Category: कविता

  • बदले सुर

    बदले सुर

    जीरो ले बाबू हुए, काटे मेरिट घास ।
    डिग्री पैसों में बिके, ज्ञान हुआ बकवास ।।

    बदले सुर में गा रहे, अब शादी के ढोल ।
    दूल्हा कितने में बिका, पूछ रहे हैं मोल ।।

    बँटवारे को देखकर, बापू बैठा मौन ।
    दौलत सारी बांट दी, रखे उसे अब कौन ।।

    नए दौर में देखिये, नयी चली ये छाप ।
    बेटा करता फैसले, चुप बैठा है बाप ।।

    पानी सबका मर गया, रही शर्म ना साथ ।
    बहू राज हर घर करे, सास मले बस हाथ ।।

    कुत्ते बिस्कुट खा रहे, बिल्ली सोती पास ।
    मात-पिता दोनों कहीं, करें आश्रम वास ।।

    चढ़े उम्र की सीढियाँ, हारे बूढ़े पाँव ।
    अंत बुढ़ापे में कहीं, ठौर मिली ना छाँव ।।

    कैसा युग है आ खड़ा, हुए देख हैरान ।
    बेटा माँ की लाश को, रहा नहीं पहचान ।।

    रिश्तों नातों का भला, रहा कहाँ अब ख्याल ।
    मात-पिता को भी दिया, बँटवारे में डाल ।।

    अपराधी अब छूटते, तोड़े सभी विधान ।
    निर्दोषी हैं जेल में, वाह। जी, संविधान ।।

    थानों में जब रेप हो, लूट रहे दरबार ।
    तब ‘सौरभ’ नारी दिवस, लगता है बेकार ।।

    (सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )

  • बचपन के वो गीत

    बचपन के वो गीत

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    स्याही-कलम-दवात से, सजने थे जो हाथ ।
    कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ ।।
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    बैठे-बैठे जब कभी, आता बचपन याद ।
    मन चंचल करने लगे, परियों से संवाद ।।
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    मुझको भाते आज भी, बचपन के वो गीत ।
    लोरी गाती मात की, अजब-निराली प्रीत ।।
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    छीन लिए हैं फ़ोन ने, बचपन से सब चाव ।
    दादी बैठी देखती, पीढ़ी में बदलाव ।।
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    मूक हुई किलकारियां, चुप बच्चों की रेल ।
    गूगल में अब खो गए, बचपन के सब खेल ।।
    ●●●
    बचपन में भी खूब थे, कैसे-कैसे खेल ।
    नाव चलाते रेत में, उड़ती नभ में रेल ।।
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    यादों में बसता रहा, बचपन का वो गाँव ।
    कच्चे घर का आँगना, और नीम की छाँव ।।

    नहीं रही मैदान में, बच्चों की वो भीड़ ।
    बना लिए हैं फ़ोन में, उनने अपने नीड़ ।।

    सत्यवान सौरभ

  • मुरझाया है स्नेह

    मुरझाया है स्नेह

    बगिया सूखी प्रेम की, मुरझाया है स्नेह ।
    रिश्तों में अब तप नहीं, कैसे बरसे मेह ।।

    आकर बसे पड़ोस में, ये कैसे अनजान ।
    दरवाजे सब बंद है, बैठक हुई वीरान ।।

    बुझ पाए कैसे भला, ये नफरत की आग ।
    बस्ती-बस्ती गा रही, फूट-कलह के राग ।।

    खींच रहे हर रोज हम, नफरत की दीवार ।
    पनपे कैसे सोचिये, आपस में अब प्यार ।।

    भान प्रेम का है नहीं, ईर्ष्या आठों याम ।
    कैसे जीवन में मिले, ‘सौरभ’ सुख आराम ।।

    बड़े बात करते नहीं, छोटों को अधिकार ।
    चरण छोड़ घुटने छुए, कैसे ये संस्कार ।।

    सोच-कर्म अब है नहीं, धरती के अनुकूल ।
    ‘सौरभ’ कैसे अब खिले, रंग-बिरंगे फूल ।।

    चोर-उचक्के माफ़िये, बैठे जिस दरबार ।
    सच्चाई का फिर वहाँ, कैसे हो सत्कार ।।

    ये भी कैसा दौर है, कैसे सोच-विचार ।
    घड़ा कहे कुम्हार से, तेरा क्या उपकार ।।

    (सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। ) 

  • खाली है दरबार सब

    खाली है दरबार सब

    बस यूं ही बदनाम है, सड़क-गली-बाजार ।
    लूट रहे हैं द्रौपदी, घर-आँगन-दरबार ।।

    कोई यहाँ कबीर है, लगता कोई मीर ।
    भीतर-भीतर है छुपी, सबके कोई पीर ।।

    लाख चला ले आदमी, यहाँ ध्वंस के बाण ।।
    सर्जन की चिड़ियाँ करें, तोपों पर निर्माण ।।

    अगर विभीषण हो नहीं, कर पाते क्या नाथ ।
    सोने की लंका जली, अपनों के ही हाथ ।।

    एकलव्य जब तक करे, स्वयं अंगूठा दान ।
    तब तक अर्जुन ही रहे, योद्धा एक महान ।।

    देख सीकरी आगरा, ‘सौरभ’ है हैरान ।
    खाली है दरबार सब, महल पड़े वीरान ।।

    बन जाते हैं शाह वो, जिनको चाहे राम ।
    बैठ तमाशा देखते, बड़े-बड़े जो नाम ।।

    (सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। ) 

  • कब गीता ने ये कहा

    कब गीता ने ये कहा

    कब गीता ने ये कहा, बोली कहाँ कुरान ।
    करो धर्म के नाम पर, धरती लहूलुहान ।।

    पुण्य-धर्म को छोड़कर, करने लगे गुनाह ।
    ‘सौरभ’ लगे कठिन मुझे, अब आगे की राह ।।

    गैया हिन्दू हो गई, औ’ बकरा इस्लाम ।
    पशुओं के भी हो गए, जाति-धर्म से नाम ।।

    जात-धर्म की फूट कर, बदल दिया परिवेश ।
    नेता जी सब दोगले, बेचें …खायें…देश ।।

    भक्ति ईश की है यही, और यही है धर्म ।
    स्थान,जरूरत, काल के, करो अनुरूप कर्म ।।

    सब पाखंडी हो गए, जनता, राजा, संत ।
    सौरभ रोया देखकर, धर्म-कर्म का अंत ।।

    व्यर्थ पूजा पाठ है, व्यर्थ सभी कीर्तन ।
    नहीं कर्म में धर्म यदि, साफ़ नहीं है मन ।।

    जातिवाद और धर्म का, ये कैसा है दौर ।
    जय भारत,जय हिन्द में, गूँज रहा कुछ और ।।

    (सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )

  • देश बंधा है

    देश बंधा है

    देश बंधा है
    कंठ रुंधा है
    समय संकुचित
    प्राण प्रताड़ित

    मर्यादा मर्दित
    मन कलुषित
    तथाकथित अब
    यथाकथित

    षडयंत्रों का तंत्र है
    भ्रष्टाचार गुरुमंत्र है
    नैतिकता की बात है
    और नैतिकता पर घात है

    बिके हुए सब मन हैं
    बिके हुए जीवन हैं
    बिके सभी जंगल झरने
    बिकी आत्मा लगी मरने

    बिकना अब सम्मान है
    नीलामी अभिमान है
    सज्जनता का छद्म आवरण
    ओढे दुर्जन भगवान है

    देस मेरा रंगीन है
    और ईमानदार गमगीन है
    किसी समयकाल की सोचें
    तो अपराध ये संगीन है

    देश धरा का मोल भाव है
    धर्म इसका व्यभिचारी है
    सब मौज है रोज़ डकैती
    सरकारी है सरकारी है

    पुते रंग और खाल को डाले
    सियार संत समान है
    दीपक और तूफान कथा का
    नायक अब तूफान है

    डॉ. पीयूष जोशी

  • साल पचहत्तर बाद भी

    साल पचहत्तर बाद भी

    आज तुम्हारे ढोल से, गूँज रहा आकाश ।
    बदलेगी सरकार कल, होगा पर्दाफाश ।।

    जनता आपस में भिड़ी, चुनने को सरकार ।
    नेता बाहें डालकर, बन बैठे सरदार ।।

    जिनकी पहली सोच ही, लूट, नफ़ा श्रीमान ।
    पाओगे क्या सोचिये, चुनकर उसे प्रधान ।।

    कर्ज गरीबों का घटा, कहे भले सरकार ।
    ‘सौरभ’ के खाते रही, बाकी वही उधार ।।

    साल पचहत्तर बाद भी, देश रहा कंगाल ।
    जेबें अपनी भर गए, नेता और दलाल ।।

    लोकतंत्र अब रो रहा, देख बुरे हालात ।
    संसद में चलने लगे, थप्पड़-घूसे, लात ।।

    देश बांटने में लगी, नेताओं की फ़ौज ।
    खाकर पैसा देश का, करते सारे मौज ।।

    पद-पैसे की आड़ में, बिकने लगा विधान ।
    राजनीति में घुस गए, अपराधी-शैतान ।।

    भ्रष्टाचारी कर रहे, रोज नए अब जाप ।
    आंखों में आंसू भरे, राजघाट चुपचाप ।।

    जहां कटोरी थी रखी, वही रखी है आज ।।
    ‘सौरभ’ मुझको देश में, दिखता नहीं सुराज ।।

    (सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से।

  • बूँद-बूँद में सीख

    बूँद-बूँद में सीख

    इस धरती पर हैं बहुत, पानी के भंडार ।
    पीने को फिर भी नहीं, बहुत बड़ी है मार ।।

    जल से जीवन है जुड़ा, बूँद-बूँद में सीख ।
    नहीं बचा तो मानिये, मच जाएगी चीख ।।

    अगर बचानी ज़िंदगी, करें आज संकल्प ।
    जल का जग में है नहीं, कोई और विकल्प ।।

    धूप नहीं, छाया नहीं, सूखे जल भंडार ।
    साँसे गिरवी हो गई, हवा बिके बाजार ।।

    आये दिन होता यहां, पानी खर्च फिजूल ।
    बंद सांस को खुद करें, बहुत बड़ी है भूल ।।

    जो भी मानव खुद कभी, करता जल का ह्रास ।
    अपने हाथों आप ही, तोड़े जीवन आस ।

    हत्या से बढ़कर हुई, व्यर्थ गिरी जल बूँद ।
    बिन पानी के कल हमीं, आँखें ना ले मूँद ।।

    नदियां सब करती रहें, हरा-भरा संसार ।
    होगा ऐसा ही तभी, जल से हो जब प्यार ।।

    पानी से ही चहकते, घर-आँगन-खलिहान ।
    धरती लगती है सदा, हमको स्वर्ग समान ।।

    बाग़, बगीचे, खेत हों, घर या सभी उद्योग ।
    जीव-जंतु या देव को, जल बिन कैसा भोग ।।

    पानी है तो पास है, सब कुछ तेरे पास ।
    धन-दौलत से कब भला, मिट पाएगी प्यास ।।

    जल से धरती है बची, जल से है आकाश ।
    जल से ही जीवन जुड़ा, सबका है विश्वास ।।

    अगर बचानी ज़िंदगी, करें आज संकल्प ।
    जल का जग में है नहीं, कोई और विकल्प ।।

    (सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )

  • गांव  बेचकर शहर खरीदा , कीमत बड़ी चुकाई है

    गांव बेचकर शहर खरीदा , कीमत बड़ी चुकाई है

    गांव बेचकर शहर खरीदा , कीमत बड़ी चुकाई है ।

    जीवन के उल्लास बेच के खरीदी हमने तन्हाई है ।
    बेचा है ईमान धरम तब , घर में शानो शौकत आई है । I

    संतोष बेच तृष्णा खरीदी , देखो कितनी मंहगाई है ।।
    बीघा बेच स्कवायर फीट , खरीदा ये कैसी सौदाई है ।

    संयुक्त परिवार के वट वृक्ष से , टूटी ये पीढ़ी मुरझाई है ।।
    रिश्तों में है भरी चालाकी , हर बात में दिखती चतुराई कहीं गुम हो गई मिठास , जीवन से कड़वाहट सी भर आई है ।।
    रस्सी की बुनी खाट बेच दी , मैट्रेस ने वहां जगह बनाई है ।

    अचार , मुरब्बे आज अधिकतर , शो केस में सजी दवाई है ।।
    माटी की सोंधी महक बेच के , रुम स्प्रे की खुशबू पाई है ।

    मिट्टी का चुल्हा बेच दिया , आज गैस पे कम पकी खीर बनाई है ।।
    पहले पांच पैसे का लेमनचूस था , अब कैडबरी हमने पाई है ।

    बेच दिया भोलापन अपना , फिर चतुराई पाई है ।
    सैलून में अब बाल कट रहे , कहाँ घूमता घर- घर नाई है ।

    कहाँ दोपहर में अम्मा के संग , गप्प मारने कोई आती चाची ताई है ।।
    मलाई बरफ के गोले बिक गये , तब कोक की बोतल आई है ।

    मिट्टी के कितने घड़े बिक गये , अब फ्रीज़ में ठंढक आई है ।।
    खपरैल बेच फॉल्स सीलिंग खरीदा , जहां हमने अपनी नींद उड़ाई है ।

    बरकत के कई दीये बुझा कर , रौशनी बल्बों में आई है ।।
    गोबर से लिपे फर्श बेच दिये , तब टाईल्स में चमक आई है ।

    देहरी से गौ माता बेची , अब कुत्ते संग भी रात बिताई है ।
    ब्लड प्रेशर , शुगर ने तो अब , हर घर में ली अंगड़ाई है ।।

    दादी नानी की कहानियां हुईं झूठी , वेब सीरीज ने जगह बनाई है ।
    बहुत तनाव है जीवन में ये कह के मम्मी ने भी दो पैग लगाई है ।

    खोखले हुए हैं रिश्ते सारे , कम बची उनमें कोई सच्चाई है ।
    चमक रहे हैं बदन सभी के दिल पे जमी गहरी काई है ।

    गाँव बेच कर शहर खरीदा , कीमत बड़ी चुकाई है ।।
    जीवन के उल्लास बेच के , खरीदी हमने तन्हाई है ।।

    सुमित सिंह 

  • दो-दो हिंदुस्तान

    दो-दो हिंदुस्तान

    लाज तिरंगे की रहे, बस इतना अरमान ।
    मरते दम तक मैं रखूँ, दिल में हिन्दुस्तान ।।

    बच पाए कैसे भला, अपना हिन्दुस्तान ।
    बेच रहे हैं खेत को, आये रोज किसान ।।

    आधा भूखा है मरे, आधा ले पकवान ।
    एक देश में देखिये, दो-दो हिन्दुस्तान ।।

    सरहद पर जांबाज़ जब, जागे सारी रात ।
    सो पाते हम चैन से, रह अपनों के साथ ।।

    हम भारत के वीर हैं, एक हमारा राग ।
    नफरत गैरत से हमें, जायज से अनुराग ।।

    खा इसका, गाये उसे, ये कैसे इंसान ।
    रहते भारत में मगर, अंदर पाकिस्तान ।।

    भारत माता रो रही, लिए हृदय में पीर ।
    पैदा क्यों होते नहीं, भगत सिंह से वीर ।।

    भारत माता के रहा, मन में यही मलाल ।
    लाल बहादुर-सा नहीं, जन्मा फिर से लाल ।।

    मैंने उनको भेंट की, दिवाली और ईद ।
    जान देश के नाम जो, करके हुए शहीद ।।

    घोटालों के घाट पर, नेता करे किलोल ।
    लिए तिरंगा हाथ में, कुर्सी की जय बोल ।।

    आओ मेरे साथियों, कर लें उनका ध्यान ।
    शान देश की जो बनें, देकर अपनी जान ।।

    (सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )