लाल्टू
पाँच राज्यों में होनेवाले चुनावों के मद्देनजर इन राज्यों में मौजूदा हालात पर सोचना लाजिम है। साफ दिखती बात यह है कि पिछले चार दशकों में छल-बल-कौशल से संघ परिवार ने भारतीय लोकतंत्र पर कब्जा कर लिया है। सौ साल पहले जितनी तेजी से जर्मनी में यह मुमकिन हो पाया था, वैसा यहाँ नहीं हो सका, क्योंकि भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं ने जड़ पकड़ ली थी और उनको नेस्तनाबूद करना इतना आसान न था। सत्ता पर पूरी तरह कब्जा करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाये गये। यह बात कइयों को शुरू से ही साफ दिखने लगी थी, पर जाति और वर्ग के जटिल समीकरणों में उलझा हुआ तथाकथित उदारवादी वर्ग इसे समझ पाने में नाकामयाब था। आज भी अँग्रेजीदाँ संपन्न ‘चिंतकों’ का एक बड़ा हिस्सा फासिस्टों से यह संवाद करता रहता है कि बातें मर्यादा से बाहर जा रही हैं, मानो मर्यादा में रहना फासीवादी विचारधारा में मुमकिन हो।
2013 में जब लग रहा था कि भाजपा के केंद्र में आने की संभावना है, तब ये लोग कहते थे कि ऐसा नहीं होगा क्योंकि भारतीय जनमानस फिरकापरस्ती के खिलाफ़ है। क्षेत्रीय दल उनको समर्थन नहीं देंगे। धीरे–धीरे 2014 आने तक यही लोग कहने लगे कि कांग्रेस ने भाजपा की जीत की जमीन तैयार की है। भाजपा जीत गयी तो उन्होंने कहा कि यह सांप्रदायिकता की जीत नहीं है क्योंकि बड़ी तादाद में लोगों ने विकास के पक्ष में भाजपा को वोट दिये हैं, जबकि संघ परिवार ने अपने फासिस्ट स्वरूप को कभी छिपाया नहीं। तमाम चुनावी तिकड़मों को खेलते हुए भाजपा ने हमेशा यही मुहावरा सामने रखा कि बाकी दल अपने किस्म की गुंडागर्दी करते हैं तो हम हिंदुत्व के पक्ष में गुंडागर्दी करते हैं। भाजपा ने खुलेआम सीना ठोंक कर यह दिखाया है कि वह दूसरे दलों से ज्यादा हिंसक पार्टी है।
बंगाल में चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने खुलेआम मंच से किसी शोहदे की तरह दिद्दी ओ दिद्दी के ताने मारकर स्त्रियों के साथ छेड़खानी की संस्कृति को बढ़ावा दिया। बंगाल के शीतलकूची में केंद्र के भेजे गये सिपाही सीधे सीने पर निशाना ताक कर चार लोगों का क़त्ल करते हैं तो भाजपा का नेता कहता है कि आठ को गोली मारनी चाहिए थी। काशी में कहने को मंदिर और कॉरीडोर का उद्घाटन होता है तो धर्मस्थानों की जटिल सियासत को छिपाते हुए जानबूझकर औरंगजेब की असहिष्णु पहचान को याद किया जाता है।
मुल्क की लगातार बिगड़ती माली हालत, नोटबंदी और किसानों के हक छीनते कानूनों जैसे तुगलकी फरमानों के बावजूद संघी गुंडे मंदिर–मस्जिद और जय श्रीराम के नारों के साथ हो–हल्ला करते हुए सत्ता पर बने रहने में कामयाब रहे हैं। हरिद्वार में धर्मसभा में गैर–हिंदुओं की हत्या कर हिन्दू–राष्ट्र बनाने का आह्वान किया जाता है। इतने सब के बावजूद लोकपक्षी ताकतें इकट्ठी होकर भाजपा के खिलाफ चुनावी प्रचार में नहीं उतरतीं, तो यह सोचना पड़ेगा कि वाकई फासीवाद को मात देने की प्रतिबद्धता किस हद तक है। एक सांप्रदायिक माहौल में बिखरे हुए हम खुद कब फिरकापरस्ती की चपेट में फँस चुके हैं, इसका पता हमें नहीं होता।
हमें हान्ना आरेंट की प्रसिद्ध उक्ति ‘बनालिटी ऑफ ईविल’ भूलनी नहीं चाहिए कि सांप्रदायिकता हमेशा हिंसक रूप में ही सामने दिखे, ऐसा नहीं है। भले दिखते हँसते–खेलते आमलोगों में भी शैतान घर कर चुका होता है और वह उदासीनता बनकर सामने आता है, जबकि भले लोगों को पूरी ताकत से फासीवाद के विरोध में जुट जाना चाहिए। चेतन या अवचेतन किस स्तर पर यह उदासीनता जड़ जमाती है, कहना मुश्किल है, पर इसमें कोई शक नहीं कि नफ़रत का माहौल ज़हन पर ऐसा प्रभाव डालता है कि सब कुछ जानकर भी हम अनजान बने रहते हैं।
फिरकापरस्त ताकतों के पक्ष में रहने की असल वजह यानी नफ़रत के वर्चस्व में खो जाने को छिपाकर अक्सर लोग दूसरी सियासी पार्टियों की कमजोरियाँ गिनाते हैं। खुद से और दूसरों से किया जाता यह छलावा किसी आम फरेब सा बेबुनियाद है। किसी भी चुनाव में हर सीट पर बीस–बीस प्रार्थी होते हैं। यह कौन नहीं समझता कि सांप्रदायिक और नफरत की राजनीति के पक्ष में वोट देना महज किसी और दल के विरोध में वोट देना ही नहीं है, और ऐसा करते हुए हम एक सांप्रदायिक सोच के मुताबिक काम कर रहे होते हैं, जिसे लगातार हमारे ज़हन में डाला गया है।
लोकतंत्र के खेल का दिखावा करने में संघ परिवार ने धीरज दिखलाया है। चुनाव होते रहे हैं, मीडिया में संपन्न तबकों को खरीद कर अपने दलाल फिट कर लिये हैं। न्यायपालिका और चुनाव आयोग तक में कानूनी ढंग से घुसपैठ की है। इन सब तिकड़मों में चार दशक लग गये और खेल अभी पूरा नहीं हुआ है। इस खेल को समझ कर इससे टक्कर लेने में अगर भरपूर कामयाबी किसी को मिली है तो वह बंगाल का वामपंथी और स्वच्छंद (एनार्किस्ट) युवा–वर्ग है, जिन्होंने फासिस्टों को चुनौती देने के लिए हर तरह का खतरा मोलते हुए ‘नो वोट टू बीजेपी’ मुहिम चलायी।
तृणमूल कांग्रेस का कोई खास वैचारिक पक्ष है ही नहीं, सीपीआईएम के कार्यकर्ताओं में ताकत नहीं थी कि वे तृणमूल कांग्रेस के या संघी गुंडों से लड़ सकें। इसलिए तमाम किस्म के वामपंथी और स्वच्छंद संगठनों के कार्यकर्ताओं ने, जो आमतौर पर एक दूसरे के विरोध में मुखर रहते हैं, मिलकर फासीवाद विरोधी नागरिक मंच बनाया।
शुरुआत में लगा कि यह बस कुछ सिरफिरों की कवायद है। देखते ही देखते इस आंदोलन ने व्यापक आधार बना लिया। चुनावों के दौरान भी किसी को अंदाजा नहीं था कि इसका प्रभाव कितना व्यापक है। पिछले कुछ सालों में अब तक इस आंदोलन पर कई फिल्में बनीं, नियमित रेडियो प्रोग्राम हुए। कई जिलों में दूर–दराज के गाँवों तक जुलूस और रैलियों के जरिए प्रचार हुआ, लाखों पोस्टर लगाये गये, बाँटे गये और लोगों में फासीवाद के विरोध में चेतना फैलायी गयी। अक्सर संघी गुडों ने उनपर हमले किये और नागरिक मंच को डटकर प्रतिरोध करना पड़ा। चुनावों के बाद टीएमसी को लग सकता है कि लोगों ने वाक़ई उनके पक्ष में समर्थन दिखलाया है और यह कुछ सालों तक ऐसा ही दिखेगा, पर सचमुच यह जीत संघ और हिंदुत्व की सियासत– पुरातनपंथी, स्त्री–विरोधी, मानवता–विरोधी सोच– के खिलाफ़ उठ खड़ी चेतना की जीत है। सवाल यह है कि क्या ऐसा और सुनियोजित ढंग से दूसरे राज्यों में नहीं हो सकता?
कुछ समय पहले इन पंक्तियों के लेखक को एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता ने कहा कि उत्तर प्रदेश में ऐसा मुमकिन नहीं है, क्योंकि वहाँ दरारें बहुत हैं। दरअसल दरारें बंगाल में कम नहीं हैं। सत्तर के दशक में आपसी मार–काट, मुखबिरी और तमाम किस्म के आरोप–प्रत्यारोपों की वजह से पुश्तैनी दुश्मनियाँ आज तक चल रही हैं। सौ से ज्यादा गुट हैं जिनमें से हरेक बाकियों को समझौतापरस्त मानता है। इसलिए जब इन संगठनों से जुड़े युवा कार्यकर्ताओं ने इकट्ठे होकर– कुछ भी हो जाए, भाजपा को वोट नहीं डालना– की कामयाब मुहिम चलायी, तो कहना होगा कि उन्होंने फासीवाद के खतरे की सही पहचान की।
कोविड महामारी और इस दौरान सरकारी सेहत–तंत्र के पूरी तरह से पस्त हो जाने के साथ लोगों की माली हालत में गिरावट और बढ़ती महँगाई, किसान आंदोलन की सफलता, आदि से जैसे–जैसे लोगों में सरकार के प्रति कुछ हद तक विरोध की भावना बढ़ती रही है, फासीवादियों का दमन–तंत्र और तीखा होता जा रहा है। मुल्क के कई इलाकों में हालात तेजी से बिगड़ते जा रहे हैं और संघी–फौज भय के माहौल का फायदा उठाकर लोगों में ध्रुवीकरण बढ़ाने की कोशिश में है।
देश में कुल आबादी का अस्सी फीसद हिन्दू हैं, पर उनके ज़हन में यह ज़हर लगातार डाला जा रहा है कि हिन्दू खतरे में है। पिछले चार–पाँच दशकों में झूठ को जबरन सच कहने के साथ संघ ने एक धौंस की संस्कृति खड़ी कर दी है। हिन्दू खतरे में है और उसे बचाने के लिए छप्पन इंच के सीने वाले नेता की जरूरत है। शाखाओं के अलावा दुर्गा वाहिनी, हिन्दू सेना जैसे संगठित स्वयंसेवकों की लड़ाकू वाहिनियाँ तैयार की गयी हैं। हरिद्वार में अक्लीयत के ख़िलाफ़ हिंसा का आह्वान इसी का नतीजा है।
सौ साल पहले जर्मनी में जब तक यहूदी बुद्धिजीवी, कलाकार और वैज्ञानिक जर्मनी से भागने को मजबूर हो गये थे, तब तक बहुतों को ऐसा नहीं लगा कि हिटलर और नात्सी पार्टी की महत्त्वाकांक्षाएँ बड़े क़त्लेआम तक जा सकती हैं। आखिर में पूँजी और सांप्रदायिकता के गठबंधन से भय का जैसा माहौल जर्मनी में बना था, वैसा ही हाल में भारत में भी हुआ है। आज हम फासिस्ट मुसोलिनी के इटली और नात्सी जर्मनी के बारे में पढ़ते हैं या फिल्में देखते हैं और सोचते हैं कि क्या लोगों को यह पता नहीं था कि उनके साथ क्या हो रहा है? पता था, पर उस वक्त उनके ज़हन में राष्ट्रवाद का धुंध छाया हुआ था। हिटलर जिन भी कारणों से सत्तासीन हुआ हो, आज हम किसी जर्मन से पूछें कि जब हिटलर ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को ध्वस्त कर सत्ता पर कब्जा कर लिया, तो जीत किसकी हुई, तो विरला ही कोई होगा जो यह न कहे कि जीत उस नस्लवादी विचाराधारा की हुई थी जो यहूदी नस्ल को जर्मनी की सभी समस्याओं की जड़ और आर्य श्रेष्ठता को बेहतर सोच मानती है। इस समझ तक आने के लिए एक विश्वयुद्ध होना पड़ा, करोड़ों लोगों की मौत हुई। अरबों परिवार हमेशा के लिए उखड़ गए और इजरायल जैसा एक और फासीवादी मुल्क बन गया, जो फिलस्तीनी मुसलमानों का उसी तरह सफाया करना चाहता है, जैसा हिटलर ने यहूदियों के साथ किया था।