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बहरूपियों के गाँव में, कहें किसे अब मीत।
अपना बनकर लूटते, रचकर झूठी प्रीत॥
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भाई-भाई में हुई, जब से है तकरार।
मजे पड़ोसी ले रहे, काँधे बैठे यार॥
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मानवता है मर चुकी, बढ़े न कोई हाथ।
भाई के भाई यहाँ, रहा न ‘सौरभ’ साथ॥
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भाई-बहना-सा नहीं, दूजा पावन प्यार।
जहाँ न कोई स्वार्थ है, ना बदले का ख़ार॥
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शायद जुगनूं की लगी, है सूरज से होड़।
तभी रात है कर रही, रोज़ नये गठजोड़॥
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रोज बैठकर पास में, करते आपस बात।
‘सौऱभ’ फिर भी है नहीं, सच्चे मन जज़्बात॥
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‘सौरभ’ सब को जो रखे, जोड़े एक समान।
चुभें ऑलपिन से सदा, वह सच्चे इंसान॥
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सीख भला अभिमन्यु ले, लाख तरह के दाँव।
कदम-कदम पर छल बिछें, ठहर सके ना पाँव॥
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जो ख़ुद से ही चोर है, करे चोर अभिषेक।
उठती उंगली और पर, रखती कहाँ विवेक॥
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जब से ‘सौरभ’ है हुआ, कौवों का गठजोड़।
दूर कहीं है जा बसी, कोयल जंगल छोड़॥
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ये कैसा षड्यंत्र है, ये कैसा है खेल।
बहती नदियाँ सोखने, करें किनारे मेल॥
डॉ. सत्यवान सौरभ