Category: एजुकेशन/जॉब्स

  • प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेला

    प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेला

    राजकुमार जैन

    प्रगति मैदान में आयोजित पुस्तक मेले में जाना हुआ। जैसी अन्य मेलो में भीड़भाड़ होती है, वैसी तो खैर वहां मुमकिन हो ही नहीं सकती थी। परंतु आशा से कम पुस्तक प्रेमी वहां नजर आए। एक खास बात जो वहां देखने को मिली कि अंग्रेजी पुस्तकों की बिक्री वाले स्टॉल पर हिंदी पुस्तकों के प्रकाशन समूहो की तुलना में अधिक जमघट था। सबसे ज्यादा भीड़ penguin, Blooms Bury academic, hachette India, simon and schuster, Atlantic, Rupa publication जैसीअंग्रेजी पुस्तकों की बिक्री वाली दुकान पर थी। हिंदी प्रकाशन समूह के राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, लोक भारती इलाहाबाद, राजपाल एंड संस, नई किताब प्रकाशन समूह इत्यादि के अतिरिक्त, विशेष प्रकार की पुस्तकों जो किसी विचारधारा के साहित्य को प्रमुखता के साथ प्रकाशित करती है जैसे प्रभात प्रकाशन (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा) दलित साहित्य के लिए गौतम बुक सेंटर, कम्युनिस्ट साहित्य के पुस्तकों के लिए इंडियन पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस तथा रूस से प्रकाशित किताबों का स्टॉल भी वहां लगा हुआ था। इसी तरह विभिन्न धर्मो के साहित्य के प्रकाशन समूह भी वहां पर उपस्थित थे। विभिन्न भारतीय भाषाओं की पुस्तकों के भी छोटे-छोटे स्टाल लगे हुए थे। समाजवादी साहित्य की अधिकतर पुस्तकें लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद तथा राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के स्टॉल पर उपलब्ध थी। दिल्ली हाई कोर्ट के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा सोशलिस्ट थिंकर राजेंद्र सच्चर की बायोग्राफी जिसे पेंगुइन ने प्रकाशित किया है भी देखने को मिली। लोक भारती प्रकासन ने नई साजसज्जा मैं डॉ राममनोहर लोहिया की पुस्तक “इतिहास चक्र” को बिक्री के लिए उपलब्ध कराया। ज्ञान विज्ञान एजुकेयर प्रकाशन ने “राममनोहर लोहिया जीवन और व्यक्तित्व” पर नीलम मिश्रा द्वारा लिखित पुस्तक प्रस्तुत की। इसके अतिरिक्त ‘में लोहिया बोल रहा हूं’ राजस्वी द्वारा संपादित पुस्तक प्रभात प्रकाशन ने उपलब्ध कराई। भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर पर रामनाथ ठाकुर द्वारा दो भागों में संपादित पुस्तक भी मेले में बिक्री के लिए उपलब्ध थी। सेतु प्रकाशन द्वारा प्रोफेसर आनंद कुमार द्वारा लिखित “इमरजेंसी राज्य की अंतर कथा” तथा विनोद अग्निहोत्री की पुस्तक ‘आंदोलन जीवी’, शीन काफ निजाम ‘उस पार की शाम: अरविंद मोहन द्वारा संपादित किशन पटनायक की पुस्तक ‘भारत शूद्रों का होगा’तथा सच्चिदानंद सिन्हा पर संपादित पुस्तकें दिखाई दे रही थी। नंदकिशोर आचार्य की पुस्तक ‘साहित्य का चित्र’ तथा कनक तिवारी द्वारा लिखित ‘जनताननामा’ पुस्तक सूर्य प्रकाशन मंदिर द्वारा प्रस्तुत की गई थी। हमारे सोशलिस्ट साथी, दिल्ली यूनिवर्सिटी एकेडमिक काउंसिल के भूतपूर्व सदस्य, इतिहासकार और शायर प्रोफेसर अमरनाथ झा ने ‘अमर पंकज’ के नाम से तीन गजल संग्रह “मैंने भोगा सच” ‘धूप का रंग काला है’ ‘हादसों का सफर’, लिखी है, जिसे श्वेतवर्णा प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। बड़ी प्रसन्नता मुझे तब हुई जब मैंने अपने एक छात्र जो अब दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर है, मुन्ना पांडे द्वारा लिखित ‘समय से संवाद: १४ ‘संस्कृति:विविध परिप्रेक्ष्य जो अनन्य प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गई खरीदी। अधिक कीमत होने के कारण कई किताबें चाह कर भी पुस्तक प्रेमी खरीद नहीं पा रहे थे। इसका एक और अन्य कारण भी है की मनचाही पुस्तकों की फोटो प्रतिलिपि बनवाकर जो बहुत सस्ती पड़ती है, पाठक उसको प्राप्त कर लेते हैं। आधुनिक तकनीकीकरण, इंटरनेट, टेलीविजन, सोशल मीडिया वगैरा के कारण पुस्तकों के प्रति पहले की तुलना में अब आकर्षण कम ही दिखाई देता है।

  •  गंभीर चिंता का विषय: आत्महत्या करते छात्र

     गंभीर चिंता का विषय: आत्महत्या करते छात्र

     जीवन-मृत्यु का प्रश्न बनती कोचिंग के बोझ तले पढाई 

     प्रतिस्पर्धा के बीच जीवित रहने का संघर्ष करते बच्चे 

    स्कूली पढाई के बजाय कोचिंग के भयावह दौर में, छात्रों में आत्महत्या की प्रकृति और प्रवृत्ति का नए सिरे से अध्ययन करने की भी बहुत सख्त ज़रूरत है, क्योंकि देश की पूरी युवा बौद्धिक संपदा दांव पर लगी हुई है, जिसके दूरगामी गंभीर नतीजे पूरे राष्ट्र के माथे पर गहरा सिकन ला सकते हैं। युवाओं के कंधे पर स्थापित विकासशील प्रगति का पूरा ढांचा ही भरभरा कर गिर सकता है। छात्रों को इसे चुनौती के रूप में लेते हुए पूरी क्षमता के साथ इसका सामना करना चाहिए। परीक्षा जीवन-मृत्यु का प्रश्न नहीं है। परीक्षा परिणामों को जीवन का अंतिम आधार न मानकर अपनी सफलता की राह स्वयं बनानी होती है। बिना श्रम के जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिलती। अभिभावकों को यह समझना है कि उन्हें अपने बच्चों के साथ कैसा घरेलू बर्ताव करना है।


     डॉ. सत्यवान सौरभ

    वैसे तो इस दौर में पूरी युवा पीढ़ी ही भयावह मानसिक व्याधि से विचलित है, इनमें विशेषत: छात्र विचलन गंभीर चिंता का विषय बन चुका है। हमारे देश में प्रति 100 में 15 से अधिक छात्र आत्महत्या से प्रभावित हो रहे हैं। वे अवसाद, चिंता और आत्मघात से पीड़ित पाए जा रहे हैं। कठिन प्रतिस्पर्धा और पढ़ाई-लिखाई में अनुशासन आदि को लेकर तनाव बढ़ रहा है, उससे न सिर्फ़ शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों, बल्कि पूरे समाज की चिंता बढ़ती गई है। पारिवारिक दबाव, शैक्षिक तनाव और पढ़ाई में अव्वल आने की महत्त्वाकांक्षा ने छात्रों के एक बड़े वर्ग को गहरे मानसिक अवसाद में डाल दिया है। अभिभावकों के सपनों की उड़ान न भर पाने वाले, परीक्षा में खराब प्रदर्शन करने वाले बच्चों को घर पर पिटना पड़ता है। परीक्षा और नतीजों के दबाव में छात्रों की आत्महत्याएँ अब आम घटनाएँ बनती जा रही हैं। छात्र आत्महत्याओं में बेतहाशा वृद्धि के पीछे मानसिक तनाव सबसे आम कारक बन चुका है। तनावग्रस्त छात्रों की आत्महत्याओं का ग्राफ बढ़ता ही जा रहा है। जैसे-जैसे परीक्षा के दिन निकट आते हैं, छात्रों का तनाव हद से गुजरने लगता है। पूरी युवा पीढ़ी का परीक्षा के दिनों में ऐसे हालात से दो-चार होना देश और समाज, अभिभावकों और शिक्षाविदों, सभी के लिए अब गंभीर चिंता का विषय हो चला है। शिक्षा क्षेत्र में दशकों से व्याप्त कई बुनियादी गंभीर समस्याओं और चुनौतियों पर अभी तक पार पाने में कतई कामयाब नहीं हो पा रहा है।

    व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं को अनिवार्य कर दिए जाने के बाद से भारतीय छात्रों को प्रतिस्पर्धा करने और प्रदर्शन करने के लिए भारी तनाव का सामना करना पड़ता है। प्रदर्शन के दबाव को संभालने, माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा करने और आकांक्षाओं को प्राप्त करने में असमर्थता मनोवैज्ञानिक संकट और बाद में अवसाद का कारण बन सकती है। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में अकादमिक उत्कृष्टता की निरंतर खोज ने अनजाने में छात्रों के बीच तीव्र दबाव और प्रतिस्पर्धा का माहौल पैदा कर दिया है। शैक्षणिक उपलब्धियों पर अत्यधिक ध्यान देने के साथ-साथ सामाजिक अपेक्षाओं और असफलता के डर ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला है। इसने चिंता, अवसाद और तनाव जैसे मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों में वृद्धि में योगदान दिया है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा को देखते हुए कई बार छात्रों पर अच्छा प्रदर्शन करने का लगातार दबाव रहता है। वे अपनी तुलना दूसरों से करते हैं और आक्रामकतापूर्वक पूर्णता के लिए प्रयास करते हैं। यह अंतर्निहित दबाव मानसिक परेशानी के विभिन्न रूपों में प्रकट हो सकता है, जिसमें चिंता, विफलता का डर और कम आत्मसम्मान शामिल है। गंभीर मामलों में, मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएँ आत्म-नुकसान का कारण बन सकती हैं और यहाँ तक कि आत्महत्या के प्रयासों के विचार को भी जन्म दे सकती हैं।

    प्रतियोगी पाठ्यक्रम के भारी भरकम बोझ से बच्चों का मानसिक विकास अवरुद्ध हो रहा है। इससे बच्चों को भारी नुक़सान झेलना पड़ रहा है। बच्चों के जीवन में तनाव के पौध की बड़ी वज़ह यह भी है कि लंबे समय तक स्कूल के घंटों के बाद बच्चे घर लौटते ही होमवर्क निपटाने में जुट जाते हैं। इसके बाद ट्यूशन के लिए दौड़ पड़ते हैं। खाना-पीना, सोना, खेलकूद, सब हराम हो जाता है। आराम करने और अन्य पाठ्येतर गतिविधियाँ करने का उन्हें समय ही नहीं मिलता है। ऐसे में छात्रों के लिए कम नींद और अवसाद की स्थिति या गंभीर तनाव का सबब बनी रहती है। वर्तमान प्रतियोगी दौर में छात्रों की आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। परीक्षा केंद्रित शिक्षा से भारत में छात्रों की आत्महत्याओं में अंक, अध्ययन और प्रदर्शन के दबाव के साथ अकादमिक उत्कृष्टता की तुलना करना इस अवसाद के पीछे महत्त्वपूर्ण कारक हैं। भारत में किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे किसी भी छात्र के साथ एक साधारण साक्षात्कार, चाहे वह जेईई, एनईईटी या सीएलएटी हो, यह प्रकट करेगा कि छात्रों के बीच मानसिक संकट का प्रमुख स्रोत उन पर दबाव की असहनीय मात्रा है जो लगभग हर एक द्वारा डाला जाता है। हर शिक्षक, हर रिश्तेदार कठिन अध्ययन और एक अच्छे कॉलेज में प्रवेश पाने के महत्त्व को दोहराते हैं। जबकि छात्र स्कूल से स्नातक होने के बाद क्या करने की आकांक्षा रखता है, या जहाँ उसकी रुचियाँ हैं, उसके बारे में सहज पूछताछ बहुत कम की जाती है।

    इन सभी परीक्षाओं की अत्यधिक जटिल प्रकृति (सभी नहीं) का अनिवार्य रूप से मतलब है कि उन्हें पास करने के लिए माता-पिता को अपने बच्चों को प्रतिष्ठित कोचिंग सेंटरों में दाखिला दिलाने का सपना पूरा करना होगा, इससे छात्र के लिए एक से अधिक तरीकों से समस्या बढ़ जाती है क्योंकि वह कोचिंग पर माता-पिता द्वारा ख़र्च किए गए पैसे को चुकाने के लिए अब परीक्षा को पास करने का दबाव बढ़ गया है और उसे कोचिंग संस्थान के अतिरिक्त दबावों का भी सामना करना पड़ता है। जब तक देश की परीक्षा संस्कृति से इस कुत्सित व्यवस्था को समाप्त नहीं किया जाता है, तब तक छात्रों में आत्महत्या की दर को रोकने के मामले में कोई प्रत्यक्ष परिवर्तन नहीं देखा जाएगा। सरकार को इस मुद्दे पर संज्ञान लेना चाहिए, अगर वास्तव में हम सोचते है कि ” आज के बच्चे कल के भविष्य हैं। जबरन करियर विकल्प देने से कई छात्र बहुत अधिक मात्रा में दबाव के आगे झुक जाते हैं, खासकर उनके परिवार और शिक्षकों से उनके करियर विकल्पों और पढ़ाई के मामले में। शैक्षिक संस्थानों से समर्थन की कमी के चलते बच्चों और किशोरों के मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों से निपटने के लिए सुसज्जित नहीं है और मार्गदर्शन और परामर्श के लिए केंद्रों और प्रशिक्षित मानव संसाधन की कमी है।

    ऐसे कठिन दौर में, आज छात्रों में आत्महत्या की प्रकृति और प्रवृत्ति का नए सिरे से अध्ययन करने की भी बहुत ज़रूरत है, क्योंकि देश की पूरी युवा बौद्धिक संपदा दांव पर लगी हुई है, जिसके दूरगामी गंभीर नतीजे पूरे राष्ट्र के माथे पर गहरा सिकन ला सकते हैं। युवाओं के कंधे पर स्थापित विकासशील प्रगति का पूरा ढांचा ही भरभरा कर गिर सकता है। छात्रों को इसे चुनौती के रूप में लेते हुए पूरी क्षमता के साथ इसका सामना करना चाहिए। परीक्षा जीवन-मृत्यु का प्रश्न नहीं है। परीक्षा परिणामों को जीवन का अंतिम आधार न मानकर अपनी सफलता की राह स्वयं बनानी होती है। बिना श्रम के जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिलती। अभिभावकों को यह समझना है कि उन्हें अपने बच्चों के साथ कैसा घरेलू बर्ताव करना है। छात्रों के बीच मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों की बढ़ती व्यापकता से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें व्यक्ति, संस्थान और समग्र रूप से समाज शामिल हो। सफलता को फिर से परिभाषित करना और छात्रों को अपने जुनून और रुचियों को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करना उनके मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को बढ़ावा देने के लिए आवश्यक है। केवल शैक्षणिक उपलब्धियों पर आधारित सफलता की संकीर्ण परिभाषा से आगे बढ़ने से छात्रों को अपनी अद्वितीय प्रतिभा का पता लगाने और अपने चुने हुए रास्ते में पूर्णता पाने का मौका मिलता है।

    आत्महत्या के जोखिम कारकों को कम करने के लिए शिक्षकों को द्वारपाल के रूप में प्रशिक्षित करना और परीक्षा के नवीन तरीकों को अपनाया जाना चाहिए। छात्रों की सराहना करने की आवश्यकता है और यह बदलना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय समाज शिक्षा को कैसे देखता है। यह प्रयासों का उत्सव होना चाहिए न कि अंकों का। छात्रों की चिंताओं, अवसाद और अन्य मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों को दूर करने के लिए सभी स्कूलों / कॉलेजों / कोचिंग केंद्रों में प्रभावी परामर्श केंद्र स्थापित किए जाने चाहिए। बढ़ते संकट को दूर करने के लिए अतीत की विफलताओं से सीखना और छात्रों, अभिभावकों, शिक्षकों, संस्थानों और नीति निर्माताओं सभी हितधारकों को शामिल करने वाले तत्काल क़दम उठाने की आवश्यकता है।

  • घटते छात्र, बढ़ते स्कूल: क्या शिक्षा नहीं अनुकूल?

    घटते छात्र, बढ़ते स्कूल: क्या शिक्षा नहीं अनुकूल?

    सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन छात्रों का नामांकन घट रहा है। हरियाणा में साल 2023-24 में सरकारी स्कूलों में नामांकन 22.30 लाख रहा, जो साल 2022-23 के 24.64 लाख से कम है। साथ ही, साल 2023-24 में राज्य में कुल नामांकन 56.41 लाख रहा, जबकि साल 2022-23 में यह 57.76 लाख था।साल 2022-23 में लड़कियों का नामांकन (माध्यमिक) 4.4 प्रतिशत था, जो साल 2023-24 में 4.2 प्रतिशत रह गया। दो सालों में लड़कों का नामांकन 5.7 प्रतिशत से गिरकर 5.4 प्रतिशत हो गया। शिक्षा प्रणाली में कुछ चुनौतियाँ हैं जिनके कारण भारत इष्टतम विकास को पूरा करने में सक्षम नहीं है। भारत में शिक्षा के परिदृश्य को बेहतर बनाने एवं छात्रों के नामांकन को बढ़ाने के लिए उन नीतियों पर सख्ती से काम करने की आवश्यकता है जो भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रणाली सुनिश्चित करें।

     

    प्रियंका सौरभ

    शिक्षा के लिए एकीकृत ज़िला सूचना प्रणाली की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत में स्कूलों की संख्या बढ़ रही है, पर स्कूली छात्रों की संख्या घट रही है। स्कूली छात्रों की संख्या घटना न केवल चिंताजनक और विचारणीय है बल्कि नये भारत-सशक्त भारत निर्माण की एक बड़ी बाधा भी है। भारत में स्कूलों की संख्या में करीब 5, 000 की बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्राथमिक, माध्यमिक और वरिष्ठ माध्यमिक स्तरों सहित 14, 89, 115 स्कूल हैं। ये स्कूल 26, 52, 35, 830 छात्रों को पढ़ाते हैं। इनमें से कुछ स्कूलों को उनकी प्रतिष्ठा, स्थापना के वर्षों, महत्त्वपूर्ण स्कूल परिणामों, मार्केटिंग रणनीतियों आदि के कारण उच्च छात्र नामांकन प्राप्त होते हैं लेकिन पर साल 2022-23 व 2023-24 के बीच स्कूली छात्रों के नामांकन में 37 लाख की कमी आई है। यह स्थिति अनेक सवाल खड़े करती है। क्या स्कूली शिक्षा ज्यादातर बच्चों की पहुँच के बाहर है? क्या शिक्षा का आकर्षण पहले की तुलना में घटा है?
    सरकारी स्कूलों में बेहतरीन सुविधाएँ उपलब्ध होने के बावजूद, दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या में वृद्धि नहीं हो रही है। सरकारी स्कूलों में बेहतर सुविधाओं के बावजूद, खराब गुणवत्ता वाली शिक्षा, अपर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षण, जवाबदेही की कमी, निजी स्कूलों से प्रतिस्पर्धा और कुछ क्षेत्रों में अच्छे सरकारी स्कूलों की उपलब्धता के बावजूद निजी स्कूलों में बेहतर शिक्षण परिणाम देने की धारणा के कारण अक्सर छात्रों का नामांकन कम रहता है; इससे माता-पिता निजी स्कूलों को चुनते हैं, भले ही वे सरकारी शिक्षा का ख़र्च वहन कर सकें। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि आजकल छात्र और उनके माता-पिता सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूलों में दाखिला लेना पसंद करते हैं। हम ग्रामीण क्षेत्रों में भी यही प्रवृत्ति देखते हैं, जहाँ अधिकांश माता-पिता कृषि पर निर्भर हैं और कम आर्थिक वर्ग से हैं।
    हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि वे स्कूलों में बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करें ताकि अधिक से अधिक छात्रों को सरकारी स्कूलों में दाखिला लेने के लिए आकर्षित किया जा सके। सुविधाओं में सुधार के बावजूद सरकारी स्कूलों में कम नामांकन के मुख्य कारण हैं अपर्याप्त शिक्षक प्रशिक्षण, कम प्रेरणा और शिक्षकों की उच्च अनुपस्थिति सरकारी स्कूलों में सीखने की गुणवत्ता को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकती है, जिससे माता-पिता बेहतर शिक्षक मानकों वाले निजी स्कूलों का विकल्प चुनते हैं। जब सरकारी स्कूलों में अच्छा बुनियादी ढांचा होता है, तब भी माता-पिता के बीच यह धारणा बनी रहती है कि निजी स्कूल बेहतर शिक्षा प्रदान करते हैं, जिससे निजी संस्थानों को प्राथमिकता मिलती है। सरकारी स्कूलों में खराब निगरानी और मूल्यांकन प्रणाली शिक्षा की असंगत गुणवत्ता को जन्म दे सकती है, जिससे माता-पिता का आत्मविश्वास और भी कम हो सकता है।
    सुविधाओं और मार्केटिंग रणनीतियों वाले निजी स्कूलों की तेज़ी से वृद्धि अक्सर छात्रों को सरकारी स्कूलों से दूर कर देती है, यहाँ तक कि उन क्षेत्रों में भी जहाँ सार्वजनिक शिक्षा के अच्छे विकल्प हैं। कुछ मामलों में, माता-पिता सामाजिक दबाव या उच्च सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि वाले साथियों के नेटवर्क तक पहुँचने की इच्छा के कारण निजी स्कूलों का चयन कर सकते हैं। सरकारी स्कूल हमेशा अपने पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों को आधुनिक शैक्षिक प्रथाओं के साथ संरेखित करने के लिए अपडेट नहीं कर सकते हैं, जिससे गुणवत्ता में अंतर पैदा होता है। हमें सच्चाई को स्वीकार करना होगा, हालाँकि यह कड़वी है। अपर्याप्त सुविधाएँ, शिक्षकों की कम उपस्थिति और पुरानी शिक्षण पद्धतियाँ कुछ ऐसे कारण हैं, जिनके कारण लोग मुफ्त सरकारी स्कूलों को छोड़कर महंगी फीस वाले निजी संस्थानों को चुन रहे हैं, जो कि बहुत अच्छा संकेत नहीं है।
    समस्या केवल यह नहीं है कि निजी स्कूलों में सरकारी स्कूलों की तुलना में दाखिले अधिक होते हैं। सरकारी स्कूलों में देखभाल और ध्यान कम होगा। सरकारी स्कूलों में प्रक्रिया पर औसत नज़र रहेगी। उचित बुनियादी ढांचे की उपलब्धता का सवाल ही नहीं उठता। अपर्याप्त स्टाफ़ के साथ चलने वाले ज़्यादातर स्कूलों में यह बहुत आम बात है। मुख्य रूप से माता-पिता के प्रति उनके बच्चों की शिक्षा के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है। जबकि निजी स्कूलों में उपर्युक्त रणनीति के फॉर्मूलेशन उपलब्ध होंगे, इसके अलावा स्कूल की क्षमता बढ़ाने के लिए व्यावसायिक हथकंडे भी जोड़े जाएँगे। देश के स्कूली इन्फ्रास्ट्रक्चर में हुए सुधार के साथ ही उन अहम दिक्कतों की भी झलक देती है, जिन्हें दूर किया जाना बाक़ी है। बुनियादी सुविधाओं की स्थिति बेहतर होने के बावजूद छात्रों की संख्या का घटना गहन विमर्श का विषय है।
    सरकारी स्कूलों में शिक्षण मानकों को बेहतर बनाने के लिए शिक्षक प्रशिक्षण, योग्य शिक्षकों की भर्ती और प्रदर्शन-आधारित प्रोत्साहन को प्राथमिकता दें। स्कूल के प्रदर्शन की निगरानी करने, सुधार के क्षेत्रों की पहचान करने और छात्रों के सीखने के परिणामों के लिए स्कूलों को जवाबदेह बनाने के लिए मज़बूत सिस्टम लागू करें। विश्वास बनाने और सरकारी स्कूलों को बढ़ावा देने के लिए स्कूल के निर्णय लेने में माता-पिता और समुदाय के नेताओं को शामिल करें। प्रासंगिकता और वर्तमान आवश्यकताओं के साथ संरेखण सुनिश्चित करने के लिए पाठ्यक्रम की नियमित समीक्षा करें और उसे अद्यतन करें। अनुकूल शिक्षण वातावरण प्रदान करने के लिए सरकारी स्कूलों में भौतिक बुनियादी ढांचे में सुधार करने में निवेश करना जारी रखें। नकारात्मक धारणाओं को दूर करने और नामांकन को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी स्कूलों में उपलब्ध शिक्षा की गुणवत्ता को उजागर करने वाले अभियान चलाएँ।
    शिक्षा प्रणाली में कुछ चुनौतियाँ हैं जिनके कारण भारत इष्टतम विकास को पूरा करने में सक्षम नहीं है। भारत में शिक्षा के परिदृश्य को बेहतर बनाने एवं छात्रों के नामांकन को बढ़ाने के लिए उन नीतियों पर सख्ती से काम करने की आवश्यकता है जो भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रणाली सुनिश्चित करें॥

    (लेखिका रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
    कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)

  • India’s first female teacher!

    India’s first female teacher!

    And for the first time in our country, the one who started the education of women and Shudras. “Manusmriti Ke, Nasti Sreenam Kriya Matreh Iti Dharme Vyavasthi (9-18)” means that for women, the marriage ceremony itself is their Vedic or Upanayan ceremony. Women do not need to study with a Guru. Serving their husband is their Gurukul residence. And doing household chores in the kitchen is their ‘Homahavan’. Because this order has been issued by Manusmriti for thousands of years, the doors of education for women are in a state of being closed forever. Mahatma Jyotiba Phule and his life partner Savitribai Phule together have actively revolted against Manusmriti through their works 180 years ago. That too in the stronghold of Peshwai’s Sanatanis like Pune. This is a tremendous social revolution within the entire Hindu religion. Which was done almost two hundred and fifty years ago!
    And that is why on behalf of the Sanatanis, Savitribai Phule was seen walking through showers of mud, dung and pebbles on her every day. After going to her school, she changed her clothes smeared with mud and dung and started teaching. This means that what kind of a person Savitribai was made of? This is revealed. Today, there are examples of people leaving schools just because of a small taunt. And two hundred and fifty years ago, on a woman walking on the road, some mischievous people were throwing pebbles, mud and dung on her every day. Only an extraordinary person can do the sadhana of going to school and teaching after tolerating it calmly. We have been hearing the story of a Savitri in the Puranas since childhood, who even brought her husband back to life. This is the Savitri of the modern age. For women, Shudras and the downtrodden. The work done with such devotion by Savitribai, who started education, could only be done by Savitribai Phule of the modern era!
    Today, the President of our country is a tribal woman! To reach that position! If the ruling party thinks that! This is the work of their political wisdom! Then they are mistaken! Because even today their parent organization Sangh, Dr. Baba Saheb Ambedkar had announced the constitution for the first time in the Constituent Assembly! Immediately after that, the then Sangh Pramukh Shri. Madhavrao Sadashivrao Golwalkar said that the current constitution does not include anything of Indianness! This constitution is a rag after copying the constitutions of foreign countries, what is the need for this when we have a constitution written by our thousands of years old sage Manu? And some officials of their party are also trying to glorify Manusmriti! In which women have been asked to do only household chores inside the four walls of the house!
    Which was violated two hundred years ago by Savitribai Phule by starting schools for women and Shudras. And she endured the rhetoric and physical torture of the then Hindutvaites. Due to the uninterrupted work of educating women and Shudras, today in our country, women are getting the opportunity to work shoulder to shoulder with men in every field of life, from the post of President to every other field. Hence, humble greetings on the 194th birth anniversary of Savitribai Phule, the liberator of women and Shudras.
    And with all due respect to our country’s second President Sarvepalli Radhakrishnan, we would say that the true Teachers’ Day should be on January 3rd because Savitribai Phule started schools for women and Shudras for the first time in the history of India. And under what circumstances did she do it? Therefore, Teachers’ Day should be celebrated on the occasion of Savitribai Phule’s birthday. The only program of the current ruling party is to change the names of many schemes and cities of our country. And naturally, the current President being a tribal woman, she would know very well how she has reached this position. So we request her that Teachers’ Day should be celebrated on January 3rd. Even today, not all people of India are aware of the works of Phule husband and wife. From caste eradication to fighting against our wrong customs and most importantly, establishing schools for the education of women and Shudras. It was started two hundred and fifty years ago. Before 1882, Mahatma Phule had given a detailed proposal for education to the Hunter Commission set up for education.
    Today is the 193rd birth anniversary of Savitribai Phule. The bicentenary will be celebrated in the year 2031. Savitribai was born on 3 January 1831 in a village named Naigaon in Khandala tehsil of Satara district. That means two years and nine months and fifteen days before the death of Raja Ram Mohan Roy. She got married to Jyotiba Phule in the ninth year of her age. And immediately after completing her teacher training in Normal School during 1845-47, on 1 January 1848, 99 years before the independence of India, she started the first girls’ school in Budhwar Peth, Pune, at a place named Bhide Wada. And she herself started working as a teacher. And among her first students were 4 Brahmins, 1 Dhangar (from the sheep-goat herding community!) and 1 Maratha. There were a total of six students namely (1) Annapurna Joshi (2) Sumati Mokashi (3) Durga Deshmukh (4) Madhavi Thatte (5) Sonu Pawar (6) Jani Kardale. These six girls were the first students of Savitribai Phule.
    After five months, Jyotiba Phule established a second school on 15 May 1848 in Maharwada (a Dalit colony is called Maharwada in Marathi). And in the same year, the Phule couple and their colleagues established an education institution for women and Shudras in Pune named ‘Native Female Schools’. Seeing all these activities, Govindrao Phule, who was Jyotiba Phule’s father, threw Jyotiba and Savitribai Phule out of the house in 1849 due to pressure from the orthodox people. And Savitribai’s parents also had the same attitude.
    So Jyotiba’s Muslim friend named Usman Sheikh, after giving them shelter in his house, allowed them to open a school for adults in his house. And his sister Fatima Sheikh started helping Savitribai in the education work going on in Pune. During 1849-50, after opening schools in three districts of Pune, Satara and Ahmednagar, Savitribai Phule worked as a teacher here too. In 1851, she established an independent school for the girls of Maharwada. And on 3 July 1851, she started a girls’ school in Rasta Peth, Pune.
    In 1852, a felicitation ceremony was organized by the British government for her educational work under the chairmanship of Major Candy. In which, after inspecting her schools, Savitribai Phule was declared an ideal teacher. In a newspaper named Pune Observer dated 29 May 1852, it was written that “The number of girls in Savitribai Phule’s schools is ten times more than in government schools. And the main reason for this is that the system of education for girls there is of a better standard than in government schools.”
    Savitribai lived a total of 66 years and two months, but devoted every moment to public works. Jyotiba’s life journey ended on 28 November 1890, at the age of 63 years and six months. And after his death, his adopted son Yashwant passed his matriculation examination in 1893 and joined the army as a doctor. And the plague epidemic began, in which Yashwant’s wife died on 6 March 1895. And Savitribai was doing tremendous service during the plague epidemic. She carried a Dalit youth suffering from plague on her back for treatment and herself became a victim of the plague. She ended her life on 10 March 1897.
    In true sense, a thousand salutations to the memory of D-class, D-caste and D-woman Yugashree Savitribai Phule! She kept trying especially to complete every work started by Jyotiba later! On Jyotiba’s first remembrance day! Otur herself was present near Ahmednagar! And in the same program, Mahatma Phule’s first biography ‘Amarjivan’ was published! On 7 November 1892, his second poetry collection ‘Baavannakashi Subodh Ratnakar’ was published!
    And in 1893, she was the President of Satyashodhak Parishad near Saswad, Pune. At a time when women were forbidden to step out of their homes. This was probably the first time that Savitribai presided over a public function. This was started by her after Mahatma Phule’s departure. The event of her being conferred the position of President in the convention of Satyashodhak Samaj took place 131 years ago. Savitribai is the highest example of Phule’s independent personality. In the true sense, it is the best example of women’s liberation.
    On the other hand, in Bengal too, Pandit Ishwar Chandra Vidyasagar started women’s education eight to ten years later! During 1856-57! Therefore, Savitribai Phule was the first female teacher and the one who started education for women! Therefore, today on the occasion of Savitribai Phule’s 194th birthday, we are making a humble request to the President of our country, Mrs. Draupadi Murmuji, to declare Teachers’ Day in India on January 3 instead of September 5!
    Dr. Suresh Khairnar, January 3, 2025, Nagpur.

  • पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा का दस्तावेज है – ‘…लोगों का काम है कहना’

    पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा का दस्तावेज है – ‘…लोगों का काम है कहना’

     सुदर्शन व्यास (समीक्षक साहित्यकार एवं पत्रकार हैं।)

    ‘लोगों का काम है कहना…’ पुस्तक का आखिरी पन्ना पलटते समय संयोग से महात्मा गांधी का एक ध्येय वाक्य मन–मस्तिष्क में गूंज उठा – ‘कर्म ही पूजा है’। जब मैं इस किताब को पढ़ रहा था तो बार–बार महात्मा गांधी का ये वाक्य सहसा अंतर्गन में सफर कर रहा था। ये कहूँ तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि बापू के इस विचार को चरितार्थ उस शख्सियत ने किया है जिनके जीवनवृत्त पर ये पुस्तक लिखी गई है। प्रो. (डॉ) संजय द्विवेदी भारतीय मीडिया जगत में सुपरिचित और सुविख्यात नाम हैं। वरिष्ठ पत्रकार और मीडियाकर्मियों के लिए ये नाम इसलिए जाना–पहचाना है क्योंकि संजय जी अनथक मीडिया के विभिन्न आयामों के जरिये सक्रिय रहते हैं। पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए यह नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उल्लेखनीय है कि पत्रकारिता के विद्यार्थी संजय जी को मीडिया गुरु कहना ज्यादा पसंद करते हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मैंने देखा है कि माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलसचिव तथा प्रभारी कुलपति की जिम्मेदारी का निर्वहन करते हुए भी विद्यार्थियों को बतौर शिक्षक पढ़ाना उनकी दैनंदिनी रही थी। इसीलिए प्रो. (डॉ) संजय द्विवेदी देशभर में पत्रकारिता के कुनबे की हर पीढ़ी में एक पत्रकार, एक शिक्षक, एक लेखक, एक विश्लेषक, एक विचारक और मीडिया गुरू के रूप में सम्मान के साथ याद किये जाते हैं।

    प्रो. (डॉ) संजय द्विवेदी पर एकाग्र पुस्तक ‘लोगों का काम है कहना…’ उनके व्यक्तित्व के साथ ही कृतित्व पर मूलत: आधारित है। पुस्तक में देश के 14 मूर्धन्य विद्वानों द्वारा द्विवेदी जी के विचारों, उनके लेखकीय और प्रशासकीय यात्रा का जिस तरह से वर्णन किया है, इससे यह स्पष्ट होता है कि अपने जीवन का एक–एक क्षण पत्रकारिता और लेखन को समर्पित कर देना संजय जी का मानो एकमात्र लक्ष्य हो। वैसे, प्रो. द्विवेदी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित यह पहली पुस्तक नहीं है। इससे पहले ‘कुछ तो लोग कहेंगे’, ‘संजय द्विवेदी का सृजन संसार’ और ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’ प्रकाशित हो चुकी हैं और इन पुस्तकों को मीडिया के मोहल्ले में खूब सराहा भी गया।
    ‘…लोगों का काम है कहना’ शीर्षक अपने आप में प्रो. द्विवेदी के विचारों को सु-स्पष्ट करता है। मैं पुस्तक के संपादक लोकेन्द्र सिंह को बधाई दूंगा कि उन्होंने यह शीर्षक चुना। यह शीर्षक ही अपनेआप में एक बड़ा अध्याय या कहूं कि किताब की तरह है, जो कि प्रो. द्विवेदी के जीवनवृत्त को उजागर करता है। प्रो. द्विवेदी के व्यक्तित्व से स्पष्ट झलकता है कि वे अपने काम में सदैव मगन होकर, व्यर्थ में एक क्षण गवाएँ बिना अपने लेखन कार्य के माध्यम से देश तथा समाजहित में सदैव कार्यरत रहते हैं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे या लोगों का काम है कहना’ – ये विचार आदरेय संजय जी का जीवन दर्शन है, क्योंकि ये कहने की जिम्मेदारी उन्होंने लोगों को देकर रखी है। यही कारण भी है कि वे डेढ़ दशक से अधिक समय पत्रकारिता में सक्रिय रहे। राजनीतिक और मीडिया संदर्भों पर अबतक लगभग 3 हजार से अधिक आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में 18 वर्षों से अधिक का अनुभव तथा माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में प्रभारी कुलपति, कुलसचिव तथा दस वर्षों तक जनसंचार विभाग के अध्यक्ष की जिम्मेदारी को कुशलतापूर्वक निभाया। इसके साथ ही भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक रहे। अबतक विभिन्न विषयों पर 11 पुस्तक प्रकाशन एवं 21 पुस्तकों का संपादन तथा उनके व्यक्तित्व पर 4 पुस्तकों का प्रकाशन उनकी पत्रकारिता की सतत् जारी साधना के फलसफें बयां कर रही है। कुल 156 पृष्ठों की यह पुस्तक प्रो. संजय द्विवेदी जी के जीवनवृत्त के जरिये पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए पठनीय, प्रेरणा के दस्तावेज की तरह है। पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में प्रो. द्विवेदी जी की अक्षर साधना अनवरत रहे तथा वे पत्रकारिता की नवपौध के प्रेरणापुरुष रहें, यही कामना है। शेष …लोगों का काम है कहना।

    पुस्तक-चर्चा-
    पुस्तक – …लोगों का काम है कहना
    संपादक –लोकेन्द्र सिंह
    प्रकाशक – यश पब्लिकेशंस, नई दिल्ली
    मूल्य – ₹350/- मात्र

  • अनुशासनात्मक ज्ञान विद्यार्थी जीवन का मूलाधार 

    अनुशासनात्मक ज्ञान विद्यार्थी जीवन का मूलाधार 

    प्रो. नचिकेता सिंह

    मैं सभी विद्यार्थियों का नए शैक्षणिक सत्र में स्वागत करते हुए बहुत खुशी का अनुभव कर रहा हूँ। सभी सेमेस्टर के विद्यार्थियों को एक साथ कॉलेज परिसर में देखकर बहुत उत्साहित भी हूँ । इस मौके पर आप सभी को एक संदेश देते हुए यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि हमारा कॉलेज प्रशासन आपकी क्षमताओं को विकसित करने के लिए हमेशा तत्पर रहेगा । क्योंकि हम अपने सभी विद्यार्थियों को उत्कृष्ट शिक्षा प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध हैं ।किसी भी शैक्षणिक सत्र के पहले कुछ दिन महाविद्यालयी जीवन से आपका परिचय करने या कराने की गतिविधियों में निकल जाता है। इस दौरान आपको अपने कॉलेज के इतिहास, उसकी संगठनात्मक संरचना, कॉलेज में प्राप्त शिक्षा के लाभ का मूल्यांकन करने के साथ ही,यहाँ की नीतियों से अवगत होने में मदद मिलती है।इसीलिए कॉलेज में आयोजित होने वाले अभिमुखी कार्यक्रम कॉलेज प्रशासन और नए विद्यार्थियों के बीच आपसी संबंध को विकसित करने के साधन बनते हैं।हम इन सालों में कक्षाओं में या उसके बाहर होने वाली गतिविधियों में आमने- सामने बैठकर एक –दूसरे को जानने की कोशिश में नए कौशल के मार्ग तलाशें जाएं, यही हमारा उद्देश्य होना चाहिए।
    जीवन में कामयाबी हर व्यक्ति का सपना होता है, जिसे पूरा करने के लिए कठिन परिश्रम एवं अनुशासन की बहुत  जरूरत होती है। इस कॉलेज की खासियत है कि हम अपने यहाँ के अनुशासनात्मक माहौल को ज्ञान की धारा के माध्यम से जीवंत,सौहार्दपूर्ण  और समावेशी बनाने के लिए हमेशा हर संभव कोशिश करते हैं।इसलिए सभी विद्यार्थियों से हम अपेक्षा रखते हैं कि कोई भी विद्यार्थी किसी की भी रैगिंग न करे और  न कॉलेज परिसर में इसे  होने दे। यदि इसमें कोई भी विद्यार्थी संलिप्त पाया गया तो उस पर उचित दंडात्मक कार्यवाही होगी। अतः आप सभी विद्यार्थियों से कॉलेज प्रशासन उम्मीद करता है कि आप कॉलेज के इस माहौल को बनाये रखने में हम सबका सहयोग करेंगे।  क्योंकि शिक्षा का मतलब सिर्फ़ ज्ञान और कौशल को हासिल करना ही नहीं होता , बल्कि वह हमें ऐसे जीवन के लिए तैयार भी करती है,जो समाज और राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में काम आए। यही सोच आप सभी के भविष्य में बहुत काम आएगी, चाहे आप उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हों  या अपने पसंद के कार्यक्षेत्र में काम कर रहे हों। यही वजह है कि हम विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखते हुए पाठ्येतर गतिविधियों के महत्व को समझते हैं,इसलिए हम अपने विद्यार्थियों को कक्षा के बाहर की विभिन्न गतिविधियों में भाग लेने के लिए  हमेशा प्रोत्साहित और प्रेरित करते हैं।इसी को ध्यान में रखते हुए कॉलेज की अनेक कमेटियाँ इन पाठ्येतर गतिविधियों को पूरे सत्र में अनेक रूपों में चलतीं हैं। आप सभी विद्यार्थियों को यह सुझाव है कि आप अपनी पसंद की किसी भी कमेटी के सदस्य बनकर उसमें सक्रिय भूमिका के द्वारा अपने कौशल को निखार सकते हैं। हमारे कॉलेज का पुस्तकालय पुस्तकों से संबंधित सभी मामलों में बहुत समृद्ध है। इसका यथोचित लाभ आप सभी लोग लें।
    कॉलेज के शैक्षणिक सफलता के वातावरण को बनाने और उसे विकसित करने के लिए जरूरी है कि आप सभी नियमित रूप से क्लास में आएं।इसीलिए आप सभी की क्लास में 67 % उपस्थिति अनिवार्य की गई है।इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए हमारे पास अनेक उत्कृष्ट संकाय सदस्यों और नॉन –टीचिंग कर्मचारियों की टीमें हैं। ये सभी आपको हर तरह से हर संभव सर्वोत्तम शिक्षा प्रदान करने के लिए समर्पित हैं। लेकिन यह समर्पित भाव एक तरफा नहीं होना चाहिए। विद्यार्थियों को भी उसी समर्पित भाव से कॉलेज के विकास में अपना योगदान देना चाहिए। यह हमारे साथ आप अभी विद्यार्थियों का भी कर्तव्य है । क्योंकि शिक्षा एक यात्रा है, कोई मंजिल नहीं। हम  कड़ी मेहनत, दृढ़ इच्छा-शक्ति और समावेशी विकास की मानसिकता के साथ वह सब कुछ हासिल कर सकते हैं, जो आप अपने मन में ठान चुके हैं। क्योंकि अनुशासनात्मक ज्ञान विद्यार्थी जीवन का मूलाधार है। यही मूलाधार मजबूत नींव बनकर विद्यार्थियों के भविष्य की नई इमारतें खड़ी करने में सहायक होती है। हम आपको पूरे शैक्षणिक सत्र में इसीअनुशासनात्मक ज्ञान को सिखाने और समझाने की कोशिश करते रहेंगे ।
    अंत में आप सभी विद्यार्थियों को उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं देते हुए यह कहना चाहता हूँ कि आपका उज्ज्वल भविष्य आपकी दृढ़ संकल्पनात्मक शक्ति, आशा के धरातल पर खड़े होकर नए विजन को तैयार करने एवं आत्म-आश्वासन के संयोजन से ही संभव है। हम सभी आज से ही यह प्रण लें कि अपने महाविद्यालय के विकास में एकजुट होकर काम करेंगे ,जिससे हमारा महाविद्यालय देश के अग्रणी महाविद्यालयों में भी शुमार हो।

    (लेखक श्यामलाल कॉलेज (सांध्य), दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रिंसिपल हैं)

  • प्राकृतिक खेती पर वैज्ञानिकों को और अनुसंधान करने की जरूरत : कुलपति

    प्राकृतिक खेती पर वैज्ञानिकों को और अनुसंधान करने की जरूरत : कुलपति

    सुभाष चंद्र कुमार
    समस्तीपुर पूसा। डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय स्थित विद्यापति सभागार में बदलते जलवायु परिदृश्य में प्राकृतिक खेती और इसके महत्व पर चल रहे दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यशाला रविवार को संपन्न हुई। जिसकी अध्यक्षता करते हुए केंद्रीय कृषि विश्वविधालय के कुलपति, डॉ पुण्यव्रत सुविमलेंदु पांडेय ने एक सतत कृषि पद्धति के रूप में प्राकृतिक खेती के महत्व पर बल दिया।

    उन्होंने विषम मौसम परिस्थितियों में इसकी क्षमता और जल उपयोग की दक्षता को रेखांकित किया। डॉ पांडेय ने कहा कि प्राकृतिक खेती को धरातल पर उतारने के लिए सीमित वैज्ञानिक आंकड़े उपलब्ध है। प्राकृतिक खेती पर वैज्ञानिकों को और ज्यादा से ज्यादा नवीनतम टेक्नोलॉजी पर आधारित अनुसंधान करने की जरूरत है।

    उन्होंने वैज्ञानिकों से जलवायु परिवर्तन और प्राकृतिक कृषि के सामाजिक-आर्थिक पहलुओं तथा इसके प्रभाव को समझने के लिए और शोध करने का आह्वान किया। इस कार्यशाला में दो दिन में छह तकनीकी सत्र आयोजित किया गया। जिसमें देश भर के दो सौ से अधिक कृषि वैज्ञानिकों ने अपने विचार प्रस्तुत किया। इस कार्यशाला में प्राकृतिक कृषि के क्षेत्र में अनुसंधान और विकास कार्यों को बढ़ाने का आह्वान किया गया।

    कार्यशाला में देश के प्रमुख कृषि वैज्ञानिकों ने तकनीकी सत्रों के अतिरिक्त एक पैनलिस्ट चर्चा में भी शिरकत की जिसमें कृषि विश्वविद्यालय आनंद, गुजरात के कुलपति डॉ सी.के. टिम्बडिया और बिहार पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ रमेश्वर सिंह भी शामिल थे। डॉ सी.के. टिम्बडिया ने प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने में डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा बिहार के नेतृत्व की सराहना की।

    उन्होंने आशा व्यक्त करते हुए कहा कि अन्य कृषि विश्वविद्यालय भी इसका अनुसरण करेंगे और किसानों के लिए व्यापक कृषि पद्धतियों को विकसित करने का आह्वान किया। डॉ टिम्बडिया ने कहा कि केंद्रीय कृषि विश्वविधालय पूसा ने कुलपति डॉ पी एस पांडेय के नेतृत्व में देश को जलवायु परिवर्तन के परिदृश्य में प्राकृतिक कृषि की एक नई राह दिखाई है।

    उन्होंने कहा कि डॉ पांडेय डिजिटल एग्रीकल्चर, ड्रोन ट्रेनिंग सहित पुरातन प्राकृतिक कृषि पर भी देश को नई राह दिखा रहे हैं। उन्होंने कहा कि अन्य कृषि विश्वविद्यालय भी पूसा के दिखाये गये रास्ते पर चलने का प्रयास करेंगे। बिहार पशु विज्ञान विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ रामेश्वर सिंह ने कहा कि पूसा ने पहले भी कृषि को नई दिशा दी है और आज भी केंद्रीय कृषि विश्वविधालय नवोन्मेषी अनुसंधान में अग्रसर है।

    उन्होंने कहा कि पशु विज्ञान विश्वविद्यालय भी केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा के विभिन्न सुझावों को अपने विश्वविद्यालय में लागू करेगा‌ उन्होंने कहा कि इस कार्यशाला में देश के विद्वानों ने नई राह दिखाई है। इस कार्यशाला से जो वैज्ञानिक सत्व निकले हैं वे कृषि के क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभायेंगे। कार्यशाला का समापन स्नातकोत्तर कृषि महाविद्यालय (पीजीसीए) के डीन सह कार्यशाला के अध्यक्ष डॉ मयंक राय के धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ।

    डॉ राय ने विश्वास व्यक्त किया कि दो दिवसीय कार्यक्रम से प्राप्त विचार-विमर्श नीति निर्माताओं को प्राकृतिक खेती पद्धतियों को लागू करने की दिशा में कार्य करने के लिए बहुमूल्य जानकारी प्रदान करेगा। कार्यशाला में विश्वविद्यालय के निदेशक शिक्षा डा उमाकांत बेहरा, निदेशक अनुसंधान डॉ ए के सिंह, जलवायु परिवर्तन पर उच्च अध्ययन केंद्र के परियोजना निदेशक डॉ रत्नेश कुमार झा समेत विभिन्न वैज्ञानिक शिक्षक और पदाधिकारी भी मौजूद थे।

  • श्यामलाल महाविद्यालय (सांध्य) के राजनीतिक विज्ञान विभाग में संगोष्ठी

    श्यामलाल महाविद्यालय (सांध्य) के राजनीतिक विज्ञान विभाग में संगोष्ठी

    दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामलाल महाविद्यालय (सांध्य) के राजनीतिक विज्ञान विभाग ने “भारत और समकालिक विश्व : विदेश नीति के नए आयाम विकसित भारत के लक्ष्य” विषय पर सेमिनार का आयोजन किया।आयोजन का आरंभ दीप प्रज्वलन के साथ हुआ ।

    महाविद्यालय के भूतपूर्व प्राचार्य प्रो. रमेश कुमार ने अध्यक्षीय वक्तव्य में भारत की समकालीन विदेश नीति की रूपरेखा को साझा किया। सेमिनार के मुख्य वक्ता प्रो. नचिकेता सिंह ने भारत विदेश नीति विषय पर एक सारगर्भित व्याख्यान के दौरान कुछ प्रमुख आयामों पर प्रकाश डाला| मसलन आजादी के बाद भारत की विदेश नीति, नेहरूवादी अंतर्राष्ट्रीयवाद, शीत युद्ध के परिवेश में गुटनिरपेक्षता की भूमिका, भारत चीन व भारत-पाकिस्तान युद्ध, शीत युद्ध के अंत के उपरांत एक विश्व से बहुध्रुवीय विश्व की और किए गए भारत के प्रयास, 2001 में 9/11 की घटना के परिणाम स्वरूप भारत अमेरिकी दोस्ती नए दौर में प्रवेश करती है | जिसके फलस्वरुप भारत अमेरिकी सिविल परमाणु समझौता 2008, पूर्व की ओर देखो से एक्ट ईस्ट पॉलिसी, भारतीय सीमा से सटे पड़ोसी देशों के साथ मैत्री संबंधों की पहल और विकसित भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने के मार्ग में आने वाली सामाजिक आर्थिक राजनीतिक चुनौतियां जैसे ज्वलंत मुद्दों पर प्रो. सिंह ने अपने ज्ञान व समझ ‌को बच्चों के साथ साझा करके उनका भारत की विदेश नीति के संबंध में ज्ञान विस्तार करने का कार्य किया।
    महाविद्यालय के आइक्यूएसी कन्वेनर डॉ. प्रमोद कुमार द्विवेदी अपने संबोधन में राजनीतिक विज्ञान विभाग को बधाई दी और आगे भी इसी प्रकार के कार्य करने के लिए प्रेरित किया। सेमिनार के अंत में विभागाध्यक्ष प्रो. कुमार प्रशांत के धन्यवाद ज्ञापन किया।
    इस सेमिनार में सेमिनार के सहसंयोजक डॉ. मनोज कुमार, राजनीति विज्ञान विभाग के जुड़े अनेक अध्यापकों, अन्य विभागों के अध्यापक और विद्यार्थियों की उपस्थिति रही।

  • ईसीएल कुनुस्तोडिया क्षेत्र का त्रैमासिक पत्रिका समृद्धि का नया अंक का विमोचन

    ईसीएल कुनुस्तोडिया क्षेत्र का त्रैमासिक पत्रिका समृद्धि का नया अंक का विमोचन

      आशीष कुमार मिश्रा

    पांडवेश्वर , ईसीएल के कुनुस्तोडिया क्षेत्र के सभागार में क्षेत्र के महाप्रबंधक एस सी मित्रा ने क्षेत्र की त्रैमासिक पत्रिका समृद्धि के नये अंक का विमोचन किया ,इस अवसर पर महाप्रबंधक ने कहा की क्षेत्र का सीएसआर और वेलफेयर विभाग की ओर से त्रैमासिक पत्रिका समृद्धि का प्रकाशन एक सराहनीय कार्य है ,पत्रिका का प्रकाशन होने से क्षेत्र की सभी विभागों की गतिविधियों की जानकारी क्षेत्र के कर्मियो और अधिकारियों के साथ आमलोगों को मिलती है ,महाप्रबंधक ने त्रैमासिक पत्रिका समृद्धि की उज्वल भविष्य की कामना भी किया,इस अवसर पर क्षेत्रीय कार्मिक प्रबंधक राजेश त्रिवेदी,क्षेत्रीय अभियंता,वित प्रबंधक समेत अन्य अधिकारी उपस्थित थे,

  • स्कूलों की मनमानी, किताबें बनी परेशानी

    स्कूलों की मनमानी, किताबें बनी परेशानी

    निजी स्कूल बने किताबों के डीलर तो दुकानदार बने रिटेलर।

     

     

    स्कूलों द्वारा तय निजी प्रकाशकों की किताबें एनसीईआरटी की किताबों से पांच गुना तक महंगी हैं। एनसीईआरटी की 256 पन्नों की एक किताब 65 रुपये की है जबकि निजी प्रकाशक की 167 पन्नों की किताब 305 रुपये में मिल रही है। कई किताबों में तो प्रिंट रेट के ऊपर अलग से प्रिंट स्लिप चिपकाकर प्रकाशित मूल्य से कहीं अधिक वसूली की जाती है। निजी स्कूलों में कमीशन के चक्कर में हर साल किताबें बदलने के साथ अलग-अलग प्रकाशकों की महंगी किताबें लगाई जाती हैं। अभिभावक भी बच्चों के भविष्य को लेकर ज्यादा विरोध नहीं कर पाते। छोटे-छोटे बच्चों की चुनिंदा किताबें लेना अब अभिभावकों की मजबूरी बन गई हैं। निजी स्कूलों की मनमानी से माता-पिता पिस रहे हैं। सरकार, जनप्रतिनिधि प्रशासन चुप हैं?

     

    प्रियंका सौरभ

    स्कूलों में नया सत्र शुरू होते ही अभिभावकों की परेशानी बढ़ गई है। एक से दो माह की फीस के साथ स्कूलों में डेवलपमेंट फीस के नाम पर ली जाने वाली मोटी रकम भरनी है तो कॉपी-किताब भी खरीदना है। कॉपी-किताब का सेट इतना महंगा है कि उसे खरीदने में अभिभावकों के पसीने निकले जा रहे हैं। कई निजी स्कूलों में तो पहली व आठवीं कक्षा की किताबों का सेट छह से 10 हजार रुपये पड़ रहा है। प्रशासन और शिक्षा विभाग इस लूट पर चुप्पी साधे हुए हैं। इन दिनों सभी पुस्तक विक्रेताओं के यहां लंबी लाइनें लग रहीं हैं। परिजन बच्चों की किताबें खरीदने चुनिंदा दुकानों पर पहुंच रहे हैं। स्कूलों द्वारा तय निजी प्रकाशकों की किताबें एनसीईआरटी की किताबों से पांच गुना तक महंगी हैं। अधिकांश निजी स्कूल संचालक राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की किताबें मंगवाने में रुचि नहीं दिखाते। निजी विद्यालयों में 80 फीसदी निजी प्रकाशकों की महंगी किताबें पढ़ाई जाती हैं।

     

    इन किताबों की कीमत एनसीईआरटी से कई गुणा अधिक होती हैं। कई किताबों में तो प्रिंट रेट के ऊपर अलग से प्रिंट स्लिप चिपकाकर प्रकाशित मूल्य से कहीं अधिक वसूली की जाती है। निजी स्कूलों में कमीशन के चक्कर में हर साल किताबें बदलने के साथ अलग-अलग प्रकाशकों की महंगी किताबें लगाई जाती हैं। एनसीईआरटी की 256 पन्नों की एक किताब 65 रुपये की है जबकि निजी प्रकाशक की 167 पन्नों की किताब 305 रुपये में मिल रही है। ऐसी कौन की किताबें स्कूल पढ़ा रहा है जो 500 से 600 रुपये में मिल रहीं हैं। इतनी महंगी तो बीए-एमए की किताबें भी नहीं आतीं। पहले बड़े बच्चे की किताबों से उनका छोटा बच्चा पढ़ लेता था क्योंकि किताबें वही रहती थी। लेकिन अब बड़े बच्चों की किताबें छोटा बच्चा प्रयोग नहीं कर पाता क्योंकि हर साल जान – बूझकर किताबों में कोई न कोई बदलाव कर दिए जाते हैं। किताबों के कवर भी बदले होते हैं जिससे पता नहीं चल पाता कि यह पुरानी पुस्तक है या नई। पुस्तक के एक पन्ने के संशोधन के लिए नई किताब लेनी पड़ती है।

     

    स्कूलों का सिलेबस हर साल बदल जाता है। लेकिन एनसीईआरटी द्वारा बड़ी रिसर्चों के साथ बनाया गया पाठ्यक्रम बरसों से एक जैसा ही है। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि निजी स्कूलों में लागू पाठ्यक्रम का स्टैंडर्ड एक ही साल इतना गिर जाता है कि स्कूलों को उसे बदलना पड़ता है। लेकिन ऐसा नहीं है, पाठ्यक्रम का स्टैंडर्ड तो ठीक होता है, लेकिन स्कूलों को अपनी कमीशन में कटौती का डर होता है। यदि पुराना सिलेबस लागू किया जाए तो छात्रों को वे सभी किताबें शहर की सभी दुकानों पर मिल जाएंगी। कुछ छात्र पुरानी किताबों के साथ भी काम चलाने का प्रयास करेंगे। ऐसे में निजी स्कूलों की अवैध कमाई को धक्का लग सकता है। निजी स्कूल इसके पक्ष में नहीं है। स्कूलों द्वारा जो पाठ्यक्रम में बदलाव होता है, वह केवल नाममात्र सीक्वेंस का बदलाव होता है। जिसमें किताबों में लिखे अध्याय की क्रम संख्या को बदल दिया जाता है, ताकि छात्र पिछले वर्ष की किताबों का इस्तेमाल न कर सकें। इसकी कोई समय सीमा क्यों नहीं तय की गई कि कितने समय के बाद पुस्तकों में संशोधन किया जाना है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से होने के बावजूद बच्चों को एनसीईआरटी की जगह निजी प्रकाशकों की किताबें लेने को कहा जाता है।

     

    एनसीईआरटी की पुस्तकें तो हर दुकान में मिल जाती हैं पर निजी प्रकाशकों की किताबें लेने के लिए निश्चित दुकान पर आना पड़ता है। कहीं और ये किताबें नहीं मिलतीं। एटलस, मानव मूल्य की पुस्तक, व्याकरण, कॉम्पैक्ट, ग्राफ बुक, आदि ऐसी चीजें है जो पूरे साल कहीं नहीं लगतीं, फिर भी लेनी पड़ती हैं क्योंकि स्कूल कहता है। 488 रुपये की कॉम्पैक्ट असाइनमेंट, 50 रुपये की ग्राफ बुक आदि लेते-लेते बिल हजारों में चला जाता है।चाहे प्रदेश सरकार हो या केन्द्र सरकार, शिक्षा पर किसी का ध्यान नहीं है। इस क्षेत्र में निजी स्कूलों द्वारा जनता से खुली लूट हो रही है। कोई भी सरकार इस तरफ ध्यान नहीं दे रही। शिक्षा का स्तर क्या है और वहां किस प्रकार से लूट मची है? कोई देखने वाला नहीं है। स्कूल और निजी प्रकाशकों की दादागिरी पर प्रशासन भी चुप है और अभिभावकों के हित के लिए कुछ नहीं कर पा रहा। देश भर में प्रशासन ने निर्देश जारी किए है कि सभी स्कूलों में एनसीईआरटी की पुस्तकें पढ़ाई जाएंगी, पर कोई भी निजी स्कूल इसका पालन नहीं कर रहा। सब अपनी मर्जी से प्राइवेट पब्लिशर की किताबों की सूची अभिभावकों को थमा रहे हैं। अभिभावक भी बच्चों के भविष्य को लेकर ज्यादा विरोध नहीं कर पाते।

     

    एनसीईआरटी की किताबों में पुस्तक विक्रेताओं को मात्र 15 से 20 फीसद ही कमीशन मिलता है। जबकि अन्य प्रकाशकों से 30 से 40 फीसदी तक कमीशन देते हैं। इसके अलावा स्टेशनरी के आफर अलग मिलते हैं। इस मोटे कमीशन के लालच में स्कूल संचालक प्रकाशकों से सीधा डील कर सीधे स्कूलों में ही किताबें मंगा लेते हैं। जिससे पुस्तक विक्रेताओं को मिलने वाली पांच से 10 फीसदी का कमीशन भी निजी स्कूलों को मिलता है या फिर स्कूल द्वारा निर्धारित किए गए पुस्तक विक्रेताओं से अपना कमीशन प्राप्त करते हैं। प्रतिवर्ष होने वाले इस खेल में ही स्कूल संचालकों को लाखों का फायदा होता है। कोई भी अभिभावक अपने बच्चे के भविष्य से खिलवाड़ नहीं करना चाहता क्योंकि शिकायत के बाद पुस्तक विक्रेता पर कार्रवाई हो न हो, स्कूल बच्चे पर जरूर कार्रवाई कर देगा। ऐसे में सवाल है कि क्या अधिकारियों को खुलेआम हो रही यह लूट दिखाई नहीं दे रही। /कहानी/लेख नितांत मौलिक और अप्रकाशित है।