भीमराव अंबेडकर और आज: विचारों का आईना या प्रतीकों का प्रदर्शन?

डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारत को एक समतामूलक, न्यायप्रिय और जातिविहीन समाज का सपना दिखाया था। उन्होंने संविधान बनाया, शिक्षा और सामाजिक न्याय को हथियार बनाया, और जाति व्यवस्था का खुला विरोध किया। आज उनका नाम हर मंच पर लिया जाता है, लेकिन उनके विचारों को गंभीरता से अपनाया नहीं जाता। आरक्षण को राजनीतिक हथियार बना दिया गया है, शिक्षा निजी हाथों में चली गई है, और दलितों के साथ अत्याचार आज भी जारी हैं। अंबेडकर का धर्म परिवर्तन एक चेतना का आंदोलन था, जिसे आज संकीर्ण नजरिए से देखा जाता है। सोशल मीडिया पर उनका प्रचार तो है, पर विचारों की गहराई नहीं। अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि तभी दी जा सकती है जब हम उन्हें मूर्तियों में नहीं, विचारों में जिएं। उनके सपनों का भारत तभी बनेगा जब हम जातिवाद मिटाएं, शिक्षा और न्याय को सभी के लिए सुलभ बनाएं, और संविधान को अपने आचरण में उतारें।

डॉ सत्यवान सौरभ

डॉ. भीमराव अंबेडकर सिर्फ एक व्यक्ति नहीं थे, वे एक विचारधारा थे, एक आंदोलन थे और एक दिशा थे। उन्होंने भारत को वह संविधान दिया, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित है। लेकिन आज जब हर गली, चौराहे और राजनीतिक मंच पर उनकी तस्वीरें टंगी दिखती हैं, तो सवाल उठता है – क्या हम उनके विचारों और संघर्षों को वाकई समझते हैं? क्या हम उनके आदर्शों को अपनाते हैं, या केवल उन्हें प्रतीकों में समेट कर आत्ममुग्ध हो रहे हैं?

अंबेडकर का सबसे बड़ा योगदान भारत का संविधान था, जो प्रत्येक नागरिक को समानता और न्याय की गारंटी देता है। लेकिन क्या यह गारंटी आज भी सच में लागू हो रही है? संविधान कहता है कि किसी के साथ जाति, धर्म, लिंग या जन्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। परंतु आज भी भारत में दलितों को मंदिरों में प्रवेश से रोका जाता है, ऊंची जातियों के कुओं से पानी नहीं भरने दिया जाता, और जातिगत हिंसा की खबरें आए दिन सुर्खियां बनती हैं।

डॉ. अंबेडकर ने शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार बताया था – “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो” उनका प्रसिद्ध नारा था। लेकिन आज जब शिक्षा को निजीकरण की गिरफ्त में धकेल दिया गया है, तब गरीब, वंचित और दलित वर्ग के बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एक सपना बनती जा रही है। सरकारी स्कूल बदहाल हैं, और निजी संस्थान सिर्फ अमीरों के लिए खुले हैं। क्या यह उसी भारत की तस्वीर है, जिसका सपना अंबेडकर ने देखा था?

आरक्षण डॉ. अंबेडकर की दूरदर्शिता का परिचायक था। उन्होंने इसे एक अस्थायी उपाय के रूप में सोचा था, जिससे हज़ारों सालों से वंचित समुदाय को समाज में बराबरी का स्थान मिल सके। पर आज आरक्षण को वोट बैंक की राजनीति ने हड़प लिया है। एक ओर जहां कुछ वर्ग आरक्षण के लाभ से अब भी वंचित हैं, वहीं दूसरी ओर इसे खत्म करने की मांगें भी बढ़ रही हैं। सामाजिक न्याय के इस औज़ार को सही तरीके से लागू करने की बजाय, इसे विभाजनकारी मुद्दा बना दिया गया है।

हर चुनाव में हर पार्टी “जय भीम” के नारे लगाती है, अंबेडकर की मूर्तियों पर फूल चढ़ाती है, लेकिन उनके विचारों को आत्मसात करने से कतराती है। अंबेडकर ने बार-बार चेताया था कि राजनीतिक लोकतंत्र तभी सफल होगा, जब सामाजिक लोकतंत्र मजबूत होगा। परंतु आज राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों के ज़रिए वोट बटोरते हैं, और वही जातिवाद समाज में ज़हर की तरह फैलता है।

डॉ. अंबेडकर का सबसे बड़ा संघर्ष जाति व्यवस्था के खिलाफ था। उन्होंने साफ कहा था कि जब तक जाति रहेगी, समानता और बंधुत्व संभव नहीं। उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था की आलोचना करते हुए कहा था कि यह व्यवस्था न केवल अमानवीय है, बल्कि भारत के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। आज भी यदि किसी को केवल उसकी जाति के आधार पर न्याय से वंचित किया जाता है, तो यह अंबेडकर के विचारों की सीधी अवहेलना है।

1956 में जब अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, तो यह केवल धार्मिक निर्णय नहीं था, बल्कि ब्राह्मणवाद को चुनौती देने वाला सामाजिक विद्रोह था। उन्होंने कहा था – “मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ, यह मेरी मजबूरी थी, लेकिन हिंदू नहीं मरूंगा।” उनके साथ लाखों दलितों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर अपनी गरिमा को पुनः प्राप्त किया। लेकिन आज धर्म परिवर्तन को देशद्रोह का नाम दिया जाता है, और “घर वापसी” जैसे अभियान समाज में नफरत फैलाते हैं।

आज सोशल मीडिया पर डॉ. अंबेडकर के नाम से पेज, ग्रुप और कोट्स की भरमार है। लेकिन विचारों की जगह वर्चुअल “जय भीम” तक सीमित होकर उनकी क्रांतिकारी चेतना को खोखला बना दिया गया…
[1:59 pm, 14/4/2025] प्रियंका: रंगमंच पर जाति का खेल: कितना जायज़?

कला का काम समाज को जागरूक करना है, उसकी विविधताओं को सम्मान देना है, और उस आईने की तरह बनना है जिसमें हर वर्ग खुद को देख सके। लेकिन जब कला सिर्फ कुछ खास वर्गों या समूहों की महिमा गाने लगे, और बाकी समाज की पीड़ा, संघर्ष और उपस्थिति को नज़रअंदाज़ कर दे, तो वह कला नहीं रहती — वह प्रचार बन जाती है। आज रंगमंच और सिनेमा जैसे माध्यमों में यही संकट उभर कर सामने आ रहा है। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि रंगमंच पर जाति का खेल हो रहा है, बल्कि यह भी है कि वह खेल किसके पक्ष में है और किसे किनारे कर रहा है।

— प्रियंका सौरभ

रंगमंच और सिनेमा, लेखन और दृश्य माध्यमों का बहुत गहरा सामाजिक असर होता है। जब मंच पर किसी समूह की बार-बार जयजयकार की जाती है, उसे ही वीर, बुद्धिमान, त्यागी और नैतिक माना जाता है, और बाकी वर्गों को या तो खलनायक या हास्य पात्र या फिर हाशिए के लोग दिखाया जाता है — तो यह असंतुलन समाज के भीतर भी गहरे बैठ जाता है।

कला को यह अधिकार अवश्य है कि वह ऐतिहासिक घटनाओं, परंपराओं और चरित्रों को अपनी दृष्टि से दिखाए। लेकिन अगर यह दृष्टि बार-बार एक ही दिशा में झुकी हो — अगर वह विविधता को दबाकर केवल कुछ गिने-चुने वर्गों को ही उभारती हो — तो वह दृष्टि एकपक्षीय और पूर्वग्रह से ग्रसित मानी जाएगी।

इतिहास का चयन और वर्तमान की राजनीति

किसी भी नाटक या फ़िल्म का आधार अक्सर इतिहास होता है। लेकिन इतिहास को देखने और दिखाने का तरीका आजकल चुनिंदा हो गया है। हम उन्हीं कहानियों को मंचित कर रहे हैं जो सत्ता के केंद्र में रही हैं, और उन्हीं समूहों को बार-बार ‘गौरव’ और ‘शौर्य’ के प्रतीक के रूप में पेश किया जा रहा है जिन्होंने पारंपरिक रूप से सामाजिक सत्ता को अपने नियंत्रण में रखा है।

दूसरी ओर, वे कहानियाँ जो सामाजिक संघर्ष, विद्रोह, क्रांति, या समानता की बात करती हैं — वे या तो अनुपस्थित हैं या उन्हें सीमित दर्शकों के लिए मंचित किया जाता है। सवाल यह नहीं है कि किसकी कहानी बताई जा रही है, सवाल यह है कि किन कहानियों को लगातार दबाया जा रहा है।

मनोरंजन के नाम पर मानसिकता का निर्माण

जब कोई बच्चा बचपन से ही नाटकों, फिल्मों, और धारावाहिकों में देखता है कि नायक एक ही सामाजिक वर्ग से आता है, उसका पहनावा, भाषा, व्यवहार श्रेष्ठ दिखाया जाता है, और बाकी वर्ग केवल सहायक, सेवक या खलनायक के रूप में मौजूद रहते हैं, तो वह यह धारणा बना लेता है कि समाज का यही ‘स्वाभाविक’ क्रम है।

यह सोच बाद में भेदभाव, पूर्वग्रह और असमानता को जन्म देती है। इस तरह कला सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, बल्कि सामाजिक सोच और मानसिकता का निर्माण भी करती है। और जब वह मानसिकता असंतुलित होती है, तो वह समाज में हिंसा और बहिष्कार का कारण बनती है।

कला के नाम पर बहिष्कार और नफरत

कई बार जब कोई निर्देशक, लेखक या कलाकार समाज के वंचित वर्गों की पीड़ा को मंच पर लाता है, तो उसे विरोध का सामना करना पड़ता है। कभी कह दिया जाता है कि “ये संस्कृति के खिलाफ है”, कभी कहा जाता है “ये इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है”, और कई बार कलाकारों को धमकियाँ भी मिलती हैं।

वहीं, जब कोई मंच या फिल्म किसी शक्तिशाली वर्ग की प्रशस्ति करता है, तब उसे ‘गौरव’ और ‘संस्कृति की रक्षा’ का दर्जा मिल जाता है। यह दोहरा मापदंड कला को लोकतांत्रिक नहीं, बल्कि वर्गीय बनाता है।

क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल कुछ वर्गों के लिए है?

कला के क्षेत्र में अक्सर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की बात की जाती है। लेकिन यह स्वतंत्रता सबके लिए समान रूप से उपलब्ध नहीं दिखती। जिनके पास सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताकत है, वे अपनी कहानियाँ बार-बार कह सकते हैं। लेकिन जिनकी आवाज़ें पहले ही दबाई गई हैं, उन्हें आज भी वह मंच नहीं मिल पा रहा है।

सवाल यह नहीं है कि कोई वर्ग अपनी कहानी क्यों कहता है, सवाल यह है कि बाकी वर्गों की कहानियों को क्यों चुप करा दिया जाता है।

अनसुनी कहानियाँ और अदृश्य नायक

भारत के इतिहास और समाज में अनगिनत ऐसे नायक हैं जिनकी भूमिका निर्णायक रही है — लेकिन उनके नाम, संघर्ष और योगदान रंगमंच और सिनेमा में न के बराबर दिखाई देते हैं। इन वर्गों की कहानियाँ अगर दिखाई भी जाती हैं तो उन्हें या तो सहानुभूति के लेंस से देखा जाता है या केवल ‘विक्टिम’ की तरह प्रस्तुत किया जाता है।

ऐसे में कला उन वर्गों की शक्ति, प्रतिरोध और नेतृत्व क्षमता को सामने लाने में विफल रहती है। और यह विफलता सिर्फ रचनात्मक नहीं, नैतिक भी है।

रंगमंच का लोकतंत्रीकरण आवश्यक

अगर समाज लोकतांत्रिक है, तो उसका रंगमंच भी लोकतांत्रिक होना चाहिए। इसका मतलब है — हर वर्ग की भागीदारी, हर कहानी की जगह, और हर आवाज़ को समान मंच। जब तक रंगमंच पर एक सीमित दृष्टिकोण और एकतरफा महिमामंडन चलता रहेगा, तब तक समाज का यह सांस्कृतिक क्षेत्र लोकतंत्र से दूर रहेगा।

यह ज़रूरी है कि थियेटर और सिनेमा में ऐसे नाट्य-लेखक, निर्देशक और अभिनेता सामने आएं जो हाशिए की आवाज़ों को केंद्र में लाएं। जो इतिहास को केवल सत्ता और शौर्य के नज़रिये से नहीं, बल्कि समानता और न्याय के नजरिये से भी देख सकें।

सांस्कृतिक समरसता बनाम सांस्कृतिक वर्चस्व

हमारे समाज में सांस्कृतिक समरसता का विचार बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब है — विविधता में एकता, हर संस्कृति और समुदाय के योगदान को स्वीकार करना। लेकिन जब रंगमंच एक ही प्रकार की पोशाक, भाषा, वेशभूषा और जीवनशैली को ‘श्रेष्ठ’ बताता है, और बाकी को या तो उपहास या तिरस्कार के रूप में दिखाता है, तो वह सांस्कृतिक वर्चस्व को बढ़ावा देता है।

सांस्कृतिक वर्चस्व सिर्फ भौतिक दबाव नहीं, बल्कि मानसिक दबाव भी बनाता है। यह समाज के भीतर असुरक्षा, हीन भावना और सामाजिक तनाव पैदा करता है।

नए रंगमंच की आवश्यकता

आज जरूरत है एक ऐसे रंगमंच की जो विविधता का उत्सव माने, जो समानता को आदर्श बनाए, जो शक्ति की जगह संवेदना को महत्व दे। नाट्य लेखन में ऐसे पात्र आएं जो हर वर्ग से हों, जो उन संघर्षों को दिखाएं जो आज भी समाज में मौजूद हैं। सिर्फ ऐतिहासिक राजाओं की कहानियाँ नहीं, बल्कि खेतों, झुग्गियों, स्कूलों और सड़कों की कहानियाँ भी मंच पर हों।

सिनेमा में भी यही ज़रूरत है। जब तक हम कहानियों को केवल सत्ता, वीरता और गौरव के चश्मे से देखते रहेंगे, तब तक हम समाज की असली तस्वीर को नहीं देख पाएंगे।

निष्कर्ष: सबकी कहानी, सबका मंच

रंगमंच पर जाति या वर्ग का खेल तब तक अनुचित है जब तक वह एकपक्षीय है। अगर यह खेल समावेशी हो — जहाँ हर वर्ग की भूमिका, पीड़ा, संघर्ष और उपलब्धि को ईमानदारी से दिखाया जाए — तो वह समाज को जोड़ने वाला हो सकता है।

लेकिन जब रंगमंच केवल कुछ खास समूहों की पहचान और गौरव का उत्सव बन जाए, और बाकी समाज को दरकिनार कर दे, तो वह कला नहीं — सामाजिक अन्याय का विस्तार बन जाता है।

हमें ज़रूरत है एक ऐसे सांस्कृतिक आंदोलन की, जो रंगमंच और सिनेमा को फिर से आम जनता का माध्यम बनाए, न कि किसी वर्ग विशेष की सत्ता का औजार। जब तक हम यह नहीं कर पाते, तब तक यह सवाल हमारे सामने बना रहेगा — रंगमंच पर जाति का खेल कितना जायज़?

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