ऋषि तिवारी
नोएडा। भारत सरकार से सम्मानित नोएडा के कवि व लेखक पंडित साहित्य कुमार चंचल को शिमला हिमाचल में 27 मई को आयोजित होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में काव्य पाठ हेतु संस्कृति मंत्रालय की चयन समिति द्वारा चयनित किया गया है। गौरतलब है कि संस्कृति मंत्रालय स्वर धरोहर फेस्टिवल के बैनर तले पूरे देश के अलग-अलग प्रांतों में विगत वर्षों से सांस्कृतिक व साहित्यिक कार्यक्रम करता आ रहा है। जिसके अंतर्गत देश के चुनिंदा कलमकारों का चयन किया जाता है। नोएडा शहर के लिए बड़े ही गर्व की बात है कि नोएडा के रहने वाले पंडित साहित्य कुमार चंचल गत वर्ष भी जून में संस्कृति मंत्रालय द्वारा आयोजित कवि सम्मेलन में झांसी के ऐतिहासिक रानी लक्ष्मीबाई किले की प्राचीर से अपनी कविताओं के माध्यम से दहाड़ लगा चुके हैं। इस वर्ष भी पूरे देश में आयोजित कार्यक्रमों की सूची में 27 मई को शिमला हिमाचल में होने वाले अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के लिए काव्य पाठ हेतु चंचल सहित 14 कवि व शायर रचनाकारों को चयनित किया गया है। पंडित साहित्य चंचल जनवादी व सामाजिक चेतना के कवि होने के साथ-साथ भारत सरकार में जन सूचना अधिकारी के रूप में राजपत्रित अधिकारी रह चुके हैं।
Category: साहित्य
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कवि पंडित साहित्य कुमार चंचल का अखिल भारतीय कवि सम्मेलन में हुआ चयन
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तितली है खामोश : युगबोध का यथार्थ चित्रण
पुस्तक का नाम : तितली है खामोश
लेखक : सत्यवान ‘सौरभ’
लेखकीय पता : परी वाटिका, कौशल्या भवन,
बड़वा (सिवानी) जिला भिवानी, हरियाणा – 127045
मोबाइल : 9466526148
विधा : दोहा
प्रकाशक : हरियाणा साहित्य अकादमी,
पंचकूला ( हरियाणा )
संस्करण : 2021
मूल्य : ₹ 200/-
पृष्ठ संख्या : 124
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तितली है खामोश : युगबोध का यथार्थ चित्रण
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श्री सत्यवान ‘सौरभ’ हरियाणा के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं जिन्होंने गीत, ग़ज़ल, कविता, दोहे आदि अनेक साहित्यिक विधाओं के साथ ही विपुल मात्रा में विभिन्न विषयों पर लेखों का सृजन किया है। श्री सत्यवान ‘सौरभ’ वर्तमान में हरियाणा सरकार के चिकित्सा विभाग में वेटरनरी इंस्पेक्टर हैं। आजीविका की व्यस्तताओं के उपरांत भी वे अंग्रेजी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं में समान्तर लेखन कर रहे हैं। देश विदेश की सैंकड़ों पत्रिकाओं में उनकी रचनाओं का निरन्तर प्रकाशन हो रहा है।’ तितली है खामोश’ दोहा संग्रह, उनकी दूसरी प्रकाशित पुस्तक है जिसमें वर्ष 2005 से 2021 के बीच सोलह सालों में लिखे गए दोहों का संग्रह है। उनकी पहली पुस्तक ‘यादें’ सोलह वर्ष की आयु में प्रकाशित हुई थी। दूसरी पुस्तक के इतनी देरी से आने का कारण लेखक ने यह बताया है कि इस अन्तराल में उसने अपने कृतित्व को जिया और भोगा है।
हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ में अठहत्तर शीर्षकों में विभक्त सात सौ पच्चीस दोहे हैं। इसके अतिरिक्त ‘उपहार’ शीर्षक में जीवन संगिनी श्रीमती प्रियंका सौरभ को समर्पित दो दोहे और ‘बुरे समय की आंधियां’ शीर्षक से सात अतिरिक्त दोहे हैं। श्री सत्यवान ‘सौरभ’ का यह पुस्तक अपने माता-पिता श्रीमती कौशल्या देवी एवं रामकुमार गैदर के साथ ही अपने सास-ससुर श्रीमती रौशनी देवी और सुमेर सिंह उब्बा को समर्पित करना, उनके कवि मन की विशालता एवं निर्मलता को दर्शाता है। कवि अपने माता-पिता के साथ ही पत्नी के माता-पिता को भी समान महत्त्व प्रदान करता है। कवि की पत्नी को सम्मान प्रदान करने की यह भावना स्तुत्य एवं अनुकरणीय है। यह सोच ही नारी सशक्तीकरण की आधारशिला है।
‘तितली है खामोश’ कृति के दोहे कवि के व्यक्तिगत जीवन के साथ ही सामाजिक जीवन के अनुभवों का यथार्थ चित्रण करते हैं। इन दोहों में विषय की विविधता है। जीवन के विविध पक्षों पर कवि ने मौलिक दृष्टि से चिन्तन किया है। जीवन की तमाम विसंगतियों के बीच भी कवि का स्वर आशावादी है। ‘आशाओं के रंग’ शीर्षक के इस दोहे में कवि कठिन परिस्थितियों में भी साहस से काम लेने का प्रेरणादायक संदेश देते हुए कहता है –
“छाले पाँवों में पड़े, मान न लेना हार।
काँटों में ही है छुपा, फूलों का उपहार।।” (पृष्ठ 1)
‘सहमा – सहमा आज’ शीर्षक के दोहों में कवि ने आज के समय की विसंगतियों का चित्रण किया है। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए कवि का कहना है –
” दफ्तर थाने कोर्ट सब, देते उनका साथ।
नियम-कायदे भूलकर, गर्म करे जो हाथ।।” (पृष्ठ 6)
‘सत्य भरे सब तथ्य’ शीर्षक के अन्तर्गत इस दोहे में कवि सच्चाई की दुर्दशा पर व्यथित होकर कह उठता है –
“‘सौरभ’ कड़वे सत्य से, गए हजारों रूठ।
सीख रहा हूँ बोलना, अब मैं मीठा झूठ।। ” (पृष्ठ 9)
‘ पंछी डूबे दर्द में ‘ शीर्षक के अन्तर्गत दिए गए दोहों में समाज में आए बदलावों का सजीव वर्णन है। अब न तो पहले जैसे प्रेमी व्यक्ति रहे और न ही पहले जैसा वातावरण। संवेदनाओं का क्षरण वर्तमान समय की त्रासदी है। समीक्ष्य कृति का नामकरण ‘तितली है खामोश’ जिस दोहे के आधार पर किया गया है, उसमें कवि इसी पीड़ा को उकेरता हुआ कहता है –
” सूनी बगिया देखकर, तितली है खामोश।
जुगनू की बारात से, गायब है अब जोश।।” (पृष्ठ 30)
आज तथाकथित धर्म मानव को जोड़ने के स्थान पर उसे एक – दूसरे से पृथक करने का कार्य कर रहे हैं। ‘जात – धर्म की फूट’ शीर्षक के अन्तर्गत इस तरह के भेद-भाव पर कवि निर्भय होकर कहता है –
” गैया हिन्दू हो गई, औ’ बकरा इस्लाम।
पशुओं के भी हो गए, जाति – धर्म से नाम।।” (पृष्ठ 50)
बचपन, जीवन का स्वर्णिम काल होता है। यह समय बच्चों के लिए पढ़ – लिखकर अपना भविष्य सँवारने का होता है। किन्तु विडम्बना है कि बचपन के इस अनमोल समय में कुछ बच्चे कूड़ा – करकट बीनकर अपना पेट पालने के लिए विवश हैं । ‘बचपन के वो गीत’ शीर्षक वाले इस दोहे में कवि का कहना है –
” स्याही कलम दवात से, सजने थे जो हाथ।
कूड़ा – करकट बीनते, नाप रहे फुटपाथ।।” (पृष्ठ 74)
मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने में ही जीवन का सार है। जब धन के कारण मन बँटने लगता है तो सब कुछ उजड़ा- उजड़ा लगने लगता है। सब कुछ होते हुए भी मन खिन्न रहता है। ‘बाँटे मन के खेत’ शीर्षक में सम्मिलित इस दोहे में कवि का यह कहना बिल्कुल सही है –
“जब दौलत की लालसा, बाँटे मन के खेत ।
ठूँठा – ठूँठा जग लगे, जीवन बंजर रेत।।” (पृष्ठ 104)
उक्त कतिपय उदाहरणों से स्पष्ट है कि श्री सत्यवान ‘सौरभ’ एक संवेदनशील रचनाकार हैं, जिन्होंने अपने भोगे हुए यथार्थ को यथातथ्य अभिव्यक्त किया है। समीक्ष्य कृति के सभी दोहे हृदयग्राही एवं सरस हैं। एक – एक दोहा पाठक के मन और मस्तिष्क को झकझोरता हुआ युगीन सत्य से परिचित कराता है। कवि का कथन पाठक को अपनी ही भावाभिव्यक्ति लगता है। इन दोहों में काव्य सौन्दर्य के साथ ही भावों का सफलतापूर्वक संप्रेषण और भाषागत प्रवाह दर्शनीय है।
‘तितली है खामोश’ दोहा संग्रह के दोहों की भाषा आमजन की भाषा है। भावों के अनुरूप भाषा का प्रयोग सम्प्रेषणीयता को और भी प्रभावशाली बनाता है। कबीर की तरह कवि की भाषा – शैली आडम्बर से मुक्त है। दोहों में मुहावरों और अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग देखते ही बनता है। आकर्षक आवरण और त्रुटि रहित मुद्रण कृति की सुन्दरता को द्विगुणित करते हैं। कृति की स्तरीय विपुल सामग्री, पाठक को आत्मसंतुष्टि देने के साथ ही उसकी चेतना को चिन्तन के नये आयाम प्रदान करती है। यह कृति कविवर श्री सत्यवान ‘सौरभ’ को साहित्य जगत में स्थापित करने के लिए निश्चित रूप से सहायक सिद्ध होगी।प्रस्तुति : सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’
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पश्चाताप’ जो पीछा नहीं छोड़ रहा! प्रोफेसर राजकुमार जैन.
1968 मे इंदौर में ‘समाजवादी युवजन सभा’ (सोशलिस्ट नौजवानों का संगठन) का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित थाl जिसमें समाजवादी चिंतक, नेता किशन पटनायक अध्यक्ष तथा भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री श्री जनेश्वर मिश्रा महामंत्री चुने गए थे। राष्ट्रीय समिति का सदस्य बनने का गौरव मुझे भी हासिल हुआ था। उस अधिवेशन की कई बातें इतने बरस बीत जाने के बावजूद मेरे दिमाग में मौजूद है। मरहूम भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय जो उस समय सोशलिस्ट पार्टी में थे, संगठन में उनको पहले संयुक्त मंत्री बनाने की सूचना दी गई परंतु न जाने क्या हुआ उनकी जगह बनारस के साथी शिवदेव नारायण को संयुक्त सचिव घोषित कर दिया गया। साथी कल्पनाथ राय बड़े कुपित हुंए। सम्मेलन खत्म होने के बाद दिल्ली आने का किराया नहीं था मैं और साथी सत्यपाल मलिक (भूतपूर्व गवर्नर) दोनों उस समय मध्य प्रदेश सरकार की संविद सरकार में मंत्री, आरिफ बेग जो की सोशलिस्ट कोटे से बने थे, इंदौर के रहने वाले थे, उनके घर गए कि उनसे किराया लिया जाए। परंतु जाने पर पता लगा कि वे तो भोपाल गए हुए हैं। सोशलिस्ट पार्टी और समाजवादी युवजन सभा के सम्मेलनों, सभाओं, शिवरो में शिरकत करते वक्त साथी लोग एक तरफ का किराया जुटा कर वहां पहुंच जाते थे। वापसी की चिंता नहीं होती थी। जुगाड़ बन ही जाता था।
1970 में पुणे में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन था। वापस लौटते समय मुंबई के रेलवे स्टेशन पर दिल्ली आने वाली ट्रेन में अलग डिब्बो में मैं और किशन जी आ रहे थे। रेलवे स्टेशन पर किशन जी ने मुझसे पूछा कि राजकुमार,क्या कुछ पैसे तुम्हारे पास हैं, मैंने मना कर दिया हालांकि मेरी मेरे पास 20 रुपए थे। दिल्ली आने पर मुझे महसूस हुआ की रेलवे स्टेशन पर किशन जी ने मुझसै पैसे क्यों मांगे? मुझे एहसास हुआ कि शायद रास्ते में खाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे, भूखे ही उनको दिल्ली आना पड़ा, ज्योंही यह बात मेरे जहन में आई, मैं पश्चाताप से भर गया, और आज तक भी वह मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा। हालांकि मैंने उससे पीछा छुड़ाने के लिए 1974 में ज्योहि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक नियुक्त हुआ, उसके बाद शायद ही ऐसा कोई मौका होगा जब किशन जी दिल्ली में आए हो तो मैंने चंद पानफुल लिफाफे में रखकर अर्पित न किए हो। दिल्ली आने से पहले किशन जी एक पोस्टकार्ड लिखकर आने की सूचना दे देते थे। किशन जी जैसा खुद्दार, उसूलों पर चट्टान की तरह अडिग, किसी भी कीमत पर किसी प्रकार का समझौता न करने के जिद्दी इंसान की कई बातें मेरे मानस पर आज भी अंकित है। 1977 के लोकसभा चुनाव में किशन जी उड़ीसा के अपने पुराने निर्वाचन क्षेत्र जहां से वह संसद सदस्य रह चुके थे, संबलपुर से चुनाव लड़ना चाहते थे, परंतु वे जनता पार्टी के सदस्य के रूप में नहीं जनता पार्टी का समर्थन चाहते थे। हालांकि यह मसला कुछ अटपटा था। मैं उड़ीसा के सबसे बड़े नेता बीजू पटनायक जी से इस सिलसिले में मिला और कहा की किशन जी जैसा सोशलिस्ट कभी जनता पार्टी के खिलाफ किसी दूसरे खेमे की तरफदारी नही करेगा। बीजू पटनायक आदत के मुताबिक भड़क गए, कहा सिंबल क्यों नहीं लेंगे, यह नहीं हो सकता। किशन जी ने जनता पार्टी का सिंबल लेने से मना कर दिया। उस वक्त जनता पार्टी के टिकट पर लड़ने का मतलब था, सीधे लोकसभा का सदस्य बनना। यह केवल किशन जी ही कर सकते थे। तमाम उम्र लोहिया की डुगडुगी बजाने, सोशलिस्ट विचारों के प्रचार प्रसार नई पीढ़ी को सोशलिस्ट विचारधारा में रंगने में हर प्रकार की परेशानियां कठिनाईयो को सहकर अपनी जिंदगी गुजार दी।
परंतु मेरी आफत आज भी है, जब कभी मुंबई के रेलवे स्टेशन का ध्यान आ जाता है तो पश्चाताप मेरा पीछा करने लग जाता है। -
26 नवंबर को तैयार किया गया संविधान, फिर 26 जनवरी को क्यों लागू किया गया ?
गणतंत्र दिवस यानि Republic Day हमारे देश का national festival है, जिसे 26 जनवरी को पूरे देश में बहुत धूमधाम से मनाया जाता है. इस दिन हमारे देश का संविधान लागू हुआ था. लेकिन क्या आपको पता है कि हमारे देश का संविधान 26 नवंबर 1949 में ही बनकर तैयार हो गया था, फिर इसे लागू करने के लिए 26 जनवरी की तारीख का इंतजार क्यों किया गया?
संविधान को लागू करने के लिए 26 जनवरी की तारीख का चुनाव करने के पीछे एक खास वजह है. बहुत कम लोग जानते हैं कि देश में पहली बार स्वतंत्रता दिवस 26 जनवरी 1930 को मनाया गया था. दरअसल 31 दिसंबर, 1929 को कांग्रेस के लाहौर session में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक प्रस्ताव पारित हुआ था. इस प्रस्ताव में यह मांग की गई थी कि अगर ब्रिटिश सरकार ने 26 जनवरी 1930 तक भारत को डोमीनियन स्टेट का दर्जा नहीं दिया तो भारत को पूर्ण स्वतंत्र घोषित कर दिया जाएगा. इसके बाद पहली बार स्वतंत्रता दिवस 26 जनवरी, 1930 को मनाया गया और इस दिन तिरंगा भी फहराया गया था. तभी से 26 जनवरी की तारीख देशवासियों के लिए काफी महत्वपूर्ण हो गई थी. जब देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ तो officially स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को मनाया गया. लेकिन 26 जनवरी की तारीख को यादगार बनाने के लिए 26 जनवरी का चुनाव संविधान लागू करने के लिए किया गया. यही कारण है कि 26 नवंबर, 1949 में संविधान बन जाने के बाद भी दो महीने इंतजार किया गया और 26 जनवरी 1950 में इसे लागू किया गया.गणतंत्र दिवस से जुड़े कुछ interesting facts
1- 26 जनवरी, 1929 को Indian National Congress ने भारतीय स्वराज की घोषणा की थी. इसलिए भारत का संविधान लागू करने के लिए भी 26 जनवरी की तारीख को चुना गया था. जिस दिन संविधान पर हस्ताक्षर किए जा रहे थे, उस दिन जोरदार बारिश हो रही थी। इसे शुभ संकेत भी माना गया था।
2- जनवरी 1948 में भारत के संविधान का पहला प्रारूप चर्चा के लिए प्रस्तुत किया गया. 4 नवंबर, 1948 को चर्चा शुरू हुई और 32 दिनों तक चली. इस दौरान 7,635 संशोधन प्रस्तावित किए गए, जिनमें से 2,473 पर विस्तार से चर्चा हुई. संविधान को अंतिम रूप देने में 2 साल, 11 महीने और 18 दिनों का समय लगा था.
3- संविधान को बनाने के लिए डॉ. B. R. अम्बेडकर की अध्यक्षता में एक मसौदा समिति नियुक्त की गई थी. मसौदा समिति का अंतिम सत्र 26 नवंबर 1949 को समाप्त हुआ और सभी की सहमति से संविधान को अपनाया गया. 26 जनवरी 1950 को इसे देश में लागू किया गया.
4- 26 जनवरी को परेड के दौरान राष्ट्रपति को 21 तोपों की सलामी दिए जाने की प्रथा है. 21 तोपों की सलामी भारतीय सेना की 7 तोपों से दी जाती है जिन्हें ’25 पाउंडर्स’ कहा जाता है. पहली सलामी राष्ट्रगान शुरू होते ही दी जाती है और आखिरी सलामी ठीक 52 सेकंड बाद दी जाती है.
5- संविधान की original copy को हिंदी और इंग्लिश में प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने लिखा था. इसे लिखने में उन्हें पूरे छह महीने का वक्त लगा था. इस काम के लिए भारत सरकार द्वारा Constitution House में उनको एक कमरा allot किया गया था.
6- प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने संविधान लिखने के लिए सरकार से कोई भी मेहनताना नहीं लिया था. बस एक मांग की थी कि वे संविधान के हर पेज पर अपना नाम लिखेंगे और आखिरी पेज पर अपने साथ अपने दादा जी का भी नाम लिखेंगे.
7- भारत का संविधान दुनिया का सबसे लंबा और detailed संविधान है. संविधान के हर पेज को प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने खूबसूरत लिखावट और इटैलिक में लिखा है. जब संविधान लागू हुआ, तब इसमें कुल 395 Article , 8 acts थे और यह संविधान 22 भागों में बंटा हुआ था.
8- 26 जनवरी की परेड के दौरान हर साल किसी न किसी देश के राष्ट्राध्यक्ष यानि head of state को अतिथि के तौर पर बुलाया जाता है. 26 जनवरी 1950 को आयोजित पहली परेड में guest के रूप में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति डॉ. Sukarno को आमंत्रित किया गया था.
9- 1950 से 1954 तक गणतंत्र दिवस इरविन स्टेडियम (जिसे अब नेशनल स्टेडियम कहा जाता है), Kingsway, लाल किला और रामलीला मैदान तक आयोजित किया जाता था. 1955 से गणतंत्र दिवस programme राजपथ पर आयोजित किया जाने लगा. 1955 में राजपथ पर आयोजित पहले परेड में guest के रूप में पाकिस्तान के गवर्नर जेनरल मलिक गुलाम मोहम्मद को आमंत्रित किया गया था.
10- गणतंत्र दिवस एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय त्योहार है जो 29 जनवरी को beating retreat programme के साथ समाप्त होता है.
11 – 26 जनवरी 1965 को हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा घोषित किया गया।
12. यूरोप, एशिया और अफ्रीका के ज्यादातर देशों में पहले world war के बाद महिलाओं को मतदान यानि वोट का अधिकार दिया गया है। न्यूजीलैंड दुनिया का पहला देश है जिसने 1893 में महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया और सऊदी अरब सबसे बाद में महिलाओं को वोट देने का अधिकार देने वाला देश है। सऊदी अरब में साल 2015 में महिलाओं को यह अधिकार मिला। फिनलैंड पहला यूरोपीय देश था जिसने महिलाओं को मताधिकार दिया, उसके बाद नॉर्वे का नंबर आया। फिर धीरे-धीरे दुनिया के अन्य देशों में भी महिलाओं को मताधिकार मिलने लगा।
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क्यों 23 जनवरी को मनाया जाता है पराक्रम दिवस?
23 जनवरी भारत के लिए कैलेंडर की सिर्फ एक तारीख नहीं है, बल्कि यह इतिहास में लिखा हुआ और दिलों में अंकित एक दिन है, जिसे पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत का इतिहास पराक्रमी सेना के वीर जवानों की कहानी से भरा रहा है । भारत का पराक्रम देख पूरी दुनिया सहम जाती है। ऐसे में सेना के सम्मान को बढ़ाने के लिए हर साल 23 जनवरी को पराक्रम दिवस मनाया जाता है। पराक्रम दिवस को भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्म जयंत के रूप में मनाया जाता है। हालांकि पहले उनके जन्म दिवस के मौके पर किसी तरह का आयोजन नहीं किया जाता था लेकिन भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2021 में इस दिन को खास बनाने का ऐलान करते हुए हर साल पराक्रम दिवस मनाने की घोषणा की।
पराक्रम दिवस मनाकर पूरा देश नेताजी सुभाष चंद्र बोस को नमन करता है और उनके योगदानों को याद करता है। सुभाष चंद्र बोस ने भारत की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आजादी के जंग में उनका ओजस्वी नारा ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ ने पूरे देश में हर भारतीय के खून में उबाल ला दिया था और आजादी की जंग में एक नई जान फूंक दी थी। भारत माता के इसी वीर सपूत के जन्म दिवस को याद करते हुए हम पराक्रम दिवस मनाते हैं। इस दिन स्कूल कॉलेज में नेताजी को लेकर नाटक का भी आयोजन किया जाता है। वहीं बच्चों को नेताजी के जीवन और उनके स्पीच के बारे में जानकारी दी जाती है। जिसकी मदद से वह अपने भविष्य की राह आसान बनाते हैं।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक, ओडिशा में हुआ था। वह एक राजनीतिक पकड़ वाले नेता थें जो देश की आजादी के लिए साहसिक और निर्णायक कदम उठाने में विश्वास रखते थे। उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) के गठन में उनके योगदान के लिए याद किया जाता है, जिसने भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपना पूरा जीवन भारत की आजादी के लिए समर्पित कर दिया था। उनका जीवन भारत के युवाओं के लिए एक आदर्श की तरह है। उन्होंने आजादी की जंग में शामिल होने के लिए भारतीय प्रशासनिक सेवा को छोड़ दिया था और इंग्लैंड से भारत वापस लौट आए थे। भारत में स्वतंत्रता आदोलन की लड़ाई को तेज करने के लिए उन्होंने आजाद हिंद सरकार, आजाद हिंद फौज और आजाद हिंद बैंक का बनाया था। उन्हें इसमें कई देशों का साथ भी मिला था। आजादी के जंग में उनकी इसी जज्बे को याद करते हुए हर साल पराक्रम दिवस देश में मनाया जाता है ।
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विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) से अलंकृत हुए डॉ. सत्यवान सौरभ एवं प्रियंका सौरभ
(‘विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ’ ने हरियाणा के भिवानी जिले के युवा दम्पति को विधावाचस्पति उपाधि से किया सम्मानित, क्षेत्र वासियों में खुशी की लहर)
नई दिल्ली/चंडीगढ़/हिसार/भिवानी/भागलपुर । राष्ट्रभाषा हिन्दी व लोक भाषाओं के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए समर्पित भागलपुर की विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ अपने स्थापना काल से ही हिन्दी और हिन्दी साहित्य की सहायक बोलियों व उप बोलियों के प्रचार-प्रसार हेतु निरंतर प्रयत्नशील है। भारतीय लोक साहित्य को हिंदी के माध्यम से प्रकाश में लाने की दिशा में विद्यापीठ की अहम् भूमिका रही है। इसी कड़ी में बीते 14 अप्रैल को पुरी अधिवेशन भव्यता के साथ सम्पन्न हुआ।
अधिवेशन के उद्घाटनकर्ता एवं वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ सुरेन्द्र प्रसाद सिंह ने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि सम्मान से व्यक्ति का मान बढ़ता है और अपमान से व्यक्ति का व्यक्तित्व संकुचित होता है। उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य सहित अन्य भारतीय भाषाओं के सारस्वत साधकों को सम्मानित कर प्रमाण पत्र एवं मानद उपाधि प्रदान करने का सिलसिला जारी है; ताकि उनका मनोबल बढ़े और आए दिन हिंदी और हिंदी की सहायक भाषाओं के ज्वलंत मुद्दों, विषयों, शोध परक कार्यों एवं सामाजिक साहित्यिक सेवा कर्तव्यों पर आधारित संगोष्ठी, शिविर, कार्यशाला ,अनुष्ठान सभा प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन संचालन एवं शिक्षण प्रशिक्षण का आयोजन होता रहे।
इस दिशा में भी भागलपुर की विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ प्रयत्नशील है। विद्यापीठ की स्थापना का उद्देश्य कला ,साहित्य और संस्कृति का उन्नयन करना है। हरियाणा के भिवानी जिले अंतर्गत सिवानी उपमंडल के गाँव बड़वा निवासी और देश के चर्चित युवा लेखक एवं हिन्दी के लिए समर्पित दम्पति डॉ सत्यवान सौरभ एवं प्रियंका सौरभ को अधिवेशन के सम्मानोपाधि अर्पण सत्र में विद्यावाचस्पति की मानद उपाधि से अलंकृत किया गया। यह उपाधि पीएचडी के समतुल्य होती है। यह उपाधि श्री सौरभ दम्पति को उनके हिन्दी के प्रति समर्पण और सुदीर्घ सेवा को ध्यान में रखते हुए प्रदान की गई है।
श्री सौरभ दम्पति के अवदानों को देखते हुए विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ भागलपुर ने 14 अप्रैल को अपने दीक्षांत समारोह में ‘विद्यावाचस्पति’ (पीएच.डी.) की मानद उपाधि प्रदान की। इस उपाधि को विद्यापीठ के कुलाधिपति सुमन जी भाई, कुलपति तेज नारायण कुशवाहा, कुलसचिव देवेन्द्र नाथ साह, अधिष्ठाता योगेन्द्र नारायण शर्मा ‘अरूण’ तथा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सदस्य के.डी. मिश्र के हाथों प्रदान किया गया। डॉ सत्यवान सौरभ एवं प्रियंका सौरभ को विद्यावाचस्पति की मानद उपाधि मिलने पर विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ के कुलपति तेज नारायण कुशवाहा समेत देश भर के हजारों लोगों ने उन्हें बधाई और शुभकामनाएं दी है।
क्या है विद्या वाचस्पति उपाधि
विद्या वाचस्पति की उपाधि डॉक्टरेट के समकक्ष मानी जाती है। यह उपाधि साहित्य के क्षेत्र में बेहतर और उल्लेखनीय कार्यों के लिए दी जाती है। देश में भागलपुर स्थित विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ एकमात्र ऐसी संस्था है जो विद्या वाचस्पति की मानद उपाधि प्रदान करती है। उपाधि मिलने के बाद संबंधित साहित्यकार या कवि अपने नाम के आगे डॉ. लिखने का पात्र हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जैसे पीएचडी उपाधि के बाद व्यक्ति डॉ. लिखता है।
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Bharat : वेदों की भाषा अलंकारिक है जिसको पुराणकारों ने वास्तविक संदर्भ और उचित में ना लेकर अनर्थ किया है
देवेंद्र सिंह आर्य
वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ है।
वेद अपौरुषेय है।
वेदों में नदियों ,पहाड़ों, राजाओं के नाम नहीं है।
वेदों में राजाओं का कोई इतिहास नहीं है।
वेदों में किसी भी राजा की वंशावली नहीं है।
वेदों की भाषा अलंकारिक है जिसको पुराणकारों ने वास्तविक संदर्भ और उचित में ना लेकर अनर्थ किया है और इतिहास होने का भ्रम पैदा किया है।पुराण वेदों की अपेक्षा अर्वाचीन हैं।
पुराणकार ऋषि नहीं थे।
पुराणों में कुछ ऐतिहासिक तथ्य अवश्य है परंतु पूर्णतः सत्य नहीं है।आर्यों का यह अटूट विश्वास है कि आदि सृष्टि के समय मनुष्य को परमात्मा की ओर से ज्ञान की प्रेरणा हुई ।वही ज्ञान वेद है, परंतु वेदों की इतनी लंबी प्राचीनता पर, उनकी आदिकालीनता पर तथा अपौरुषेयता पर अनेक विद्वानों को विश्वास नहीं है। वे कहते हैं कि वेदों में जिन ऐतिहासिक नामों का उल्लेख पाया जाता है और ज्योतिष संबंधी जिन घटनाओं के संकेत पाए जाते हैं उनसे वेदों का समय प्राचीनतम पुस्तक के संबंध में सिद्ध नहीं होता ।परंतु इस आरोप में कोई बल नहीं है क्योंकि वेदों में ऐतिहासिक अथवा ज्योतिष संबंधी किसी भी घटना का उल्लेख नहीं है। जिससे वेदों की आदिकालीनता पर यह आक्षेप किया जा सके। क्योंकि आर्यों की लिखित सभ्यता बहुत अधिक प्राचीन प्रमाणित है। जो यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने सम्राट चंद्रगुप्त के समय में स्वयं अपनी पुस्तकों में उल्लेख किया है।
लेकिन यह सत्य है कि वेदों में ऐतिहासिक राजाओं का वर्णन नहीं है और न वेदों में किसी ज्योतिष की घटना का उल्लेख है। वेदों से इस प्रकार का समय निश्चित करने का अवसर पुराण वालों ने ही दिया है क्योंकि पुराणों ने राजाओं की नामावलियों को वंशावली बनाकर और वैदिक अलंकारों को राजाओं के इतिहास के साथ जोड़कर ऐसा झंझट पैदा कर दिया है कि क्या वेदों में किसी इतिहास या ज्योतिष घटना का उल्लेख है।
पुराणों में जो वंशावलियां दी हुई है उनको दो विभागों में विभाजित कर सकते हैं ।पहला विभाग महाभारत युद्ध से उस पार का है और दूसरा विभाग इस पार का है। पहला विभाग वंशावली नहीं प्रत्युत नामावली है पहला विभाग अत्यंत प्राचीन है उसके संबंध में साहित्य की उपलब्धता न्यूनतम है। इसलिए वह इस स्मृति एवं श्रवण से परे है। उपरोक्त के अतिरिक्त दूसरा विभाग वंशावली है।
ऐसी 10 __ 20 नामों से बनी हुई उल्टी-सीधी साधारण सूचियों से आर्यों का, मवन्तरों का और वेदों का इतिहास निकालना भला कैसे ठीक हो सकता है?
इसलिए पौराणिक वन्शावलियों को नामावलियां ही समझना चाहिए क्योंकि पौराणिक वंशावली या जिन प्राचीन नामावलीयों के आधार पर बनी हैं उनके कुछ उदाहरण अब तक ब्राह्मण ग्रंथों में पाए जाते हैं।
और वे नाम केवल चक्रवर्ती राजाओं के मिलते हैं। उसमें पूरे वंश का उल्लेख ही नहीं है। इसलिए उनको वंशावली नहीं कह सकते बल्कि जहां- तहां जिस वन्श में जो चक्रवर्ती सम्राट अथवा सार्वभौम राजाओं के मात्र नाम दिए हुए हैं इसलिए नामावली कहेंगे। यह सभी नाम महाभारत से उस पार के हैं दूसरा विभाग जो महाभारत से इस पार का है उसमें चार वंशावली बृहद्रथ वंश से आरंभ होकर नन्द वंश तक की हैं। महर्षि दयानंद ने अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में महाभारत के पश्चात हुए आर्य राजाओं के नाम वंश क्रम में दिए हैं,जो ठीक हैं। सेस और वंशावलियां ही हैं। परंतु वेदों का समय उनसे अथवा आर्यों के किसी वंशावली से नहीं निकल सकता। चाहे वह महाभारत के इस पार की हों या उस पार की। इसका शुद्ध कारण यह है कि वेदों में इतिहास से संबंध रखने वाली कुछ भी सामग्री नहीं है।परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि वेदों में जो ऐतिहासिक सामग्री दिखती है उस ऐतिहासिक सामग्री का कारण भी पुराण हीं हैं।जिस प्रकार नामावलियों को वंशावली बनाकर पुराणों ने आर्यों के इतिहास की दीर्घकालीनता में संदेह उत्पन्न करा दिया है उसी प्रकार वेदों के चमत्कारपूर्ण अलंकारिक वर्णनों को ऐतिहासिक पुरुषों के साथ मिलाकर वेदों में इतिहास का भी भ्रम उत्पन्न करा दिया है ।पुराण कारों ने प्रयत्न तो यह किया था कि वेदों के चमत्कार पूर्ण वर्णन को ऐतिहासिक घटनाओं के साथ मिलाकर उनका रहस्य जनता तक भी पहुंचा दिया जाए जो वेदों की सूक्ष्म बातें नहीं समझ सकती।
“भारतव्यपदेशेन ह्याम्नायारथश्च दर्शित:”
(श्रीमद्भगवत एक / चार /29)इसका अर्थ है की पुराणों में भी भारत के इतिहास के विषय से वेदों का रहस्य खोला गया है। इसके कारण ही महाभारत में भी यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इतिहासपुराणाभ्याम वेदम समुपन्बृहयेत अर्थात इतिहास पुराणों में वेदों के मर्म का उद्घाटन करें। परंतु इस चातुर्य का फल यह हुआ कि लोग वेदों में ही पौराणिक इतिहास निकाल रहे हैं।
वे कहते हैं कि वेदों में पुरुरवा, आयु, नहुष, ययाति, वशिष्ठ, जमदग्नि, गंगा ,जमुना, अयोध अयोध्या, ब्रज और अरव आदि नाम है। इतना ही नहीं प्रत्युत वेदों में राजाओं के युद्ध का वर्णन भी बताते हैं । इससे सिद्ध होता है कि वेदों की यह ऐतिहासिक सामग्री वही है जिसका विस्तार पुराणों में किया गया है । परंतु पुराण कारों ने जो प्रयास किया था वह समाज के लिए उल्टा पड़ा और इससे समाज में केवल भ्रांतियां ही पैदा हुईं। इसलिए वेदों में इतिहास होने के इस आरोप में कुछ भी बल नहीं है। इससे वेदों में इतिहास सिद्ध नहीं होगा। इसका कारण यह है कि वेदों, ब्राह्मणों और पुराणों के सूक्ष्म अवलोकन से ज्ञात होता है कि संस्कृत के समस्त साहित्य में इतिहास से संबंध रखने वाले असंभव, संभवासंभव और संभव तीन प्रकार के वर्णन पाए जाते हैं। जो तीन भागों में विभाजित हैं। इसमें जितना भाग असंभव वर्णन से संबंध है वह वेद का है । और किसी न किसी चमत्कारिक अथवा जातिवाचक पदार्थ से संबंध रखता है ।किसी मनुष्य नगर, नदी और देश आदि व्यक्तिवाचक पदार्थ से नहीं ।परंतु जितना भाग संभवासंभव और संभव वर्णन से संबंध रखता है वह पुराण और ब्राह्मण ग्रंथों में ही आता है वेदों में नहीं।
उदाहरण के तौर पर कल्पना करो कि वेद ने किसी पदार्थ के लिए कोई चमत्कारिक वर्णन किया ।उधर ब्राह्मण काल में उसी नाम का कोई मनुष्य हुआ ।जिसका चरित्र साधारण मानुषी था ।अब कुछ काल बीतने पर किसी कवि ने पुराण काल में कल्पना की और कल्पना में दोनों प्रकार के वर्णन मिला दिए ।जो आगे चलकर यह सिद्ध करने की सामग्री बन गए कि दोनों एक ही है। ऐसी दशा में यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कितना भाग ऐतिहासिक है और कितना आलंकारिक।
संस्कृत साहित्य में इस विषय के अनेक प्रमाण विद्यमान हैं। विश्वामित्र और मेनका वेद के चमत्कारिक पदार्थ हैं ।इधर दुष्यंत और शकुंतला मनुष्य हैं ।परंतु दोनों को एक में मिलाने से भरत को इंद्र के यहां जाना पड़ा। इंद्र भी चमत्कारिक पदार्थ है ।ऐसी दशा में भरत और दुष्यंत को मेनका और विश्वामित्र के साथ जोड़कर यही तो भ्रम करा दिया गया है कि वेदों में भरत के पूर्वजों का वर्णन है। परंतु यदि वेदों को खोलकर विश्वामित्र मेनका वाले मंत्रों को पढ़िए तो उसमें मानुषी वर्णन लेश मात्र भी नहीं मिलेगा। तो इंद्र के यहां जाने वाले वैदिक भरत का इस अलौकिक भरत से कोई संबंध न दिखेगा।
शांतनु की शादी गंगा से हुई ।इधर शांतनु के भीष्म हुए ।इनमें से पहला वर्णन वैदिक है। जो चमत्कारिक पदार्थों का है। जबकि दूसरा ऐतिहासिक है। किंतु एक में जोड़ देने से परिणाम यह हुआ है कि लोग भीष्म को गंगा नदी का पुत्र समझते हैं ।गंगा और शांतनु को मिलाकर वैदिक अलंकार बनता है। और सीधे-साधे शांतनु और सीधे-साधे भीष्म को लेकर सांसारिक इतिहास बनता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस दूसरे समुदाय का वर्णन बहुत ही ध्यानपूर्वक पढ़कर कहने योग्य है। हिंदुओं का चाहे जो इतिहास वेद में बतलाया जाए उसे देख लेना चाहिए कि उसमें कहीं चमत्कारी वर्णन तो नहीं है ।ऐसा करने से उसमें अपूर्वता मिलेगी और वह अमानुषी अथवा अपौरुषेय सिद्ध होगा।यह भ्रांति अथवा गलती कहां से शुरू हुई?
परंतु मध्यम कालीन कवियों और पुराणकारों ने वैदिक और ऐतिहासिक समान शब्दों के वर्ण व्यक्तियों का सम्मिलित वर्णन करके महान झंझट फैला दिया है। इसी से पूर्व पुरुषों की चमत्कारिक उत्पत्तियों के गुणों का क्रम चल पड़ा और यहीं से वेदों में ऐतिहासिक घटनाओं की मिथ्या भ्रांति होने लगी।
कहने का निष्कर्ष यह है कि प्रथम विभाग वाले चमत्कारिक वर्णन वेदों के हैं। और दूसरे विभाग के वर्णन का कुछ भाग वेदों का है और कुछ उस नाम के व्यक्तियों के इतिहासों का है ।जिससे आधुनिक कवियों ने एक में मिला दिया है। अतः संभव और असंभव की कसौटी से दोनों को पृथक
करके विभेद कर लेना चाहिए। निस्संदेह रूप से शेष तीसरे विभाग के व्यक्ति तो ऐतिहासिक है ही। इस प्रकार की छानबीन से वेदों में इतिहास का भ्रम निकल जाएगा।वेदों की अलंकारिक भाषा का अनुचित अध्ययन, अनुशीलन, परिशीलन एवं विश्लेषण।
राजाओं और नदियों आदि के वर्णन जो वेद में आए हैं वह सभी अलंकारिक हैं।
यथा वेदों में अनार्यों में वृत्र ,दनु ,सुश्न, शम्बर, बंगृद, बली, नमुचि, मृगय, अर्बुद प्रधान रूप से लिखे गए हैं। दनु के वंशीधर दानव थे जिनका कई स्थानों में वर्णन है । यह दोनों वृत्रासुर की माता थी। व्रतृ के 99 किले इंद्र ने तोड़े थे। 99 और 100 वृत्रों का कई स्थानों पर वर्णन आया है ।शम्बर और बंगृद के सौ किले ध्वस्त किए गए। शम्बर के किले पहाड़ी थे। और दिवोदास के कारण इंद्र ने उसे मारा था। दिवोदास सुदास के पिता थे ।इससे शम्बर का युद्ध 26 वीं शताब्दी संवत पूर्व का समझ पड़ता है। सुश्न का चलने वाला किला ध्वस्त हुआ। चलने वाले किले से जहाज का प्रयोजन समझ पड़ता है। पिप्र के 50,000 सहायक मारे गए। बली के 99 पहाड़ी किले थे। यह सभी जीते गए। सिवाय शम्बर के और सब का पूर्वापर क्रम ज्ञात नहीं है।
अनार्य के बाद आर्यों के नामों पर विचार करते हैं। जो वेदों में प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। आर्यों में ऋषियों के अतिरिक्त मनु ,नहुष, ययाति, इला, पुरुरवा, दिवोदास, मांधाता, दधीच, सुदाश, ययाति के यदु आदि पांचों पुत्र और पृथु की प्रधानता है।यदु जाति के यदु आदि पांचों पुत्रों के वर्णन कई स्थानों पर आए हैं। दिवोदास और सुदाश के सबसे अच्छे क्रमबद्ध वर्णन है। इस विषय में वशिष्ठ का सातवां मंडल बहुत उपयोगी है। इसके पीछे विश्वामित्र का तीसरा मंडल भी अच्छी घटनाओं से पूर्ण है ।दिवोदास तृत्सु लोगों के स्वामी थे। वैदिक समय में सूर्यवंशियों की संज्ञा तृत्सु थी ।ऐसा समझ पड़ता है। सुदास और उनके पुत्र कलमाषदास सूर्यवंशी थे। और पुराणों के अनुसार भगवान रामचंद्र का अवतार इन्हीं के पवित्र वंश में हुआ था। यही लोग वेद में तत्सु कहे गए हैं ।इन्हीं बातों से जान पड़ता है कि सूर्यवंशी उस काल में तत्सु कहलाए थे।एक कहानी के अनुसार वेदों में निम्न प्रकार भी आया, जिसको भ्रमवश, अज्ञानतावश इतिहास समझा गया है। उदाहरण के लिए देखें।
“राजा दिवोदास बहुत बड़े विजयी थे। इन्होंने तुर्वश,द्रहृयु और शम्बर को मारा और गंग लोगों को भी पराजित किया। नहुषवन्शी इनको कर देने लगे थे। इनके पुत्र सुदाष ने इनकी विजयों को और भी बढ़ाया। सुदास का युद्ध वैदिक युद्दों में सबसे बड़ा है। नहुषवन्शी यदु ,तुर्वश, अनु,दृहृयु के संतानों ने भारतों से मिलकर तथा बहुत से अनार्य राजाओं की सहायता लेकर सुदास को हराना चाहा। नहुषवन्शियों की सहायतार्थ भार्गव लोग परोदास, पकथ, भलान, अलिन ,शिव, विशात,कवम, युद्धामधि, अज, शिगरु और चक्षु आए और 21 जाति के वैकरण लोग भी पहुंचे। राजा वर्चिन एक बहुत बड़ी सेना लेकर इन का नेता हुआ। कितने ही सिम्यु लोग भी नहुषों की सहायतार्थ आए ।फिर भी नहुष वंश का मुख्य राजा पूरुवंशी इस युद्ध में सम्मिलित न हुआ ।नहुषों ने रावी नदी के दो टुकड़े करके एक नहर निकालकर नदी को पार करना चाहा ।किंतु सुदास ने तत्काल धावा बोल दिया ।जिससे गड़बड़ में नहुषों की बहुत सी सेना नदी में डूब मरी। कवष और बहुत से दृहृयुवंशी डूब गए ।वहां विकराल युद्ध हुआ। जिसमें सुदास ने अपने सारे शत्रुओं को पूर्ण पराजय दी ।अनु और दृहृयु वन्शियों के 66 वीर पुरुष और 6000 सैनिक मारे गए ।और आनवों का सारा सामान लूट लिया गया। जो सुदास ने तृत्सु को दे दिया ।सात किले भी सुदास के हाथ लगे और उन्होंने युद्धामधि को अपने हाथ से मारा। राजा वर्चिन के 100000 सैनिक युद्ध में मारे गए ।अज, शिगरु और चक्षु ने सुदास को कर दिया। इस प्रकार रावी नदी पर यह विकराल युद्ध समाप्त हुआ। सुदास ने तत्पश्चात यमुना नदी के किनारे भेद को पराजित करके उसका देश छीन लिया ।इस प्रकार भेद सुदास की प्रजा हो गया ।आर्यों का नागों से वेद में कोई युद्ध नहीं लिखा गया। केवल एक बार इतना लिखा हुआ है कि पेदु नामक वीर पुरुष के घोड़े ने बहुत से नागों को मारा ।इससे जान पड़ता है कि आर्यों का नागौं से कोई छोटा सा युद्ध हुआ था। विश्वामित्र ने अपने मंडल में भारतीयों का वर्णन बहुत सा किया है। इन लोगों की नहुसों से एकता सी समझ पड़ती है।
वेदों के आधार पर यह संक्षिप्त राजनीतिक इतिहास इसी स्थान पर समाप्त होता है।
यह पुराणकार वेदों से इतना ही इतिहास निकाल पाए। परंतु यह इतिहास किसी और ने नहीं देखा न लिखा। इस युद्ध का वर्णन तथा उपर्युक्त सब वीरों राजाओं और जातियों के नाम पुराणों में नहीं मिलते। किंतु ऋग्वेद के सातवें मंडल में महर्षि ने इसका बड़ा हृदयहारी वर्णन किया है ।
प्रश्न 197
वेदों के ऐतिहासिक पुरुषों का अर्थात नहुष ययाति के स्वर्ग का वर्णन तो पुराणों ने किया। परंतु इस युद्ध का वर्णन क्यों नहीं किया ।वास्तविक बात तो यह है कि पुराण तो मिश्रित इतिहास कहते हैं इसमें तो मिश्रण भी नहीं है ।यह तो कोरे वैदिक अलंकार है। इंद्र, व्रतृ के वर्णन है। एवं तारा तथा ग्रहों के योग हैं ।इन योगों को गृह युद्ध भी कहते हैं।
इन सब वर्णनों से नहीं ज्ञात होता कि यह सब मनुष्य थे। इंद्र ,वृत्र, त्रिशंकु,विश्वामित्र ,पुरुरवा ,उर्वशी, नहुष ययाति, शुक्र और देवयानी आदि सब आकाशीय पदार्थ हैं। जिस दिवोदास को आप शम्बर का मारने वाला कहते हैं वह पृथ्वी का मनुष्य कैसे हो सकता है। शम्बर तो मेघ का नाम है। इसी प्रकार चलने वाला किला भी मेघ है । व्रतृ भी मेघ ही है। इंद्र वृत्र का अलंकार तमाम वेदों में भरा है। इंद्र और वृत्र से संबंध रखने वाला समस्त वर्णन मेघ और विद्युत का है। जो आकाश में चरितार्थ हो सकता है। शेष आयु, नहुष, ययाति आदि का वर्णन वेदों में अन्य पदार्थों से संबंधित है।
इससे सिद्ध हुआ कि वेदों में राजाओं का इतिहास नहीं है। पुरुरवा सूर्य का पर्याय है। उर्वशी उसकी एक किरण है। दोनों अग्नि के रूप में कहे जाते हैं। अग्नि से अग्नि की उत्पत्ति होती है इसलिए आयु भी अग्नि ही है ।अप्सरा भी सूर्य की किरण को कहते हैं। मेनका और अप्सरा सूर्य की किरणें है। नहुष सूर्य के लिए कहते हैं। इन नामों से संबंधित ऋग्वेद में अनेक मंत्र आए हैं्। -
Celebration : स्कूलों बच्चों ने मनमोहक प्रस्तुति पेश कर बांधा समां
कनकेश्वर महादेव सरस्वती शिशु एवं विद्या मंदिर का वार्षिकोत्सव मनाया गया
पवन राजपूतबुधवार को जनपद बिजनौर के देवगढ़ बादशाह में कनकेश्वर महादेव सरस्वती शिशु एवं विद्या मंदिर का वार्षिक उत्सव मनाया गया। वार्षिक उत्सव में आयोजित कार्यक्रम में मुख्य रूप से विद्यालय के प्रधानाचार्य दिनेश कुमार राजपूत, अध्यक्ष लोक सिंह, व्यवस्थापक सोम सिंह, कोषाध्यक्ष सरवन कुमार, शेर सिंह, निर्मल सिंह और कार्यक्रम की अध्यक्षता करने वाले रवा राजपूत सभा के जिलाध्यक्ष शिव कुमार राजपूत और कार्यक्रम का संचालन करने वाले तेजपाल सिंह की उपस्थित रहे।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि महेश पाल रहे। कार्यक्रम में विद्यालय के छात्र-छात्राओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों द्वारा मनमोहक प्रस्तुति की। कार्यक्रम में गिरिराज सिंह, प्रधानाचार्य आदर्श विद्या निकेतन शाहजहांपुर, श्री ललित जिला प्रमुख विद्या भारती, लक्ष्मण सिंह बिष्ट, क्षेत्रीय मंत्री जन शिक्षा समिति पश्चिमी उत्तर प्रदेश, महेश पाल विभाग संघचालक ने अपनी विचार व्यक्त किये।
कार्यक्रम में श्री गुड्डू जी महाराज राम वीर जी प्रधानाचार्य मोहन डी या गौरव कुमार राजपूत मास्टर सुबोध कुमार राजपूत, विपिन कुमार राजपूत, यशपाल, राजपूत विपिन कुमार राजपूत, सुनील कुमार राजपूत, कविता जी प्रधान देवलगढ़, निसार अहमद पूर्व प्रधान आदि समस्त विद्यालय स्टाफ छात्र-छात्राएं ग्राम के नवयुवक बुजुर्ग महिलाएं भारी संख्या में उपस्थित रहे। समस्त विद्यालय स्टाफ का ग्राम वासियों का बहुत सुंदर आयोजन करने पर अध्यक्ष ने बधाई देकर आभार व्यक्त करते हुए कार्यक्रम समाप्त करने की घोषणा की।
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प्रियंका सौरभ को मनुमुक्त ‘मानव’ ट्रस्ट द्वारा आईपीएस मनुमुक्त विशिष्ट युवा-सम्मान
नारनौल। मनुमुक्त ‘मानव’ मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी डॉ मनुमुक्त ‘मानव’ की 40वीं जयंती पर आज स्थानीय सेक्टर-1, पार्ट-2 स्थित अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक केंद्र मनुमुक्त भवन में एक अंतरराष्ट्रीय युवा सम्मान-समारोह का आयोजन किया गया, जिसमें फीजी, आस्ट्रेलिया, नेपाल, नीदरलैंड्स, ट्रिनिडाड और भारत सहित छह देशों की छब्बीस विशिष्ट युवा प्रतिभाओं को पुरस्कृत-सम्मानित किया गया। चीफ ट्रस्टी डॉ रामनिवास ‘मानव’ के प्रेरक सान्निध्य तथा शिक्षाविद् डॉ पंकज गौड़ के कुशल संचालन में संपन्न हुए इस समारोह में हरियाणा के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री ओमप्रकाश यादव मुख्य अतिथि तथा सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राजस्थान) के कुलपति डॉ उमाशंकर यादव और नगर परिषद्, नारनौल की चेयरपर्सन कमलेश सैनी विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहीं, वहीं ओडिशा के पूर्व डीजीपी दिरगपाल सिंह चौहान ने समारोह की अध्यक्षता की। लगभग तीन घंटों तक चले इस भव्य समारोह में माउंट एवरेस्ट विजेता डॉ आशा झांझड़िया (रेवाड़ी) मुख्य वक्ता रहीं।
सभी मुख्य अतिथियों और विशिष्ट वक्ताओं ने दिवंगत मनुमुक्त ‘मानव’ को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन्हें युवाशक्ति का प्रतीक और प्रेरणा-स्रोत बताया तथा युवाओं से उनके जीवन, कार्यों और उपलब्धियों से प्रेरणा लेने का आह्वान किया। उक्त जानकारी देते हुए ट्रस्टी डॉ कांता भारती ने बताया कि समारोह में बड़वा की युवा लेखिका प्रियंका सौरभ को ‘डॉ मनुमुक्त ‘मानव’ विशिष्ट युवा-सम्मान’ प्रदान किया गया, साहित्य, शिक्षा एवम पत्रकारिता क्षेत्रों में उनकी उल्लेखनीय उपलब्धियों के दृष्टिगत, अंगवस्त्र, स्मृति-चिह्न और सम्मान-पत्र भेंटकर ‘डाॅ मनुमुक्त ‘मानव’ विशिष्ट युवा-सम्मान’ से नवाजा गया। विदेशी युवाओं को आॅन लाइन सम्मानित किया गया तथा बाद में उन्हें उनके देशों में समारोह-पूर्वक सम्मानित किया जायेगा। समारोह में ट्स्टी डॉ कांता भारती, हरियाणा बाल-कल्याण परिषद् के राज्य नोडल अधिकारी विपिन शर्मा, हरियाणा व्यापार मंडल के प्रदेशाध्यक्ष बजरंगलाल अग्रवाल, निगरानी समिति के पूर्व अध्यक्ष और मनोनीत पार्षद महेंद्र गौड़, हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड के पूर्व सचिव दुलीचंद शर्मा, समाजसेवी रामानंद अग्रवाल, किशनलाल शर्मा, राजकुमार यादव, एडवोकेट, कृष्णकुमार शर्मा, एडवोकेट, डॉ वंदना निमहोरिया, प्रो अंजू रानी, पूर्व प्राचार्य दलजीत गौतम, प्राचार्य मुकेश कुमार, धर्मपाल शर्मा, सत्यवीर चौधरी, हरमहेंद्रसिंह यादव, डॉ सत्यवान सौरभ (सिवानी मंडी) आदि गणमान्य नागरिकों की उपस्थिति विशेष उल्लेखनीय रही।
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साक्षात्कार
बात बात में मां बाप का टोकना हमें अखरता है । हम भीतर ही भीतर झल्लाते है कि कब इनके टोकने की आदत से हमारा पीछा जुटेगा । लेकिन हम ये भूल जाते है कि उनके टोकने से जो संस्कार हम ग्रहण कर रहे हैं, उनकी जीवन में क्या अहमियत है । इसी पर एक लेख किसी भाई ने भेजा है, जिसे मैं आगे शेयर करने से अपने आप को रोक नहीं पाया ।
बड़ी दौड़ धूप के बाद ,
मैं आज एक ऑफिस में पहुंचा,
आज मेरा पहला इंटरव्यू था ,
घर से निकलते हुए मैं सोच रहा था,
काश ! इंटरव्यू में आज
कामयाब हो गया , तो अपने
पुश्तैनी मकान को अलविदा
कहकर यहीं शहर में सेटल हो जाऊंगा, मम्मी पापा की रोज़ की
चिक चिक, मग़जमारी से छुटकारा मिल जायेगा ।सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक होने वाली चिक चिक से परेशान हो गया हूँ ।
जब सो कर उठो , तो पहले
बिस्तर ठीक करो ,
फिर बाथरूम जाओ,
बाथरूम से निकलो तो फरमान जारी होता है
नल बंद कर दिया?
तौलिया सही जगह रखा या यूँ ही फेंक दिया?
नाश्ता करके घर से निकलो तो डांट पडती है
पंखा बंद किया या चल रहा है?
क्या – क्या सुनें यार ,
नौकरी मिले तो घर छोड़ दूंगा..वहाँ उस ऑफिस में बहुत सारे उम्मीदवार बैठे थे , बॉस का इंतज़ार कर रहे थे ।
दस बज गए ।मैने देखा वहाँ आफिस में बरामदे की बत्ती अभी तक जल रही है ,
माँ याद आ गई , तो मैने बत्ती बुझा दी ।ऑफिस में रखे वाटर कूलर से पानी टपक रहा था ,
पापा की डांट याद आ गयी , तो पानी बन्द कर दिया ।बोर्ड पर लिखा था , इंटरव्यू दूसरी मंज़िल पर होगा ।
सीढ़ी की लाइट भी जल रही थी , बंद करके आगे बढ़ा ,
तो एक कुर्सी रास्ते में थी , उसे हटाकर ऊपर गया ।देखा पहले से मौजूद उम्मीदवार जाते और फ़ौरन बाहर आते ,
पता किया तो मालूम हुआ बॉस
फाइल लेकर कुछ पूछते नहीं ,
वापस भेज देते हैं ।नंबर आने पर मैने फाइल
मैनेजर की तरफ बढ़ा दी ।
कागज़ात पर नज़र दौडाने के बाद उन्होंने कहा
“कब ज्वाइन कर रहे हो?”उनके सवाल से मुझे यूँ लगा जैसे
मज़ाक़ हो ,
वो मेरा चेहरा देखकर कहने लगे , ये मज़ाक़ नहीं हक़ीक़त है ।आज के इंटरव्यू में किसी से कुछ पूछा ही नहीं ,
सिर्फ CCTV में सबका बर्ताव देखा ,
सब आये लेकिन किसी ने नल या लाइट बंद नहीं किया ।धन्य हैं तुम्हारे माँ बाप , जिन्होंने तुम्हारी इतनी अच्छी परवरिश की और अच्छे संस्कार दिए ।
जिस इंसान के पास Self discipline नहीं वो चाहे कितना भी होशियार और चालाक हो , मैनेजमेंट और ज़िन्दगी की दौड़ धूप में कामयाब नहीं हो सकता ।
घर पहुंचकर मम्मी पापा को गले लगाया और उनसे माफ़ी मांगकर उनका शुक्रिया अदा किया ।
अपनी ज़िन्दगी की आजमाइश में उनकी छोटी छोटी बातों पर रोकने और टोकने से , मुझे जो सबक़ हासिल हुआ , उसके मुक़ाबले , मेरे डिग्री की कोई हैसियत नहीं थी और पता चला ज़िन्दगी के मुक़ाबले में सिर्फ पढ़ाई लिखाई ही नहीं , तहज़ीब और संस्कार का भी अपना मक़ाम है…
संसार में जीने के लिए संस्कार जरूरी है।
संस्कार के लिए मां बाप का सम्मान जरूरी है ।जिन्दगी रहे ना रहे , जीवित रहने का स्वाभिमान जरूरी है ।