Category: श्रद्धांजलि

  • Birth anniversary of Netaji Subhash Chandra Bose : बापू को राष्ट्रपिता की उपाधि देने वाले सुभाष चंद्र बोस 

    Birth anniversary of Netaji Subhash Chandra Bose : बापू को राष्ट्रपिता की उपाधि देने वाले सुभाष चंद्र बोस 

  • सादगी के पर्याय और सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति कर्पूरी ठाकुर

    सादगी के पर्याय और सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति कर्पूरी ठाकुर

    नीरज कुमार

    दलितों, पिछड़ों और वंचितों के मसीहा कहे जाने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और बिहार में समाजवाद के सबसे मजबूत स्तम्भ स्व. कर्पूरी ठाकुर ने बगैर किसी तामझाम और प्रचार के बिहार की राजनीति में पारदर्शिता, ईमानदारी और जन-भागीदारी की ओ प्रतिमान उपस्थित किए, उसके आसपास भी पहुंचना उनके बाद के किसी राजनेता के लिए संभव नहीं हुआ। एक गरीब नाई परिवार से आए कर्पूरी जी सत्ता के तमाम प्रलोभन और आकर्षण के बीच भी जीवन भर सादगी और निश्छलता की प्रतिमूर्ति बने रहे। ईमानदारी ऐसी कि अपने लंबे मुख्यमंत्रित्व-काल में उन्होंने सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल कभी अपने व्यक्तिगत कार्यों के लिए नहीं किया। उनके परवर्ती मुख्यमंत्रियों के घरों में कीमती गाड़ियों का काफ़िला देखने के आदी लोगों को शायद विश्वास नहीं होगा कि कर्पूरी जी ने अपने परिवार के लोगों को कभी सरकारी गाडी के इस्तेमाल की इज़ाज़त नहीं दी। एक बार तो उन्होंने अपनी बेहद बीमार पत्नी को रिक्शे से अस्पताल भेजा था ।

    कर्पुरी ठाकुर भारत के स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं। लोकप्रियता के कारण उन्हें जन-नायक कहा जाता था l

    एक मुख्यमंत्री कितना अमीर हो सकता है? सोच में पड़ जाएंगे… क्योंकि इसकी सीमा नहीं है। खैर इस सवाल को छोड़िए, ये बताइये कि एक मुख्यमंत्री कितना गरीब हो सकता है? मुख्यमंत्री और भला गरीब? फिर से सोच में पड़ गए न? क्या वह इतना गरीब हो सकता है कि अपनी एक गाड़ी न हो… गाड़ी छोड़िए, मुख्यमंत्री रहते हुए अपना एक ढंग का मकान न बनवा पाए! और तो और उसके पास पहनने को ढंग के कपड़े न हों!

    जननायक नाम उन्हें ऐसे ही नहीं दिया गया. सादगी के पर्याय और सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति कर्पूरी ठाकुर की बात हो रही है। वही कर्पूरी ठाकुर, जो बिहार के दूसरे डिप्टी सीएम यानी उपमुख्यमंत्री रहे और फिर दो बार मुख्यमंत्री रहे। एक​ शिक्षक, एक राजनेता, एक स्वतंत्रता सेनानी वगैरह…. लेकिन उनकी असली पहचान थी ‘जननायक’ की ।
    जब 1952 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने, उन्हीं दिनों ऑस्ट्रिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में उनका चयन हुआ था। लेकिन उनके पास पहनने को कोट नहीं था।

    दोस्त से कोट मांगा तो वह भी फटा हुआ ​मिला। कर्पूरी वही कोट पहनकर चले गए। वहां यूगोस्लाविया के प्रमुख मार्शल टीटो ने जब फटा कोट देखा तो उन्हें नया ​कोट गिफ्ट किया। आज तो आदमी की पहचान ही उसके कपड़ों से की जाने लगी है।

    कर्पूरीजी के पास गाड़ी नहीं थी। वरिष्ठ स्तंभकार सुरेंद्र किशोर ने अपने एक लेख में ऐसे ही किस्से का जिक्र किया था। 80 के दशक में एक बार बिहार विधान सभा की बैठक चल रही थी, तब कर्पूरी ठाकुर विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे। उन्हें लंच के लिए आवास जाना था। उन्होंने कागज पर लिखवा कर अपने ही दल के एक विधायक से थोड़ी देर के लिए उनकी जीप मांगी। विधायक ने उसी कागज पर लिख दिया, “मेरी जीप में तेल नहीं है। आप दो बार मुख्यमंत्री रहे। कार क्यों नहीं खरीदते?”

    दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप-मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उनके पास अपनी गाड़ी नहीं थी। वे रिक्शे से चलते थे। उनके मुताबिक, कार खरीदने और पेट्रोल खर्च वहन करने लायक उनकी आय नहीं थी। संयोग देखिए कि उनपर तंज कसने वाले वही विधायक बाद में आय से अधिक संपत्ति के मामले में कानूनी पचड़े में पड़े।

    साल था 1974, कर्पूरी ठाकुर के छोटे बेटे का मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हुआ। पर वे बीमार पड़ गए। दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती हुए। हार्ट की सर्जरी होनी थी। इंदिरा गांधी को मालूम हुआ तो एक राज्यसभा सांसद को भेजकर एम्स में भर्ती कराया। खुद मिलने भी गईं और सरकारी खर्च पर इलाज के लिए अमेरिका भेजने की पेशकश की।

    कर्पूरी ठाकुर को मालूम हुआ तो बोले, “मर जाएंगे, लेकिन बेटे का इलाज सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे.” बाद में जयप्रकाश नारायण ने कुछ व्यवस्था कर न्यूजीलैंड भेजकर उनके बेटे का इलाज कराया था। कर्पूरी ठाकुर का पूरा जीवन संघर्ष में गुजरा।

    वर्ष 1977 के एक किस्से के बारे में सुरेंद्र किशोर ने लिखा था, पटना के कदम कुआं स्थित चरखा समिति भवन में जयप्रकाश नारायण का जन्मदिन मनाया जा रहा था। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख समेत देशभर से नेता जुटे थे। मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुरी फटा कुर्ता, टूटी चप्पल के साथ पहुंचे। एक नेता ने टिप्पणी की, ‘किसी मुख्यमंत्री के ठीक ढंग से गुजारे के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए?’ सब हंसने लगे। चंद्रशेखर अपनी सीट से उठे और अपने कुर्ते को सामने की ओर फैला कर कहने लगे, कर्पूरी जी के कुर्ता फंड में दान कीजिए। सैकड़ों रुपये जमा हुए। जब कर्पूरी जी को थमाकर कहा कि इससे अपना कुर्ता-धोती ही खरीदिएगा तो कर्पूरी जी ने कहा, “इसे मैं मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दूंगा।”

    एक बार प्रधानमंत्री रहते चौधरी चरण सिंह उनके घर गए तो दरवाजा इतना छोटा था कि उन्हें सिर में चोट लग गई। वेस्ट यूपी वाली खांटी शैली में उन्होंने कहा, “कर्पूरी, इसको जरा ऊंचा करवाओ।” कर्पूरी ने कहा, “जब तक बिहार के गरीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?”

    70 के दशक में जब पटना में विधायकों और पूर्व विधायकों को निजी आवास के लिए सरकार सस्ती दर पर जमीन दे रही थी, तो विधायकों के कहने पर भी कर्पूरी ठाकुर ने साफ मना कर दिया था। एक विधायक ने कहा- जमीन ले लीजिए। आप नहीं रहिएगा तो आपका बच्चा लोग ही रहेगा! कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि सब अपने गांव में रहेगा।

    उनके निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा जब उनके गांव गए, तो उनकी पुश्तैनी झोपड़ी देख कर रो पड़े थे। उन्हें आश्चर्य हुआ कि 1952 से लगातार विधायक रहे स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्यमंत्री बनें, लेकिन अपने लिए उन्होंने कहीं एक मकान तक नहीं बनवाया।
    सादगी के पर्याय और सिद्धांतों की प्रतिमूर्ति ऐसे थे खांटी समाजवादी कर्पूरी ठाकुर ।

  • झंझावातों से जूझना, टकराना उनकी नियति थी !

    झंझावातों से जूझना, टकराना उनकी नियति थी !

    ( भाग—6)

    कर्पूरी ठाकुर हरावल दस्ते के सोशलिस्ट थे!

    प्रोफेसर राजकुमार जैन

    कर्पूरी जी विपक्ष और शासन दोनों में रहे। विपक्ष में ताउम्र, शासन में 3 साल से भी कम मुख्यमंत्री तथा 9 महीने उपमुख्यमंत्री पद पर रहे। कर्पूरी जी उन नेताओं में नहीं थे जो विपक्ष में रहते हुए एक बात तथा सत्ता में आते ही दूसरा रुख अपना लेते हैं। विधानसभा सचिवालय मैं
    लिफ्ट के बाहर लिखा होता था कि यह केवल एमएलए, मंत्रियों तथा उच्च पदाधिकारी के प्रयोग के लिए है। कर्पूरी जी ने तत्काल आदेश देकर उसको सभी के लिए यानी के चतुर्थ क्लास के कर्मचारियों को भी लिफ्ट में जाने की इजाजत दे दी।
    कर्पूरी जी अपना आदर्श डॉक्टर राम मनोहर लोहिया को मानते थेl शासन में आते ही उन्होंने डॉक्टर लोहिया की नीतिनुसार दो बड़े फैसले, शिक्षा में अंग्रेजी के अनिवार्यता की समाप्ति, तथा मुंगेरीलाल कमिशन के आरक्षण को लागू कर दिया। यह कोई साधारण निर्णय नहीं था। कर्पूरी जी ने लोहिया साहित्य का गहन अध्ययन कर रखा था। डॉ लोहिया ने जब इन सिद्धांतों का निरूपण किया,था। द्विज और भद्र समाज ने उन पर हमला बोल दिया। कर्पूरीजी ने यह सब जानते हुए, समाज में बुनियादी तब्दीली के लिए यह कदम उठा लिए। आरक्षण की नीति पर कर्पूरी जी ने डॉक्टर लोहिया के संबंध में लिखा था , कि लोहिया ने समाजवाद को जोड़ा जनतंत्र से, लोकशाही से। फिर उन्होंने समाजवाद को जोड़ा न केवल आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रमो से बल्कि समाजवाद को जोड़ा सामाजिक कार्यक्रमो से खास तौर से भारत जैसे देश के लिए उन्होंने कहा कि यह जो अदिवज है,यह जो हरिजन आदिवासी है पिछडे और औरतें जो है इनको विशेष अवसर देना पड़ेगा। मैं नहीं जानता के हिंदुस्तान के किसी राजनीतिक नेता ने, दक्षिण भारत के रामास्वामी नायकर को छोड़कर, पेरियार को छोड़कर और डॉक्टर अंबेडकर को छोड़कर हिंदुस्तान की किसी राष्ट्रीय पार्टी के नेता ने यह कहा है की हिंदुस्तान में जो अदिवज हैं, हिंदुस्तान में जो सामाजिक दृष्टि से शोषित है, पीड़ित है, दलित है, राजनीतिक शोषण नहीं है। आर्थिक शोषण ही शोषण नहीं है, सामाजिक शोषण भी शोषण है, तो जो सामाजिक दृष्टि से शोषित है राजनीतिक और आर्थिक शोषण के अतिरिक्त वह जो शोषण हैं इनको विशेष अवसर मिलना चाहिए। आरक्षण शब्द का इस्तेमाल उन्होने कहीं कहीं किया है। अंग्रेजी में इन्होंने शब्द इस्तेमाल किया है प्रेफेरिन्सीयल ट्रीटमेंट उनको मिलना चाहिये। मैं नहीं जानता कि किसी दूसरे नेता ने इतनी जोर से, इतने स्पष्ट ढंग से यह आवाज उठाई हो। डॉक्टर लोहिया ने यह आवाज उठाई तो उनको सनकी कहा गया।
    1967 में उपमुख्यमंत्री तथा बतौर शिक्षा मंत्री के बिहार में मैट्रिक की परीक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म करने का फैसला कर दिया। उनके इस फैसले से भद्र समाज बौखला उठा। हालांकि फैसला पिछड़े-दलित गरीब तबको के पक्ष में बुनियीदी तब्दीली का था। कर्पूरी डिवीजन कहकर उनका मखौल उड़ाया गया।उन्होंने गरीब छात्रों के लिए निशुल्क शिक्षा का प्रबंध भी किय था। शराब बंदी जैसा कड़ा फैसला लेकर जहां उन्होंने गरीब तबको की जिंदगी में एक नई रोशनी लाने का काम किया था, परंतु बड़े-बड़े शराब माफियाओं राजनेताओं के गठजोड़ ने उस पर साजिश करके हमला बोला। भारतीय जनसंघ ने भी इसका कड़ा विरोध किया था।आखिरकार कर्पूरी जी को त्यागपत्र देना पड़ा।
    1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर आरक्षण लागू कर बिहार की राजनीति में भूचाल ला दिया। उच्च जाति के लोगों छात्रों खास तौर पर जनसंध ने इसके खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिया। आरक्षण के मुताबिक 26% आरक्षण में सरकार ने 128 जातियों को चिन्हित किया। जिसमें अकलियत के बैकवर्ड भी शामिल थे। इन 128 जातियों में 94 अति पिछड़े थे। 26% नौकरियां पिछडो की दो श्रेणियां में मुंगेरीलाल कमीशन के अनुसार विभक्त की गई। बिहार की 30% जनसंख्या सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से कमजोर थी। दलित जो की 14% प्रतिशत थे उनका 14 परसेंट आरक्षण, तथा जनजाति को 10 परसेंट पिछड़ों के साथ-साथ तीन फ़ीसदी सवर्ण जातियो को आर्थिक
    आधार पर तथा महिलाओं को भी सरकारी नौकरी में तीन फिसदी आरक्षण दिया गया। कर्पूरी जी
    कि आरक्षण नीति मंडल कमीशन से बहुत पहले बनी थी।
    .कर्पूरी जी के इन कड़े फैसलों का दूरगामी असर हुआ। जहां उनकी तरफदारी मैं पिछड़े, गरीब, अकलियत जन-समूह उनके पीछे लामबंद हो गए। वहीं ऊंची जाति वालें इनके दुश्मन भी बन गए। हालांकि आरक्षण का हथियार इतना पैना था कि उच्च जाति के नेता भी ऊपरी तौर पर इसका विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
    .कर्पूरी जी की सादगी, ईमानदारी, शराफत तथा गरीबों के प्रति हमदर्दी मैं कोई दो राय किसी के मन में नहीं थी। परंतु उनकी राजनीतिक रणनीति परअलग-अलग राय जरूर थी।
    कर्पूरी जी ने कई राजनीतिक फैसले ऐसे किए जिस पर आपत्ति व्यक्त की गई। सत्ता के प्रति लचीले गठबंधन का रुख उनमें हमेशा बना रहा।
    1967 में बिहार में बनने वाली सरकार मे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी की नीतियों के खिलाफ वीपी मंडल को सरकार में शामिल करने की रजामंदी भी इनकी थी। परंतु डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने इसको किसी भी कीमत पर कबूल नहीं किया, जिसके कारण सरकार गिर गई। 1969 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी विधायक दल के नेता श्री रामानंद तिवारी चुने गए। कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री की सरकार गिरने के बाद विपक्ष की बिहार में सरकार बनाने की कवायद शुरू हुई,विपक्षी दलों में जनसंध भी एक महत्वपूर्ण घटक था। रामानंद तिवारी के मुख्यमंत्री बनने की प्रबल संभावना थी, परंतु कर्पूरी जी को लगा कि अगर यह हो जाएगा तो हम पीछे छूट जाएंगे। उस समय कर्पूरी.ठाकुर समर्थको ने तर्क दिया कि हमें जनसंध जैसी सांप्रदायिक पार्टी के साथ सरकार नहीं बनानी चाहिए। रामानंद तिवारी भी इससे सहमत हो गए और उन्होंने जनसंध के विरुद्ध एक वक्तव्य भी जारी कर दिया। परंतु एक साल के अंदर ही जनसंध की मदद से कर्पूरी जी मुख्यमंत्री बन गए।
    जारी है,

  • ‘ हज्जाम की झोपड़ी का यह नूंर हमारा गौरव है ‘

    ‘ हज्जाम की झोपड़ी का यह नूंर हमारा गौरव है ‘

    (भाग– 7)

    प्रोफेसर राजकुमार जैन

    कर्पूरी ठाकुर हरावल दस्ते के सोशलिस्ट थे !

    सवाल पैदा होता है की क्या कर्पूरी जी सत्ता के लिए, सिद्धांत को पीछे धकेल देते थे? नहीं, यह बात नहीं थी। बिहार की राजनीति का एक कड़वा सच है कि जिस नेता के पीछे उसकी जाति का वरदहस्त है, वही खेल खेल सकता है। कर्पूरी जी एक ऐसी जाति से ताल्लुक रखते थे जिसका ना बाहुबल था ना धनबल। अगड़ों का समूह तो उन पर हमलावर रहता ही था, पिछड़ों में भी दबंग जातियों के नेता गोलबंदी करके कर्पूरी जी को धेरने का प्रयास करते थे। कर्पूरी जी की मजबूरी थी, उस चक्र को भेदने के लिए वे ऐसे निर्णय भी करते थे। उनका यह भी मानना था की गहना सिर्फ पहनने वाला ही नहीं झलकने वाला भी होना चाहिए।
    सब कुछ के बावजूद बिहार में बड़ी तादाद में हर जाति, धर्म, वर्ग का एक बड़ा तबका उनका हमेशा प्रशंसक बना रहा। उनकी निजी ईमानदारी, विनम्रता, सदाशयता के कायल होने के करण वे भूमिहार राजपूत बाहुल्य चुनाव क्षेत्र से हमेशा भारी मतों से जीतते रहे। कई बार कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक शक्ति को नजरअंदाज किया गया। उसका एक उदाहरण उनको बिहार के मुख्यमंत्री पद से हटाना था। प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई उनके विरुद्ध थे, उन्होंने कर्पूरी जी को मुख्यमंत्री पद से हटवाने में भूमिका निभाई। सोशलिस्ट चिंतक मधुलिमए ने लिखा है कि अगर बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार ना गिराई जाती, तो केंद्र में मोरारजी भाई की सरकार को भी खतरा नहीं होता।
    क्या कारण है की 1952 से लेकर आज तक बिहार में सोशलिस्टों की एक पहचान बनी हुई है? सरकार हो या विपक्ष उनकी मौजूदगी हमेशा रही है। इसकी वजह बिहार के दो सोशलिस्ट नेताओं श्री रामानंद तिवारी और कपूरी ठाकुर की रहनुमाई उनके संघर्ष, संगठन को खड़ा करने की जी तोड़ मेहनत और क्षमता रही है। बिहार में बड़ी तादाद में लड़ाकू सोशलिस्ट नौजवानो की एक बड़ी जमात उन्होंने खड़ी की। इसमें से कई नौजवान देश प्रदेश के के नामवर नेता बने।
    सोशलिस्ट पार्टी के एक कार्यकर्ता की हैसियत से मैंने बरसों बरस इन नेताओं के त्याग को नजदीक से देखा है। यह कर्पूरी.ठाकुर थे जो अपनी जनसभा में हमेशा सभा करने के बाद समाजवादी साहित्य को एक मिशनरी के रूप में बेचते थे। दिल्ली में जब भी कर्पूरी.जी आते तो सोशलिस्ट लिटरेचर की सैकड़ो पुस्तकों, पुस्तिकाओं की प्रतिया वह अपने साथ ले जाते थे। मधुलिमए द्वारा लिखित पुस्तिका ‘राजनीति का नया मोड़’ जिसको मैंने प्रकाशित किया था, उसकी 500 प्रतिया कर्पूरी जी ने वितरित की थी।
    मैंने देखा था, सोशलिस्ट सम्मेलनों में मंच पर अंबिका दादा, तिवारी जी और कर्पूरी जी सम्वेद स्वर में सोशलिस्ट गीतों को गाते थे।
    फैहरे लाल निशान हमारा,
    हल चक्र का मेल निराला,
    औरों का घर भरने वालों,
    खून पसीना बहाने वालों,
    कह दो इंकलाब आएगा।
    बदल निजाम दिया जाएगा,
    फिर होगा जग में उजियारा,
    फैहरे लाल निशान हमारा।
    सम्मेलन स्थल पर एक लहर उठ जाती थी, कार्यकर्ताओं का जोश देखने लायक होता था। इन नेताओं का अपना कोई निजी जीवन नहीं था, सब कुछ पार्टी के लिए था। इसलिए इन्होंने गांव देहात की उबड खाबड पगडंडियों को पैदल, साइकिल,नावो बैलगाड़ियों पर नापते हुए, जेठ की दोपहरी, जानलेवा सर्दी मे, भूख प्यास की चिंता किये बिना, साधनो के अभाव मे समाजवाद का परचम लहराया। जिसके करण किसी न किसी शक्ल में बिहार में सोशलिस्टों की पहचान बनी हुई है। मुझे आज तक याद है की सोनपुर (बिहार) में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित था। उससे पहले मैदान में वहां बैलों का मेला लगा था। उनके गोबर पर ही पुआल बिछाकर, टेंट लगाकर प्रतिनिधियों के ठहरने का इन्तजाम किया गया था। सुबह उठने पर सब की कमर के नीचे बैलों के गोबर की छाप लग चुकी थी। कर्पूरी जी अपने बिखरे बाल, मैली घुटनों तक की धोती, ऊंचे कुर्ते पर पहनी हुई सदरी में घूम कर प्रतिनिधियों का हालचाल पूछ रहे थे। उनको देखकर नारा लगने लगता था, सोशलिस्ट पार्टी जिंदाबाद, कमाने वाला खाएगा, लूटने वाला जाएगा, नया जमाना आएगा। बड़ी सी देघ में पकते
    कच्चे पक्के चावलों, मैं नमक मिलाकर खाते हुए साथी इंकलाबी जज्बे से भरे हुए रहते थे।
    कर्पूरी जी की व्यक्तिगत ईमानदारी और सादगी का मैं चश्मदीद गवाह रहा हूं। 1970 में पुणे में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन था। अधिवेशन समाप्ति के बाद पुणे के रेलवे स्टेशन पर कर्पूरी जी से उनके सुपुत्र रामनाथ ठाकुर शिकायत कर रहे थे कि बाबूजी हमारा कोट फट गया है, कब आप हमको नया दिलवाएंगे, कर्पूरी जी ने कहा दिलवाएंगे, दिलवाएंगे,
    रामनाथ ने फिर दोहराया आप हमेशा ऐसे ही कहते हैं, उस पर कर्पूरी.जी ने कहा तुम कोट तो पहन रहे हो, इसमें थेकली लगी है तो क्या हुआ। यह बिहार का मुख्यमंत्री बोल रहा था, क्या आज इसकी कल्पना की जा सकती है?
    इस तरह के कई रोचक किस्से मेरे जहन में है। एक बार युवा जनता का एक प्रतिनिधिमंडल जिसमें मेरे साथी मारकंडेय सिंह, मयाकृष्णन तथा दो-तीन और अन्य साथी थे, कर्पूरी जी से मिलने के लिए उनके डेरे पर गए थे। कर्पूरी जी ने हमारे लिए चाय मंगवाई, एक रिक्शावाला उनके घर के बाहर खड़ा रहता था, उसको कर्पूरी.जी ने कहा चाय लेकर आओ, घर के थोड़ी दूरी पर सड़कपर एक चाय बनाने वाला था, उसके यहां से एलमुनियम की केतली में मिट्टी में बने हुए दिए के साइज मे चाय पीने के लिए दी गई। कर्पूरी जी ने पूछा गरम तो है ना, कौन उनको बताता कि चाय से तो गला भी गीला नहीं हुआ। सब ने कहा बहुत ही स्वादिष्ट चाय है। कर्पूरी जी को कहीं बाहर मीटिंग के लिए जाना था, उन्होंने चलते-चलते अपने पी ए सुरेंद्र से कहा कि इनको खाना खिला कर भेजना। कमरे में बैठी उनकी धर्मपत्नी सुन रही थी, कर्पूरी जी के जाते ही उन्होंने कहा हमरा कपार खिला दीजिए, जो आता है कि सबको खाना खिला दीजिए सामान घर में कोई है नहीं, हम सब जोर से बोल उठे अरे नहीं, हम तो अभी ही खाना खाकर आए हैं।
    मधुलिमए के घर पर दिल्ली में अक्सर कर्पूरी जी आते थे, उनसे कई बार बातचीत होती थी। सोशलिस्ट तहरीक के हमारेर्इस महानायक पर हमें फख्र है।

  • Goodbye : इतना आसां भी नहीं होता मुनव्वर होना

    Goodbye : इतना आसां भी नहीं होता मुनव्वर होना

    मिथिलेश सिंह 

    मन बहुत उदास है। ओबैद की इस हाहाकारी सूचना से कि मुनव्वर राना चले गये। लखनऊ से मुनव्वर राना का याराना था और कलकत्ते को वह अपना पीहर मानते थे। पीहर छूटा तो वह अवध के ही हो कर रह गये।  कोई दूसरी हिजरत उन्हें मंजूर नहीं थी। कलकत्ते में उनका बिजनेस हुआ करता था। ट्रांसपोर्ट का। शायद अब भी हो। शायद न भी हो। गाड़ी- छकड़ा के कारोबारी को लिखने- पढ़ने से कितना लेना- देना हो सकता है, आप अंदाजा लगा सकते हैं। लेकिन मुनव्वर राना ने यह रूपक बदल दिया। उनके लिए कारोबार पेट भरने का जरिया था और लिखना- पढ़ना जीवित रहने का। मलिक मोहम्मद जायसी की धरती ने उनके रचनाकर्म को मांजा और धार दी। कलकत्ते ने उन्हें शायरी करना सिखाया। उन्हें पढ़ना सिखाया। सिखाया कि जब मौसम बौराया हो और जब बस्तियां कब्रगाह बन रही हों तो एक शायर की जिम्मेदारी और उसका बुनियादी धर्म क्या होना चाहिए। उन्हें पढ़ते हुए यह भरोसा जगता था कि तमाम बेहूदी चीजों के बावज़ूद कुछ बचा रह गया है। धुएं में बादल की तरह। आग में नदी की तरह। बचे रह गये हैं कुछ परिंदे। बचे रह गये हैं कुछ दरख्त। बची रह गयी है थोड़ी सी ताजा हवा अब भी। तमाम बेहुरमती के बावजूद। यह बचना- बचाना ही मुनव्वर राना का सरमाया रहा है। आज वह सरमाया भी चला गया।
    उर्दू के दयार में मुनव्वर राना की इंट्री के समय एक से एक फन्ने खां सक्रिय थे। कोई ग़ालिब पर फिदा था तो किसी को ‘ मीर’ से आशनाई थी। किसी को फि़राक़ का जमाल दीवाना बनाये बैठा था तो कोई जोश मलीहाबादी का शैदाई था। बरगद का होना और न होना, दोनों सुकूनदेह घटनाएं नहीं होतीं। बरगद जब तक है, तब तक छोटेमोटे दरख्त उग नहीं सकते। वह सबका खून, सबकी गिजा, सबकी ताकत सोख लेता है। बरगद जब गिरता है तो इतना लंबा सन्नाटा छोड़ता है कि उसकी भरपाई आसान नहीं रह जाती। किस्सा कोताह कि मुनव्वर की राह में भी इन बरगदों के स्मृति चिन्ह थे। उनका शिल्प था।  उनका क्राफ्ट था। उनकी पग ध्वनियां थीं और बज रहे थे ढोल- मंजीरे। ग़ज़लें कही जा रही थीं। आह और वाह से महफिलें गुलजार हो रही थीं। सब कुछ हो रहा था लेकिन सोच के स्तर पर गुणात्मक रूप से कुछ खास बदल नहीं रहा था। वही मीर, वही ग़ालिब, वही सरज़मीन। वही मोहब्बत। वही अफसाने। वही रोना, वही दुश्वारी। रेटारिक भी वही।  सरोकार भी लगभग वही। कहन का अंदाज़ भी वही। घर- आंगन की चिंताओं के लिए जगहें थीं ही नहीं वहां।  मुनव्वर राना शायरी में सच्चीमुच्ची का घर- आंगन ले कर आये, मां ले कर आये, वह पीड़ा ले कर आये जो देश विभाजन से उपजी थी और जो अब भी देखी, सुनी और महसूस की जाती है। अपने मुल्क में भी और सीमा पार भी। हिजरत की पीड़ा कैसी होती है और कितना कुछ छूटता- टूटता है जब कोई मुल्क दोफाड़ होता है, इस दर्द की तर्जुमानी के लिए वह हमेशा याद किये जाएंगे: ‘मज़ा आता था उर्दू का जहां की भोजपूरी में/ वो छपरा छोड़ आये हैं वो बलिया छोड़ आये हैं’। पुरवा के झोंके हमेशा दर्द बढ़ाते हैं। दर्द भी बढ़ाते हैं और नोस्टैल्जिया भी पैदा करते हैं। सीमा आर और सीमा पार, दोनों जगहों पर देश विभाजन की मारक पीड़ा बराबर बनी रही। आज भी है। लेकिन इसका क्रियेटिव नोटिस लिया मुनव्वर राना ने: ‘ तुम्हारे पास जितना है, हम उतना छोड़ आये हैं।’ हमारे समय की इतनी गंभीर बेचैनी को हाशिये पर रखने और उसे दाखिल दफ्तर करने के गुनाह का हिसाब जब होगा तो मुनव्वर के अलावा  उनके कितने समकालीन  ख़म ठोंक कर खड़े होने या अगली सफ़ में बैठने का साहस  जुटा पायेंगे?
    मुनव्वर की शायरी में वह सब कुछ है जिससे किसी समाज, किसी फिरके, किसी कुनबे, किसी दुनिया में हमारे- आप जैसे औसत आदमी के बने और बचे रहने की शिनाख्त हो सकती है। जहां पहचाना जा सकता है कि हम भी हैं, अपने पूरे आवताव के साथ। टूटते हुए। बिखरते हुए। संभलते हुए। लाम पर जाने के लिए कमर कसते हुए। ओबैद,  मेरे भाई! अब से भी कह दो कि यह खबर झूठी है।

  • आजाद भारत में गांधी जी का अंतिम उपवास

    आजाद भारत में गांधी जी का अंतिम उपवास

    आज 13 जनवरी है। आज के दिन ही 1948 में आजाद भारत में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने बिड़ला हाउस जिसे अब गांधी स्मृति कहा जाता हैं में अपने जीवन का अंतिम उपवास किया। यह उपवास दिल्ली में मची मारकाट और अराजकता के खिलाफ गांधीजी का अनोखा अनशन था। इस उपवास की भारत और पूरी दुनिया में कई तरह से व्याख्या की जाती रही है, और आशा करता हूँ कि इस पर दुनियाभर में अनेक शोध होते रहेंगे। गांधीजी की इस देश से पार्थिव विदाई हुई है, एक विचार के रूप में गांधीजी को दुनिया कभी भी विदा नहीं होने देगी।
    गांधीजी का यह उपवास इस मामले में अनोखा है कि उनके प्रायः जितने भी उपवास हुए वे गुलाम भारत में अंग्रेज सरकार के खिलाफ ही हुए। आखिर क्या वजह थी कि 78 साल के एक बूढ़े आदमी जिसको आधी दुनिया राष्ट्रपिता कहती थी अपने अंतिम समय में अपने ही लोगों के खिलाफ जिनकी मुक्ति के लिए उन्होंने सारा जीवन झोंक दिया था,अनशन करना पड़ा।
    यह एक अप्रिय स्थिति होती है जब आप इस संभावना से जूझते हैं कि आपके जीवन का कार्य विफल रहा है। कल्पना कीजिए उस मोहनदास करमचंद गांधी की जिसने आपने अपना सारा जीवन सत्य, अहिंसा, अस्पृश्यता उन्मूलन और सांप्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए समर्पित कर दिया और देश के आजाद होते ही उनकी खुद की आंखों के सामने अहिंसा और सांप्रदायिक एकता को इतनी क्रूरता से खारिज कर दिया गया कि वे खुद से यह सवाल करने के लिए मजबूर हो गए कि क्या ये वही लोग हैं जो मेरी एक आवाज पर चल पड़ते थे तथा अंग्रेजों की लाठियां खाने को प्रस्तुत कर देते थे? मेरी अहिंसक फौज आज आपस में ही एक दूसरे को मारने पर उतारू है, तो फिर मेरे पास अपनी देह को दांव पर लगाने के अलावा और क्या विकल्प हो सकता है?
    16 जून 1947 को गांधीजी ने अपनी प्रार्थना सभा में अपने इस दर्द को बयां करते हुए कहा कि एक समय था जब हर कोई मुझ में विश्वास करता था क्योंकि मैंने उन्हें अंग्रेजों का मुकाबला करने का रास्ता दिखाया था। उस समय अहिंसा के रास्ते से काम आसान दिख रहा था, इसलिए मेरी बहुत पूछ थी। उस समय किसी ने हमें एटम बम बनाना नहीं बताया था। यदि उस समय हमारे पास यह ज्ञान होता तो हम इसके द्वारा अंग्रेजों को मिटाने के बारे में गंभीरता से सोचते। चूंकि ऐसा कोई विकल्प उपलब्ध मौजूद नहीं था, इसलिए मेरी अहिंसा की बात देश ने मान ली और मेरा अधिकार प्रबल हो गया।
    गांधीजी का जीवन ही ऐसा था कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे उन्हीं लड़ाइयों को लड़ते रहे, जो उन्होंने अपने पूरे जीवन में लड़ीं। वे पूरी जिंदगी इस दृढ़ विश्वास के साथ लड़ते रहे कि लोग उनकी बात सुनेंगे । लेकिन सच्चाई यह है कि वे गुलाम भारत में अपने सभी अभियानों में सफल होते है पर आजाद भारत में दिल्ली में शांति स्थापित करने में उन्हें अपनी सफलता संदिग्ध लगने लगती है। इसलिए वे अपने जीवन के अंतिम अनशन में जाने का फैसला करते हैं। और यह फैसला इसलिए करते हैं कि उसके पास अपने विश्वासों का पालन करने के लिए कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता है।
    दिल्ली की हालत सुधर के बजाय बिगड़ती रही थी। उन्होंने कहा भी कि अगर दिल्ली हाथ से निकल गयी तो पूरा देश हाथ से निकल जायेगा और अगर देश हाथ से निकल गया तो दुनिया को बचाना लगभगअसंभव है। इसलिए वे 12 जनवरी 1948 को अनिश्चितकालीन उपवास पर जाने का फैसला कर लेते हैं। जब उन्होंने यह फैसला किया तो उनके पुत्र देवदास गांधी ने उनको चिट्ठी लिखकर कहा कि ”आप जो उपवास शुरू कर रहे हैं इसके खिलाफ मेरे पास कहने को काफी कुछ तर्क हैं। मेरी सबसे बड़ी चिंता यह है कि आखिर आपने अधीरता के आगे हथियार डाल दिए जबकि आप अनन्त धैर्य के प्रतीक माने जाते हैं। आप कभी धैर्य नहीं छोड़ते लेकिन इस उपवास से ऐसा लग रहा है कि आखिरकार आप अधीर हो गए हैं। आप को शायद इस बात का अन्दाजा नहीँ कि आपने अपने अथक और धैर्यपूर्ण परिश्रम से कितनी बड़ी सफलता अर्जित की हैं,और अन्ततः लाखों लोग धीरे धीरे यह समझने को वाध्य हुए कि वे क्या पागलपन कर रहे हैं। आपके परिश्रम ने लाखों लोगों के जीवन की रक्षा की है और लाखों जीवनों की रक्षा आगे भी आप कर सकते हैं। लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि आपका धैर्य जवाब दे चुका है आप अधीर हो गए हैं। मृत्यु को प्राप्त करके आप वह सब हासिल नहीं कर सकते जो अपने जीवन को बचाकर आप कर सकते हैं। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि आप मेरी बात पर विचार करें और उपवास का ख्याल छोड़ दें।
    12 जनवरी को गांधीजी ने अपने पुत्र देवदास को जवाबी पत्र में लिखा कि मैं यह मानने को तैयार नहीं हूं कि उपवास पर जाने का मेरा यह फैसला जल्दबाजी में लिया गया है। यह जो जल्दबाजी दिख रही है इसके पीछे मेरा चार दिनों का आत्मशोधन और प्रार्थना है। मुझे ईश्वर द्वारा ही यह आज्ञा दी गई है।इसलिए इसे हड़बड़ी में किया गया फैसला नहीं माना जा सकता। मुझे दरअसल इस उपवास की उपयुक्तता के विरुद्ध कोई तर्क सुनने की जरूरत नहीं। आप मेरे मित्र हैं और मेरे बहुत बड़े शुभचिंतक भी हैं। आपकी चिंता जायज है और मैं इसका सम्मान करता हूँ।
    13 जनवरी 1948 को गांधीजी अनिश्चितकालीन उपवास पर चले जाते हैं। एक 78 साल का बूढा आदमी उपवास कर रहा था जिसकी देह नोआखाली, कलकत्ता और बिहार में पैदल पैदल चलते हुए पक चुकी थी, और पूरी दुनिया में चिंता की लहर फैल जाती है। इस बार पूरी दुनिया को लगा कि गांधीजी शायद इस उपवास से उबर नहीं पाएंगे। उपवास 6 दिन चला। 17 जनवरी को सभी संबंधित पक्षों के प्रतिनिधियों ने गांधीजी के सामने एक संकल्प पत्र रखा और कहा कि हम दिल्ली में अमन कायम करेंगे। आप उपवास तोड़ दीजिए, आपकी जान कीमती है। 18 जनवरी 1948 को गांधी ने इस संकल्प पत्र को स्वीकार किया औऱ अपना अनशन तोड़ दिया।
    Gandhi Darshan – गांधी दर्शन
  • जिम्मेदारी का एहसास और फर्ज अदायगी

    जिम्मेदारी का एहसास और फर्ज अदायगी

    (भाग—5)
    कर्पूरी ठाकुर हरावल दस्ते के सोशलिस्ट थे!

    प्रोफेसर राजकुमार जैन

    कर्पूरी जी जहां एक और विधानसभा में समसामयिक प्रश्नों पर रोजमर्रा की बहस में हिस्सा लेकर सोशलिस्ट नजरिए को पेश करते थे वहीं पूरे बिहार में उन दिनों सोशलिस्टों द्वारा अन्याय, जुल्म, गैरबराबरी के खिलाफ संघर्ष, धरना प्रदर्शन, सत्याग्रह, प्रतिकार होता रहता था। पुलिसिया जुल्म को भी वे सदन में उठाते रहते थे। 10 अगस्त 1965 को गांधी मैदान में सोशलिस्टों द्वारा हुए प्रदर्शन पर पुलिस का भीष्म लाठी प्रहार हुआ। उस पर मुख्यमंत्री ने अपने बयान में कहा कि श्री रामानंद तिवारी, कर्पूरी ठाकुर रामचरण सिंह व अन्य व्यक्तियों पर लाठी -प्रहार के परिणाम स्वरूप जो जख्म आए थे वह साधारण थे। कर्पूरी जी ने इसका खंडन करते हुए कहा, अध्यक्ष महोदय, मुख्यमंत्री का उक्त बयान सच्चाई से कोसों दूर है। यह प्रामाणिक तथ्य है कि चंद्रशेखर सिंह के माथे पर इतना निर्मम प्रहार हुआ था कि वे अब तक पटना अस्पताल में जीवन और मृत्यु के झूले के बीच झूल रहे हैं। उनकी जिंदगी अभी भी खतरे से खाली नहीं कहीं जा सकती। रामचरण सिंह एमएलए पर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता श्री योगेंद्र ठाकुर पर और मेरे ऊपर अंधाधुंध इतना लाठी का प्रहार हुआ था कि दूसरे जख्मों के अलावे श्री राम चरण सिंह का दाहिना हाथ टूट गया है (फैक्चर हो गया है) श्री योगेंद्र ठाकुर के दाहिने हाथ का निचला हिस्सा टूट गया मेरा बायां हाथ टूट गया, फ्रैक्चर हो गया। डॉक्टरो के कथनानुसार उन जख्मों के ठीक होने में महीनो का समय लगेगा। श्री रामानंद तिवारी पर इतनी गहरी मार पड़ी कि जेल में कई दिनों का उनके मुंह से खून आता था। अत्यंत दर्द के कारण में अभी तक किसी दूसरे का सहारा लिए बिना ठीक से चलने फिरने में असमर्थ है। अध्यक्ष महोदय, स्वयं डॉक्टरी- परीक्षा और एक्स-रे रिपोर्ट से साफ है कि हममें से कितनों के जख्म साधारण नहीं, बल्कि सख्त हैं। सिंपुल नहीं ग्रिवीयस
    है।)
    . कर्पूरी जी सोशलिस्ट तहरीक के रहनुमाओ के लिए खास इज्जत, मुकाम रखते थे। सूरज नारायण सिंह जिन्होंने हजारीबाग जेल से जयप्रकाश नारायण को अपने कंधे पर बैठाकर फरार कराया था। उस महान सोशलिस्ट की हत्या पर सदन में बहुत ही मार्मिक प्रतिक्रिया, रोष व्यक्त करते हुए कहा, जहां तक सूरज भाई का सवाल है हम लोग शुरू से कह रहे हैं उनकी स्वाभाविक मृत्यु नहीं हुई, उनकी हत्या की गई। आज इसे दोहराना चाहता हूं कि जानबूझकर उनको मार दिया गया, और मार दिया बहुत बेरहमी के साथ, जिस तरह से जानवरों को लाठी से मारा जाता है, उसी तरह से उनको मार दिया गया। उनकी लाश को मैंने रांची अस्पताल में देखा। उनके शरीर में कोई हड्डी नहीं थी जो लाठी के प्रहार से बची हुई थ जिनको स्वतंत्रता के सेनानी मानते हैं, जिनको सेनापति मानते हैं, जिनको देशभक्त मानते हैं, त्यागी मानते हैं.और जिनको हम जान देने वाला मानते हैं. ऐसे व्यक्ति को इस तरह से मार दिया जाए,यह कोई साधन बात नहीं है, सचमुच असाधारण बात है। बांस घाट पर उनकी लाश चिता पर जली, उनकी लाश ही नहीं जली, बल्कि प्रजातंत्र और समाजवाद चिता पर जला। अध्यक्ष महोदय, जब देश में प्रजातंत्र समाजवाद का डंका बज रहा है तो मजदूरो का संगठन करना जुर्म है? कहा जाएगा, नहीं। क्या मजदूरो का आंदोलन करना जुर्म है? कहा जाएगा, नहीं। क्या शांतिपूर्ण ढंग से उनकी समस्याओं का समाधान खोजना जुर्म है,? कहा जाएगा नही। क्या अनशन करना, जिसे महात्मा गांधी ने अपना अस्त्र मान लिया था, ऐसे अस्त्र का सहारा लेना, मजदूरों की समस्याओं का समाधान करने के लिए जुर्म है? कहा जाएगा नहीं। अगर कहा जाएगा की जुर्म नहीं है, तो क्या अनशन पर बैठे हुए शांत और संकल्पशील श्री सूरज नारायण सिंह को लाठी के प्रहार से मार देना अपराध नहीं है, पाप नहीं है जुर्म नहीं है ?कहना पड़ेगा कि यह अपराध है,यह पाप है और जुर्म है। मगर”” अध्यक्ष महोदय इस सरकार ने आज तक इसको अपराध नहीं माना पाप नहीं माना। आप जानते हैं कि वे (सूरज नारायण सिंह) अहिंसक क्रांतिकारी नहीं थे, वे हिंसक क्रांतिकारी थे। वे बम, पिस्टौल, राइफल, बंदूक के साथ भगत सिंह के साथ पंजाब की तरफ, बंगाल की तरफ, उत्तर प्रदेश की तरफ, भगत सिंह के साथ अंग्रेजों के खिलाफ काम किए, लेकिन अंग्रेजी राज ने उनकी हत्या नहीं की। अंग्रेजी राज ने उन पर गोली नहीं चलाई। अध्यक्ष महोदय, आपको पता है की हिंदुस्तान का सबसे बड़ा जमीदार दरभंगा महाराज के खिलाफ 1933 और 1938 ईस्वी में सत्याग्रह आंदोलन संचालित किया, तो इतना बड़ा जमीदार अपने लट्ठेतो से सूरज बाबू की हत्या नहीं करवा सका। हजारीबाग जेल से निकल भागने के बाद नेपाल जेल को तोड़ने के बाद सूरज बाबू जब गिरफ्तार हुए तो उस समय की खूंखार अंग्रेजी सरकार ने लाठी और गोली चलाकर उनकी हत्या नहीं की। उनके त्याग और बलिदान से ही इस देश को आजादी मिली और सूरज भाई की हड्डी की बनी हुई इस कांग्रेस सरकार ने उनकी जान ले ली। वे मर गए लड़ते-लड़ते मर गए। उन्होंने देश के लिए लड़ाई लड़ी। वे मजदूरों के लिए मरे, समाजवाद के लिए मरे, फख्र है
    हम लोगों को, गौरव है, हम लोगों को। हम लोगों को यहां एक चुनौती भी है, उस चुनौती को स्वीकार करने की तमन्ना जरूर है।उस महान व्यक्ति को जितनी श्रद्धांजलि अर्पित की जाए, व थोड़ी होगी। उनके शोक- संतप्त परिवार के लिए जो कुछ भी कहा जाए थोड़ा होगा। हमको, आपको, सबकों इस चुनौती को स्वीकार करना पड़ेगा और चुनौती का जवाब देना पड़ेगा, इन्हीं शब्दों के साथ में अपना स्थान ग्रहण करता हूं।
    एक दूसरे घटनाक्रम में समस्तीपुर कें. एस डीं ओ ने एक जमींदार की शिकायत पर सोशलिस्ट विधायक वशिष्ठ नारायण सिंह के नाम वार्निंग नोटिस जारी कर दिया। जिसमें लिखा था आप और आपकी सोशलिस्ट पार्टी इकट्ठा होकर लूटपाट करते हैं, मजमा करके जायदाद को लूटपाट करते हैं और बार-बार करते हैं। जिसमें नुकसान होता है। आप इस तरह की बेजा हरकत करने नहीं जाएंगे, ताकीद जानिए। कर्पूरी ठाकुर ने जवाब दिया अध्यक्ष महोदय, हमारी सोशलिस्ट पार्टी बुज्जदिलों की जमात नहीं है। हम अगर लूटपाट करेंगे तो बहादुरों की तरह से कबूल करेंगे कि हमने ऐसा किया है।
    अपनी सारी व्यस्तता के बावजूद कर्पूरी जी, महान देशभक्तों, सोशलिस्ट नेताओं, कार्यकर्ताओं को कभी विस्मित नहीं करते थे। सदन में अनेको भुला दी गई हस्तियों को वह हमेशा खिराज-ए अकीदत, पेश करते थे, आदर सम्मान देते थे। जयप्रकाश बाबू की पत्नी प्रभावती जी को श्रद्धांजलि देते उन्होंने कहा। प्रभावती जी इसी बिहार की मिट्टी में जन्मी, पली और मरीं। कहना नहीं होगा की प्रभावती जी एक महान बाप की बेटी थी। कांग्रेस के संगठन को जिस व्यक्ति ने सारे प्रदेश में फैलाया था आजादी की लड़ाई की, सन 1920 – 21 ई के असहयोग आंदोलन की जब दूंदुभी बजी थी,तो जिस व्यक्ति ने उसमें जबरदस्त हिस्सा लिया था, जिसका संबंध सिर्फ सारण से ही नहीं था दरभंगा से भी था, वे केवल उस बाप की बेटी ही नहीं थी बल्कि इस देश के महान स्वतंत्रता सेनानी, श्री जयप्रकाश नारायण की धर्मपत्नी तो थी। इसके साथ-साथ स्वयं प्रभावती जी ने आजादी की लड़ाई में बहुत बड़ा हिस्सा लिया था। महात्मा गांधी के आश्रम में रहकर और अलग रहकर वे बार-बार जेल जाती थी। अनेक राजनीति के कार्यों में हाथ बंटाया, रचनात्मक कार्यों में न केवल भाग लिया था, बल्कि इन्होंने अनेक रचनात्मक संस्थाओं को जन्म भी दिया था। उनकी मृत्यु हो गई लेकिन सदन में उनके प्रति शोक प्रस्ताव नहीं आया। मैं मानता हूं कि यह भूल हुई है, किसी ने जानबूझकर ऐसा किया हो, ऐसी बात नहीं है। मैं समझता हूं कि आज नहीं आया तो इसे कल आना चाहिए और आपकी ओर से उनके प्रति भी सदन में श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। उनकी सेवाओं का समर्थन करना चाहिए।
    .. . जारी है,

  • Tribute to Karpoori Thakur : खेती किसानी, जमीन के जोतदार, बटाईदार, और भूमिहीन किसानों तथा बड़े जमींदारों के सवाल पर सदन में सवाल करते रहते थे कर्पूरी ठाकुर

    Tribute to Karpoori Thakur : खेती किसानी, जमीन के जोतदार, बटाईदार, और भूमिहीन किसानों तथा बड़े जमींदारों के सवाल पर सदन में सवाल करते रहते थे कर्पूरी ठाकुर


    प्रोफेसर राजकुमार जैन
    (भाग– 3 )
    खेती किसानी, जमीन के जोतदार, बटाईदार, और भूमिहीन किसानों तथा बड़े जमींदारों के सवाल पर अक्सर कर्पूरी जी सदन में सवाल करते रहते थे। और कई मौलिक सुझावों को भी सदन के सामने प्रस्तुत करते थे। खेती के संदर्भ में उन्होंने एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुझाव सदन में प्रस्तुत किया था। कर्पूरी जी का कहना था कि अंग्रेजी राज में अफसर शाही के इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस वाले नियम को ही हिंदुस्तान में अपना लिया गया, वह ढांचा गुलामी का ढांचा है वह हिंदुस्तान के निर्माण का ढांचा नहीं हो सकता। अगर आप अपने को देश का निर्माता कहते हैं, और निर्माता बनकर रहना चाहते हैं तो अंग्रेजी राज्य के पुराने ढांचे को फेंक कर नए ढांचे का निर्माण करना होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि आर्थिक पुनर्निमान के लिए सबसे पहली बात आपको यह करनी है कि आप एक नई ‘इकोनामिक सिविल सर्विस’ कायम करें। आज हम देहातों में जाते हैं तो वहां जिस ढंग से आपके अफसरान काम बतलाते हैं, उससे पता चलता है कि देहातों का काम नहीं चलेगा। आपने बड़ा भारी पैराफरनेलिया कायम किया है, जिस पर अधिक से अधिक पैसा खर्च होता है। आप इसकी जगह पर ‘रूरल सिविल सर्विस’ कायम करें, तभी आप जो काम करना चाहते हैं,वह काम हो सकेगा।
    अध्यक्ष ने, कर्पूरी जी से प्रश्न किया कि इकोनॉमिक्स सिविल सर्विस ओर रूरल सर्विस की क्या व्याख्या है?, इसको अगर माननीय सदस्य बतला देते तो बात समझ में आती। उसके उत्तर में कर्पूरी जी ने कहा दो तरह के सर्विस का जिक्र हमने किया है। उनसे मेरा मतलब यह है की देहातों में काम करने के लिए वैसे आदमीयों को रखना चाहिए, जिन्हें गांव और खेत की सारी बातों की जानकारी हो, जिन्हें यह जानकारी हो कि खेतों की तरक्की कैसे हो सकती है, उत्पादन की वृद्धि कैसे हो सकती है? खेतों में किस समय बीज लगाए जाएं की फसल अच्छी हो, जिनकी मनोवृति नयी हो, मनोविज्ञान जिनका नया हो वैसे योग्य आदमीयो को लेकर रूलर सिविल सर्विस कायम किया जाए। अपने ग्रो -मोर -फूड डिपार्टमेंट में ऐसे लोगों को रखा है, जिन्हें खेती के बारे में जानकारी कुछ भी नहीं है। वे एडमिनिस्ट्रेशन चला सकते हैं, लेकिन खेतों की मिट्टी नहीं पहचान सकते हैं। खेतों में कब हल चलेगा, कब बीज बोया जाएगा, कब सिंचाई होगी, इन सब बातों को वह नहीं जानते हैं। ऐसे लोगों से उत्पादन की वृद्धि का काम नहीं हो सकता है। इसमै ऐसे लोगों को रखना चाहिए जो उन समस्याओं की जानकारी रखते हो। उनसे अवगत हो, और जो उन्हें नए ढंग पर करना चाहते हो, जो अपने देश को आगे बढ़ाना चाहते हो, ऐसे लोगों की आप सर्विसेज कायम करके देश को आगे बढ़ा सकते हैं।
    किसानों के लिए उनका मानना था की चार चीजे बहुत जरूरी है,वे ये हें कि उनका क्राप (फसल) कैटल (पशु) लैंड (भूमि) प्राइस (दाम) इंश्योर्ड (निश्चित) गारंटेड है? क्या उनका क्राप इंश्योर्ड है? क्या उनकी पैदावार की कीमत गारंटेड है, क्या उनका लैड इंश्योर्ड है? 19% जमीन की सिंचाई होती है, बाकी 81% जमीन आसमान के भरोसे पड़ी रहती है।आसमान ऐसा पगला होता है की कभी इतना ज्यादा बरसता है कि खेत ढह जाता हैं और कभी इतना कम बरसता है की खेत सूख जाता है! अगर वर्षा समय पर हुई भी और फसल लगी तो कीड़े -मकोड़े लगकर बर्बाद कर देते हैं। सहरसा जिले में माननीय मंत्रियों को घूमने का मौका मिला होगा। मैंने वहां देखा है कि सूअर और बंदर उस इलाके की फसल को बर्बाद कर देते हैं। वहां किसानों की फसल सुरक्षित नहीं है। निजी और सार्वजनिक संपत्ति के फर्क पर दुनिया के मशहूर इकोनॉमिस्टो का हवाला देते हुए विचारोंत्तेजक चर्चा में 22 अगस्त 1961 को श्री जानकी रमण मिश्र द्वारा बिहार विधानसभा में प्रस्तुत लैंड रिफॉर्म्स (फिक्शनऑफ सीलिंग ऑफ लैड )बिल 1959 के वाद विवाद में जनतापाटी (स्वतंत्र पार्टी) के बृजेश्वर प्रसाद सिंह ने यह कहते हुए की वर्तमान सीलिंग बिल द्वारा जमीन लेने की जो बात सरकार सोच रही है, वह डकैती है। उस पर कर्पूरी ठाकुर ने कहा अध्यक्ष महोदय, इस विधेयक पर जनता पार्टी
    (स्वतंत्र पार्टी) की ओर से जो विरोध हुआ है वह लज्जा का विषय है। विरोध क्यों होता है मैं समझता हूं। विरोध इसलिए होता है कि ‘एडम स्मिथ’ का जो सिद्धांत है, इकोनॉमिक्स का, “रिकॉर्डौ” का जो सिद्धांत है, और “जेबीशे” का जो सिद्धांत है, उस सिद्धांत को आज 20वीं शताब्दी में ⁹ जनता पार्टी (स्वतंत्रत पार्टी) समर्थन करने वाली है। उनका यह निश्चित मत है कि इन इकोनॉमिक्सटो के अलावें इस संसार में एडम स्मिथ, रिकॉर्डो और जेबिशे के अलावे सिसमंडी जैसे इकोनॉमिस्ट पैदा हुए थे, इस संसार में सेंट साइमन भी पैदा हुए थे, इस संसार में, रॉबर्ट, प्रटो, मार्क्स और महात्मा गांधी इस युग में पैदा हुए थे। जनता पार्टी समझती है कि अर्थशास्त्र के विषय में प्राइवेट प्रॉपर्टी की ही सैंक्टिटी(,sanctity) हैl वह इस बात का समर्थन करती है कि जिनके पास जितना पैसा है जिनके पास जितनी संपत्ति है उसका संरक्षण सिर्फ उसी के हित में होना चाहिए, और जिन इकोनॉमिस्टों ने धन के वितरण के बारे में कहा है, वे इकोनॉमिस्ट ही नहीं है। वह जमाना अध्यक्ष महोदय लद गया, जब सैंक्टिटी आफ प्राइवेट प्रॉपर्टी के मानने वालें इस संसार में थे। आज के युग में शासन की पॉलिसी बदल गई है, इकोनॉमिक पॉलिसी बदल रही है, सामाजिक पॉलिसी बदल रही है। ऐसी हालत में जब आप सैंकटिटी आफ प्राइवेट प्रॉपर्टी की बात करते हैं तो सामाजिक नीति, अर्थनीति आदि के विपरीत बात करते हैं, मैं मानता हूं कि प्राइवेट प्रॉपर्टी जो चल रही है और शायद वह बरसों चलेगी। लेकिन प्राइवेट प्रॉपर्टी का मतलब यह हैं कि यह आपका कुर्ता है, यह मेरी धोती है, यह आपका पेंट है, या मेरा कोट है, तो यह मानने की बात है। लेकिन आज क्या हो रहा है? जमीन का जहां तक सवाल है, जंगल का, उद्योग का, नदी का, खान का, खाड़ी का, समुद्र का या ऐसे साधनों का सवाल है यह चीज ऐसी है, जिनके बारे में सभी संस्थाओं का मत है कि यह समाज की चीजे हैं और इनका इंतजाम समाज के हाथ में जाना चाहिए।
    बहस में सदन के अध्यक्ष ने जब कर्पूरी जी से कहा कि आप कम्युनिस्टो के साथ क्यों नहीं जाते हैं? तो कर्पूरी , जी ने सोशलिस्टों, कम्युनिस्टो, सर्वोदयी मे क्या फर्क है, मत भिन्नता है, उसका खुलासा करते हुए कहा, समाजवाद का, साम्यवाद का, सर्वोदय का जो सिद्धांत है, उससे ऐसा पता चलता है कि वह चाहते हैं की संपत्ति पर समाज का स्वामित्व होना चाहिए; लेकिन इसके लिए क्या पॉलिसी होगी, कैसे कारगर किया जाएगा, हिंसा से या अहिंसा से, कानून से या जोर जबरदस्ती से, राज्य के हाथ में सौंपकर या अराज्य व्यवस्था के द्वारा किया जाएगा? इस प्रश्न पर भिन्न-भिन्न दलों के भिन्न-भिन्न मत हैं और यही कारण है की एक दूसरे में मतभेद है। रास्ता अलग-अलग होने के कारण, कार्यक्रम अलग होने की वजह से, देश में भिन्न-भिन्न दल चल रहे हैं और उनमें मतभेद चल रहा है।
    —–जारी है,

  • Tribute to Jannayak : वैचारिक स्तर पर सोशलिस्ट नुक्ते नजरिये से मुख्तलिफ विषयों पर रोशनी भी दिखाते थे कर्पूरी-ठाकुर

    Tribute to Jannayak : वैचारिक स्तर पर सोशलिस्ट नुक्ते नजरिये से मुख्तलिफ विषयों पर रोशनी भी दिखाते थे कर्पूरी-ठाकुर

    प्रोफेसर राजकुमार जैन 

    (भाग -2)
    कर्पूरी जी महज किताबी बुद्धिजीवी नहीं थे। जमीनी सच्चाई से बावस्ता होने के कारण वैचारिक स्तर पर सोशलिस्ट नुक्ते नजरिये से मुख्तलिफ विषयों पर रोशनी भी दिखाते थे। देश दुनिया के हर पहलू पर बहस करते वक्त उनके मानस में गांव -गरीब, आखिरी पायदान पर खड़े आदमी के लिए हमेशा दिल धड़कता था। यह कर्पूरी जी थे जो गहन गंभीर विषयों पर अपने ज्ञान से सदन को उद्वेलित, चौंकाते थे। वही मेहनतकश गरीब की दशा व्यथा पर सदन का ध्यान दिलवाते थे। कर्पूरी जी बिहार विधानसभा में एक और जहां देश दुनिया के नामवर चिंतकों, दार्शनिको, राजनेताओं, अर्थशास्त्रियों के उदाहरण देकर अपने तर्क को मजबूत धार देते थे। वही मामूली साधनहीन गरीबों मेहनतकशों के लिए विधानसभा में मंत्रियों से सवाल कर जवाब देही मांगते थे।
    6 जुलाई 1956 को उन्होंने सदन में सवाल किया की क्या माननीय श्रम मंत्री यह बताने की कृपा करेंगे की बिहार राज्य में कितने रिक्शे हैं और कितने,रिक्शे चालक है?(2) कितने रिक्शा चालकों की उम्र 12 से 18 वर्ष के अंदर,कितने की18 से 22 वर्ष के अंदर कितने की 22 से 40 वर्ष के अंदर, कितने की 40 से 50 वर्ष के और कितने की 50 से 65 वर्ष के अंदर है?,(3)इन विभिन्न उम्र के रिक्शा चालकों की औसत मासिक आय क्या है? (5) रिक्शा चालकों की पूरी स्थिति (कंडीशन) आय,स्वास्थ्य आदि की जांच- पड़ताल करने तथा उनकी स्थिति को समुन्नत करने संबंधी सुझाव देने के लिए क्या सरकार कोई श्रम जांच कमीशन निकट भविष्य में बहाल करना चाहती है?
    12 दिसंबर 1960 को कर्पूरी जी ने सदन में सवाल किया, क्या मुख्यमंत्री यह बताने की कृपा करेंगे कि (1)यह बात सही है कि बहुत जमाने से गांव के चौकीदार, अपराधों और दंगे- फसाद को रोकने में सहायता करने के काम से लेकर जोखिम उठाने तथा गांवो के संबंध में थाना को आवश्यक सूचना देने का काम करते रहे हैं? (2] क्या यह बात सही है कि अत्यधिक आवश्यक सेवा करने वाले चौकीदारों का वेतनमान केवल ₹15 महीना है। यदि हां, तो क्या इस महंगाई के जमाने में जो बहुत ही कम है और वो भी उन्हें समय पर भी नहीं मिल पाता है?(3) क्या यह बात सही है की सरकार चौकीदारी प्रथा उठाने के प्रश्न पर विचार कर रही है?(4) यदि उपर्युक्त खंडो के उत्तर स्वीकारात्मक है तो इसको कायम रखने और चौकीदारों का वेतन बढ़ाने के प्रश्न पर सरकार कौन सी कार्रवाई करना चाहती है?
    बैलगाड़ी (चालकों) के प्रति चिंता, बैलगाड़ी टैक्स का औचित्य,
    17 मई 1972 को कर्पूरी जी ने बिहार विधानसभा में प्रश्न किया, क्या मंत्री सामुदायिक विकास विभाग यह बतलाने की कृपा करेंगे कि- (1) क्या यह बात सही है कि श्री कुमार राय, पिता श्री चतुरी राय, ग्राम चकपहाड़, प्रखंड मोरवा, दरभंगा के पास देहाती बैलगाड़ी है, जिसका इस्तेमाल कृषि कार्य और देहाती कामकाज के लिए ही होता है ?(2) यदि खंड (1) ,का उत्तर स्वीकारात्मक है तो उन पर साढे आठ रूपए का बैलगाड़ी टैक्स लादे जाने का क्या औचित्य है?
    कर्पूरी जी की एक खासियत थी कि जहां वे एक और गुरबत के शिकार आम जनों की रोजमर्रा की दुश्वारियों, तकलीफों को वरीयता से उठाते थे, वही गंभीर विषयों पर अपने वक्तव्य से सदन को चौंकाते थे।
    16 सितंबर, 1953 को बिहार विधानसभा में प्रस्तुत प्रस्ताव ‘दि बिहार सेटिनेंस आफ पब्लिक ऑर्डर बिल, का विरोध करते हुए कर्पूरी जी ने कहा मैं इस बिल का विरोध करता हूं। इस बिल का विरोध उन्हीं लोगों के द्वारा होता है जिनके दिल में जनता की स्वाधीनता की भावना है। हेराल्ड लास्की का यह कहना है कि आजादी के लिए लड़ने वालों की संख्या हमेशा कम होती है।
    ” FRIENDS OF LIBERTY ARE ALWAYS IN MINORITY IN HUMAN SOCIETY”) आज से वर्षों पहले पश्चिमी देशो के बारे में लिखते हुए पंडित नेहरू ने जो कहा था, उसको पढ़ने के लोभ को सॅवरण नहीं कर सकता हूं।
    In western countries a strong public opinion has been built up opposed .There are large numbers of people who though not prepared to participate in strong and direct action themselves ,they are enough persons and press do agitate for them seriously ,thus helping to check the tendency of the state to encroach upon them”.कर्पूरी जी ने सरकार पर तंज करते हुए कहा जब आपनें इस प्रणाली को अपनाया, तब यह ठीक था, लेकिन आज के विरोधी दल अगर उस प्रणाली को अपनाता है, तो वह प्रणाली गलत है! क्या लॉजिक है?किस तरह से आपका विचार बदल गया है,इससे साफ पता चलता है।आज डेमोक्रेसी का अर्थ यह नहीं है, जैसा की एच,जी, वेल्स ने कहा है, रूल ऑफ़ दि मेजोरिटी नहीं है। उनका कहना यह है कि चुनाव के बाद 5 वर्ष के अंदर जनता की राय जानने का कोई दूसरा तरीका नहीं है। उन्होंने ‘कंटीन्यूंइंग कान्सेंट ऑफ दि ऐलेक्टोरेट’ फ्रेज का व्यवहार किया है। ‘कंटीन्यूंइंग कंसेंटं आफ दि एलेक्टोरेट’ जानना जरूरी है। मगर लोकमत जानने की मांग एक सीमित मांग है। बिना पब्लिक ओपिनियन में भेजे कैसे ‘कंटिन्यूंइंग कान्सेंट ऑफ दि एलेक्टोरेट’ ले सकते हैं? इसके अलावे दूसरा साधन हमारा कहां है? अध्यक्ष महोदय आपने कहा था कि जनमत जानने की मांग प्लेबीसाइट नहीं है, यह चुनाव चुनौती नही है। चुनाव में बड़े पैमाने पर लोगों की राय जानी जाती है मगर कंटिन्यूंइंग कंन्सेंट ऑफ दि एलेक्टोरेट’ जानने की प्रणाली उसके अंदर सीमित है, फिर भी इस उचित प्रणाली को आप दमन करने के लिए तैयार हैं।
    गुप्तकाल में भारत में बड़े-बड़े कलाकार पैदा हुए और कालिदास जैसे नाटककार पैदा हुए। ऐसी प्रगति इसलिए हुई कि देश समृद्धशाली था। जहां प्रगति है, वहां शांति अनिवार्य है, और जहां प्रगति नहीं है, वहां कभी शांति स्थापित नही हो सकती है। इसके अलावे आप अकबर के जमाने के इतिहास को देखें। पंडित नेहरू ने कहा है कि अकबर उदार आदमी था, इसलिए देश प्रगतिशील था। धार्मिक दृष्टि मे वे कट्टर आदमी नहीं थे और वे राजपूत को मिलाकर सभी काम करते थे, इसलिए काम में सफलता भी मिलती थी। अपने राज्यकाल में उन्होंने नया रिवेन्यू सिस्टम चलाया था। इस सब प्रगति के कार्यो को वे इसलिए कर सकते थे, क्योंकि देश में शांति थी। उनके राज्यकाल में तुलसीदास और सूरदास जैसे महान व्यक्ति का अविर्भाव हुआ।
    एलिजाबेथ के इतिहास को आप देखें! उनके राज्यकाल में शेक्सपियर पैदा हुए और वॉल्टर, रैले और डेक जैसे आदमी पैदा हुए, जिन्होंने स्पेन के जहाज को लूट कर अपने देश को समृद्धशाली बनाया। फ्रांस रिवॉल्यूशन के इतिहास में इस संबंध में जो कुछ लिखा हुआ है, उसके एक अंश को आपके सामने पढ़ देना चाहता हूं:-
    “The French Revolution burst like a volcano and yet revolutions and volcanoes do not burst out suddenly without reason or long evolution. We see the sudden burst out and are surprised; but underneath the surface of the earth many forces play against each other for long ages, and the fires gather together, till the curst on the surfaces can hold them down no longer and they burst forth in mighty flames shooting up to sky , and molten lava rolls down the mountain side.Even so, the forces that ultimately break out in revolution play for long under the surface of society.Water boils when you heat it,but you know that if has reached the boiling point only after getting hotter and hotter.

    Ideas and economic conditions make revolutions .Foolish people in authority ,blind to everything that does not fit in with their ideas, imagine that revolutions are caused by agitators . Agitators are people who are discontented with existing conditions and desire a change and work for it. But when economic Conditions are such that their day to day suffering grows and life becomes almost an intolerable burden,then even the weak are prepared to take risks .It is then that they listen to the voice of the agitator who seems to show them a way out of their misery”.
    नागरिक स्वतंत्रता के सवाल पर
    सदन में, कांग्रेस के राजस्व मंत्री के भाषण का जिक्र करते हुए कर्पूरी जी ने कहा कि उन्होंने इंग्लैंड के ट्रेडीशन के बारे में कहा है कि वहां का ढंग दूसरा है। अध्यक्ष महोदय, अगर वे कुछ इसके बारे में जानते हैं, तो मैं भी कुछ जानकारी रखता हूं। वहां का ट्रेडीशन यही है कि किंग जॉर्ज जो लोगों को अधिकार नहीं दे रहा था,उसे लोगों ने तलवार के जोर पर मजबूर किया और आखिरकार 12:15 बजे मैग्नाकार्टा पर दस्तखत कराया और उसे लोगों को पॉलिटिकल अधिकार देना पड़ा। फिर चार्ल्स फर्स्ट की गर्दन अलग कर दी गई और चार्ल्स सेकेंड को मजबूर किया कि उसे जनता को अधिकार देना पड़ेगा। इस तरह अंत में 1968 ईस्वी में पीसफुल रिवॉल्यूशन हुआ और जनता को पार्लियामेंट में अधिकार दिया गया। आप देखेंगे कि इस तरह जनता के नागरिक स्वतंत्रता का वहां ट्रेडीशन बनाया। सम्राटों से लड़कर बनाया। हम चाहते हैं कि जो ट्रेडिशनल इंग्लैंड का है। उसे हम लोग भी अपनाए, लेकिन आप इसे नहीं चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हर कदम पर सरकार से लड़कर, चाहे सरकार कांग्रेस पार्टी की हौ, झारखंड पार्टी की हो या सोशलिस्ट पार्टी की हो, नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करें। हम देश में ऐसी परंपरा बनाएं जिससे नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा करें। हम देश में ऐसी परंपरा बनाएं जिससे नागरिक स्वतंत्रता के लिए लोगों के दिल में आदर हो, इसलिए हम इस बिल का विरोध करते हैं।
    —–जारी है,

  • कर्पूरी ठाकुर, हरावल दस्ते के सोशलिस्ट थे ! 

    कर्पूरी ठाकुर, हरावल दस्ते के सोशलिस्ट थे ! 

    विशेष: आगामी 23 जनवरी 2024 को जननायक कर्पूरी.ठाकुर जनशती समापन समारोह, पटना के जगजीवन राम संसदीय अध्ययन एवं राजनीतिक शोध संस्थान परिसर में आयोजित किया गया है। इस अवसर पर कर्पूरी जी पर लिखित दो पुस्तकों(1) स्मृति ग्रंथ, संपादक रमाशंकर सिंह( 2) कर्पूरी जी की राजनीति का समाजशास्त्रीय अध्ययन, (जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अध्येता) पंकज कुमार द्वारा लिखित, का लोकार्पण भी होगा। पुस्तक में प्रकाशित मेरे लेख की पहली किस्त।

    प्रोफेसर राजकुमार जैन

    जाति की आग में झुलस्ते हिंदुस्तान में एक ऐसा इंसान जिसने अपने किरदार, संघर्षो, ज्ञान, कथनी और करनी,व्यक्तिगत सादगी, ईमानदारी और होशियारी की बुनियाद पर जातिवाद को उसके घर में ही बार-बार पटकनी दी, और आखिर में शिकस्त देकर उनको अपना नेता मानने पर मजबूर कर दिया।
    जी हां, वे थे कर्पूरी ठाकुर। वे इसलिए महान नहीं थे कि बिहार के एक बार उप-मुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री तथा तमाम उम्र विधायक रहे थे। आजादी के बाद, हिंदुस्तानी सोशलिस्टों के हरावल दस्ते की पहली कतार में वे शामिल थे। सोशलिस्ट पार्टी बिहार में कर्पूरी ठाकुर के चेहरे को आगे रखकर एक तरफ जहां समाजवादी नीतियों, विचारों सिद्धांतों को जमीनी स्तर पर अमली जामा पहनाने की कोशिश करती थी, वहीं फख्र के साथ ताल ठोकती थी कि हमारे पास कर्पूरी ठाकुर जैसा नेता है। इसलिए हुकूमत से लेकर पार्टी की कमान पार्टी ने कर्पूरी जी को सौंपी थी। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी इनको बनाया गया l
    गरीबी, मुश्किलों, दुश्वारियों, प्रताड़ना सहते हुए उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत की थी। ऐसे अभावों के बीच जब अपनी मेहनत, कुव्वत से इंसान आगे बढ़ता है तो जाहिर है की मां-बाप की तमन्ना होती है, हमारा बेटा अच्छी तालीम हासिल कर, बड़ी नौकरी, तनख्वाह, सुखी जीवन व्यतीत करें। परंतु कर्पूरी ठाकुर की संगत ने उनकी जिंदगी को दूसरी राह पर मोड़ दे दिया।
    1938 में जब कर्पूरी जी मात्र 14 वर्ष के थे, उनके गांव के नजदीक गांव ओइनी में प्रांतीय किसान सम्मेलन हुआ। जिसमें समाजवाद के शिखर पुरुष आचार्य नरेंद्रदेव से उनकी मुलाकात हुई। सोशलिस्टों की जैसी परंपरा थी कि कहीं भी कोई नौजवान उनके संपर्क में आता उसे प्रोत्साहित कर सोशलिस्‍ट तंजीम में शामिल करने का प्रयास होता था। आचार्य जी ने बालक कर्पूरी ठाकुर से भाषण देने का इसरार किया। मंच पर बैठे नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि उनका भाषण सुनकर प्रभावित हुए।
    1942 की क्रांति जिसमें महात्मा गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। सी, एम, कॉलेज दरभंगा मे कर्पूरी ठाकुर की सदारत में छात्रों की सभा में करो या मरो के समर्थन में कर्पूरी जी ने हुंकार भरी। इस कारण उन्हे गिरफ्तार कर दरभंगा जेल में बंद कर दिया गया। जेल मे बदइंतजामी के खिलाफ 28 दिन तक अनशन किया। एक साल के कैद की सजा उनको सुनाई गई। जो अक्टूबर 1944 में पूरी होने वाली थी परंतु गवर्नर के आदेश पर उन्हें फिर नजर बंद कर कैंप जेल से भागलपुर सेंट्रल जेल में बंदी बना दिया गयाl 2 साल 1 महीने की सजा काटकर नवंबर 1945 में उनको रिहा किया गया। कर्पूरी ठाकुर के जीवन की राह सोशलिस्ट तहरीक, उसके नेताओं के इर्द-गिर्द चलने लगी। जयप्रकाश नारायण, डॉक्टर राममनोहर लोहिया, पंडित रामानंद मिश्र, रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे नेताओं के संपर्क मैं आने के कारण उन्होंने 1934 में बनी कांग्रेसी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली। 1946 में पार्टी के मंत्री के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया। इस कारण उनकी पहली लड़ाई इलियास नगर एवं विक्रमपट्टी के जमींदारों की जमीन भूमिहीनों में बांटने के लिए हुई। 1947 में बनी अखिल भारतीय हिंद किसान पंचायत के वे सचिव बनाए गए। और इस समय उन्होंने पूरे बिहार में दौरा कर गरीब किसानों, मजदूरों से संबंध कायम कर लिया। 1948 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ने कांग्रेस छोड़कर अलग से सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया। 1948 से 1952 तक वे बिहार सोशलिस्ट पार्टी के मंत्री बने रहे। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर पार्टी ने 1952 मे ‘अंतरराष्ट्रीय समाजवादी युवा सम्मेलन’ में भारतीय प्रतिनिधि की हैसियत से वियना और युगोस्लाविया भेजा। बाद वे 1953 मे इस्राइल भी गए। वहां पर खास तौर पर कृषि के क्षेत्र में उनके अविष्कारों, कम खर्चे पर मकान बनाने तथा सार्वजनिक शौचायलयों के उनके प्रबंधकीय से वह बहुत प्रभावित हुए और इसकी एक रपट उन्होंने योजना आयोग को भी प्रस्तुत की। इसी समय लेबनान, मिस्र ऑस्ट्रेलिया का दौरा कर नई दुनिया का जायजा लिया।
    आजाद हिंदुस्तान के पहले आम चुनाव 1952 मे बिहार विधानसभा के सदस्य चुन लिए गए। कांग्रेस के विशाल बहुमत वाले सदन में उन्होंने अपनी तैयारी, वाकपटुता तथा गरीब गुरबो, वंचकों के प्रति लगाव और जिम्मेदारी का निर्वाह करते हुए अपनी धाक जमा ली। वे प्रजा समाजवादी दल के सदस्य थे। 1965 में प्रजा समाजवादी तथा समाजवादी पार्टी के एकीकरण के लिए सारनाथ उत्तर प्रदेश में सम्मेलन हुआ। कई अड़चने मौजूद थी, परंतु डॉक्टर लोहिया ने कर्पूरी ठाकुर से कहा कि तुम इस कार्य को पूरा कर सकते हो। यह कर्पूरी जी थे जिनके प्रयास से प्रजा समाजवादी पार्टी का एक बड़ा वर्ग नई बनने वाली संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गया। डॉ राममनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की एक नई रणनीति का नारा दिया था, जिसके कारण बिहार विधानसभा में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के 67 विधायक चुनकर आए थे। परंतु कम समर्थन वाली पार्टी के नेता महामाया प्रसाद सिंह को मुख्यमंत्री बनाना कर्पूरी ठाकुर ने स्वीकार कर लिया था।
    किसी भी आदमी की असली पहचान जब वह किसी पद पर होता है तभी होती है। बिहार विधानसभा का सदस्य बनने के बाद कर्पूरी जी पर दोहरी जिम्मेदारी आ गई थी। एक तरफ जहां पार्टी के संचालन, संघर्षों, विचारधारा के प्रचार प्रसार, शिक्षण प्रशिक्षण, प्रदेश भर में जनसभाओं, सम्मेलनों में शिरकत करना, कार्यकर्ताओं की निजी जीवन की मुश्किलों को जानना और उसके निदान की जिम्मेदारी भी थी। वहीं सदन में विधयक प्रक्रियाओं की गहन जानकारी के बल पर वंचक तबको की तकलीफो, दुश्वारियों, उन पर होने वाले सरकारी तथा जमीदारों,जाति के घमंड में चूर लोगों के जुल्म ज्यादती को सिलसिलेवार तथ्यों, तर्कों से लैस होकर उस अन्याय जुल्म को उजागर करना, तथा उसके
    हल का रास्ता बताना था।
    जारी है—–