिलाता है। एक ऐसा वाकया, जो 105 साल के बाद भी दर्द को ताजा कर जाता है। हम बात कर • रहे है जलियांवाला बाग हत्याकांड की। वह वर्ष 1919 का 13 अप्रैल का ही दिन था, जब जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा के लिए जमा हुए हजारों निहत्थे भारतीयों पर अंग्रेज हुक्मरान ने अंधाधुंध गोलियां चतवाई थीं।

    पंजाब के अमृतसर जिले में ऐतिहासिक स्वर्ण मंदिर के नजदीक जलियांवाला बाग में अंग्रेजों की गोलीबारी से बचने के लिए कई लोग कुएं में कूद गए थे। बाहर जाने का केवल एक ही रास्ता था, जो संकरा तो था ही, साथ ही अंग्रेज सैनिकों ने उसे रोक रखा था। बहुत से लोग भगदड़ में कुचले गए और हजारों लोग गोलियों की चपेट में आए। देखते ही देखते उस बाग में लाशों का ढेर लग गया और हजारों लोग घायल हो गए। जवान, बूढ़े, बच्चे, औरतें… हर कोई तो शामिल था उनमें। इस घटना ने देश के स्वतंत्रता संग्राम का रुख मोड़ दिया था। इस हत्याकांड के सबसे बड़े गुनहगार थे ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर और उस वक्त पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर।

    प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान पंजाब के क्षेत्र में ब्रिटिशर्स का विरोध कुछ अधिक बढ़ गया था, जिसे डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट, 1915 लागू कर के कुचल दिया गया। उसके बाद 1918 में एक ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक सेडीशन समिति नियुक्त की गई। समिति के सुझावों के अनुसार डिफेस ऑफ इंडिया एक्ट, 1915 का विस्तार कर के भारत में रॉलेट एक्ट लागू किया गया, जो आजादी के लिए चल रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए था। इस एक्ट में ब्रिटिश सरकार को और अधिक अधिकार दिए गए थे जिससे वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, नेताओं

    को बिना मुकदमे के जेल में रख सकती थी, ट्राइब्यूनल्स और बंद कमरों में बिना जवाबदेही लोगों को बिना वॉरंट के गिरफ्तार कर सकती थी, उन पर विशेष मुकदमा चला सकती थी।

    इस एक्ट का पूरे भारत में विरोध होने लगा। गिरफ्तारियां हुईं। पंजाब में आंदोलन के दो नेताओं सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर कालापानी की सजा दे दी गई। जलियांवाला बाग में सभा इस एक्ट और इन्हीं गिरफ्तारियों के विरोध में रखी गई थी। भारतीयों की मंशा यह सभा शांतिपूर्ण तरीके से करने की थी। लेकिन – ब्रिटिश सरकार के कई अधिकारियों को यह 1857 के गदर के दोहराव जैसी परिस्थिति लग रही थी और इसे न होने देने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे।

    तनाव बढ़ने पर हत्याकांड से एक दिन पहले ही पंजाब के अधिकतर हिस्सों में मार्शल लॉ की घोषणा हो चुकी थी। बैसाखी के दिन 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में आयोजित सभा में कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ्यू होने के बावजूद सैकड़ों लोग आस पास के इलाकों से बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे। सभा की खबर सुनकर वे भी वहां जा पहुंचे। बाग में हजारों की संख्या में लोग जमा हो ● चुके थे। तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर १० सैनिकों को लेकर वहां पहुंचा। सबके हाथों में भरी हुई राइफल थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा। तभी बिना किसी चेतावनी के डायर ने गोलियां चलवाना शुरू कर दिया। सैनिकों ने तब तक गोलियां बरसाईं, जब तक कि उनकी राइफल खाली नहीं हो गईं। 10 मिनट के अंदर कुल 1,650 राउंड गोलियां चलीं।

    जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। चारों ओर मकान थे। बाग में आने-जाने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था, जिसे अंग्रेजी हुकूमत के सैनिक घेरे हुए थे। भागने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था। बचने के लिए कई लोग, बाग में बने कुएं में कूद पड़े। कुछ ही देर में जलियांवाला बाग में जवान, बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों समेत लोगों की लाशों का ढेर लग गया। इन ताशों में एक 6 सप्ताह का बच्चा भी था। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 लाश तो सिर्फ कुए से ही निकलीं। अमृतसर के डिप्टी कमिश्रर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ऐसा भी कहा जाता है कि मरने वालों की संख्या सैकड़ों में नहीं बल्कि हजारों में थी। घायलों की संख्या भी हजारों में थी। शहर में कर्फ्यू के चलते घायलों को इलाज के लिए भी कहीं ते जाया नहीं जा सका।

    इस हत्याकांड के बाद जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने मुख्यालय पर वापस पहुंचकर अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फौज ने हमला किया था। बचने के लिए उसे गोलियां चलवानी पड़ीं। ब्रिटिश लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ने इसके जवाब में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को टेलीग्राम किया कि तुमने सही कदम उठाया।

    इस बर्बरता ने भारत में ब्रिटिश राज की नींव हिला दी। हत्याकांड की पूरे विश्व में कड़ी निंदा हुई, जिसके दबाव में X सेक्रेटरी ऑफ स्टेट एडविन माँटेग्यू ने 1919 के अंत में इसकी जांच के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। कमीशन के सामने जनरल डायर ने स्वीकार किया कि वह गोली चलाने का फैसला पहले से ही ले चुका था। इतना ही नहीं वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले गया था, लेकिन अंदर जाने का रास्ता संकरा होने के कारण तोपें अंदर नहीं जा पाईं। हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने पर 1920 में जनरल डायर को डिमोट कर कर्नल बना दिया गया। भारत में डायर के खिलाफ बढ़ते गुस्से के चलते उसे स्वास्थ्य कारणों के आधार पर ब्रिटेन वापस भेज दिया गया।

    ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमंस ने डायर के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव पारित किया, लेकिन हाउस ऑफ लॉर्ड ने इस हत्याकांड की तारीफ की। पूरी दुनिया में हो रही आलोचना के दबाव में ब्रिटिश सरकार को निंदा प्रस्ताव पारित करना पड़ा और 1920 में जनरल डायर को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।

    उधम सिंह ने लिया था इस नरसंहार का बदला

    जलियांगवाला बाग हत्याकांड ने जहां कई लोगों के दिलों में सिहरन पैदा कर दी थी, वहीं एक नौजवान ऐसा था, जिसके सीने में बदले की आग धधकने लगी थी। उसने कसम खा ली थी कि जलियांवाला बाग कांड के लिए जिम्मेदार पंजाब के गवर्नर माइकल ओ डायर और गोलियां चलवाने वाले जनरल डायर से बदला लेकर रहेगा। वह नौजवान था शहीद उधम सिंह। जनरल डायर की तो 1927 में बीमारी की वजह से मौत हो गई और उसे मारने की उधम सिंह की हसरत पूरी नहीं हो सकी। लेकिन माइकल ओ डायर का मरना अभी बाकी थी।

    माइकल ओ डायर रिटायर होने के बाद हिंदुस्तान छोड़कर लंदन में बस गया था। शहीद उधम सिंह 1934 में लंदन पहुंचे और वहां उन्होंने एक कार और एक रिवॉल्वर खरीदी। सही मौका 6 साल बाद 13 मार्च 1940 को आया। कैक्सटन हॉल में माइकल ओ डायर का भाषण था। उधम सिंह एक किताब में रिवॉल्वर छिपा कर अंदर घुसने में कामयाब रहे। बीच भाषण में ही उधम सिंह ने डायर को गोली मारकर अपनी कसम पूरी कर दी। माइकल ओ डायर को मारने के बाद उधम सिंह ने भागने की कोशिश नहीं की। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में उधम सिंह को फांसी दे दी गई।