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“ए वतन मेरे वतन” फिल्म ही नहीं एक इतिहास है!

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प्रोफेसर राजकुमार जैन
दाराब फारुकी, कन्नन अय्यर द्वारा लिखित करण जौहर द्वारा निर्देशित फिल्म को देखना मेरे लिए जज्बाती तूफान से गुजरना था। क्योंकि पिछले 50 सालों से अधिक वक्त से इस ऐतिहासिक घटनाक्रम को पढ़, सुन, और बोल रहा हूं। जिन शख्सियतों के लोमहर्षक कारनामों पर यह फिल्म बनी है, डॉ राममनोहर लोहिया और उषा मेहता, उनसे व्यक्तिगत संगत भी हुई है। डॉक्टर लोहिया जो कि मेरे आदर्श हैं, उनके साथ तो आंदोलन के सिलसिले में दिल्ली की तिहाड़ सेंट्रल जेल में बंदी रहने का भी मौका मिला है। वीरांगना उषा मेहता जी से भी तीन बार बात करने का मौका मिला, पहली बार उनके निवास स्थान मुंबई तथा दिल्ली में उनके भाई चंद्रकांत मेहता जो कि दिल्ली यूनिवर्सिटी में गुजराती भाषा साहित्य के प्रोफेसर थे तथा उन्होंने खुद कांग्रेस रेडियो क्रांति में हिस्सेदारी की थी। उनके घर पर उषा जी से बातचीत हुई। गांधीवादी समाजवाद मे अटूट आस्था के कारण प्रोफेसर चंद्रकांत मेहता जी ने मुझसे कहा, कि उनका बेटा केतन मेहता सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ रहा है, परंतु उसका रुझान अल्ट्रा लेफ्ट की तरफ है, तुम उससे मिलकर समाजवादी ग्रुप की ओर आकर्षित करो। इस सिलसिले में मैं दो बार सेंट स्टीफेंस कॉलेज जाकर केतन से मिला भी। उल्लेखनीय है, कि केतन मेहता बाद में एक सफल फिल्म निर्माता भी बने। गुजराती साहित्य के आधार पर उनके द्वारा बनाई गई फिल्म ‘मिर्च मसाला’ काफी लोकप्रिय हुई। तथा मधुलिमए के दिल्ली के सरकारी घर पर भीं उषा जी से लंबी बातचीत का मौका भी मिला था।
मेरे लिए यह एक महज फिल्म नहीं सोशलिस्ट देशभक्तों का मूल्क की आजादी के लिए सब कुछ दाव पर लगाने की हकीकत का प्रस्तुतीकरण है। मैं कोई फ़िल्म समीक्षक नहीं हूं, वैसे भी यह कोई कमर्शियल फॉर्मूला सेक्स हिंसा शारीरिक सुंदरता काल्पनिकता के आधार पर मनगढ़ंत रोमांच पैदा करने वाली मसाला फिल्म भी नहीं है ।
परंतु जिस पृष्ठभूमि के आधार पर इसको बनाया गया है, उसके इतिहास को जानना हर हिंदुस्तानी के लिए, अंग्रेजों की गुलामी से आजादी पाने के लिए की गई कुर्बानियों से वाकिफ होना है। आजादी की जंग में सोशलिस्टो की क्या भूमिका थी? उस लोमहर्षक गाथा को पहली बार जब फिल्मी पर्दे पर, मुख्य किरदारों डॉ राममनोहर लोहिया तथा उषा मेहता के जान जोखिम में डालकर मुल्क परस्ती के जुनून की गाथा जो जो आगे बढ़ती थी, आंखों से अनायास आंसू टपक पड़ते थे।
सैकड़ो साल की बरतानिया गुलामी के खिलाफ कांग्रेस पार्टी के झंडे के नीचे महात्मा गांधी की रहनुमाई में जब संघर्ष चल रहा था उस समय काग्रेसं मे दो तरह की सोच के नेता थे। एक तरफ स्वराज पार्टी के नेता श्री राजगोपालाचारी जैसे नेता थे जो अंग्रेजी हुकूमत से संघर्ष करके नहीं, बातचीत मेल मिलाप सद्भाव की बिना पर अधिकार प्राप्त करने में ही यकीन रखते थे। दूसरी तरफ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेता आचार्य नरेंद्र, जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरुणा आसफ अली,वगैरह अंग्रेजों के खिलाफ बिना देर किए सिविल नाफ़रमानी, संघर्ष छेड़ कर भिड़ने की आक्रामक मुद्रा में थे। महात्मा गांधी भी तत्काल आंदोलन के हक में नहीं थे वे हृदय परिवर्तन में यकीन रखते थे।इस सवाल पर कांग्रेस पार्टी में कई बार तीखी बहस हुई। सोशलिस्टो और गांधी जी का एक अलग ही तरह का रिश्ता था। गांधी जी सोशलिस्टों की नीति से सहमति नहीं रखते थे, परंतु उनके लिए गांधी जी का प्रेम संतान की तरह उमड़ता था। खास तौर से डॉक्टर लोहिया गांधी जी से तुरंत संघर्ष घोषणा करो, कि बहस इसरार करते रहते थे।
विश्व युद्ध जारी था, आजादी के इतिहास में एक विचारणीय सवाल था कि युद्ध में मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया जाए अथवा धूरी राष्ट्रो का। सितंबर 1939 में विश्व युद्ध छिड़ जाने के बाद भारत में भ्रम की स्थिति उत्पन्न उत्पन्न हो गई। क्या हमें युद्ध में अंग्रेजों का साथ या विरोध करना चाहिए। इस सवाल पर सोशलिस्टो का महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के उदारपंथियो तथा कम्युनिस्टो से तीखा टकराव था। सोशलिस्टो की रणनीति थी कि हमें इस स्थिति का फायदा उठाते हुए, जब इंग्लैंड युद्ध में फंसा हुआ है, तो आंदोलन करें। आंदोलन को गति प्रदान करते हुए उन पर दबाव बनाकर मजबूर कर दिया जाए, ताकि वह हमें आजादी देने के लिए बाध्य हो जाए। दूसरे मत वालों का विचार था की युद्ध में हमें अंग्रेजों का साथ देना चाहिए, ताकि उनकी सहानुभूति हमें मिल जाए, विजय प्राप्त करने के बाद अंग्रेज हमें आजादी प्रदान कर देंगे। डॉ लोहिया ने युद्ध के विरोध में लिखा “गुलाम भारत की दृष्टि में जितना पापी ब्रिटिश साम्राज्य है उतनी ही पापी जर्मनी की हिटलर शाही और जापान की साम्राज्यशाही है। साम्राज्यवाद को समाप्त किए बिना विश्व सुरक्षित नहीं रह पाएगा। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने ही फासीवाद को पाल-पोसकर बड़ा किया है। अतः भारत को चाहिए कि वह फासीवाद साम्राज्यवाद दोनों के विरुद्ध टक्कर ले, तभी वह संसार के पराधीन देशो की मदद कर सकेगा।
विश्व युद्ध जारी था, 7 दिसंबर 1941 को जापान के हवाई जहाजो ने हवाई में पर्ल हार्बर पर बम गिराए। जापानियों द्वारा रंगून पर कब्जा करने व जापान की बढ़ती कामयाबी के कारण अमेरिका चीन हॉलैंड इत्यादि शंकित हुंए। सुभाष बाबू की वजह से उनको लगने लगा कहीं भारत भी हमारे खिलाफ युद्ध में जापान का साथ न दे दे। इसलिए उन्होंने मिलकर ब्रिटेन पर दबाव डाला आप तुरंत अपना प्रतिनिधि भेज कर भारत के नेताओं से सलाह और समर्थन पर कार्य करें। इंग्लैंड को भी लगा कि भारत का साथ लेना समय का तकाजा है। चर्चिल हालांकि भारत से नफरत करता था, परंतु मजबूरी में चर्चित की सरकार ने लंदन से सर स्टेफोर्ड क्रिप्स को 1942 में भारतीय नेताओं से बातचीत करने के लिए भेजा। सरकारी प्रतिनिधि के रूप में भारत आने से पहले 1941 में क्रिप्स गैर सरकारी हैसियत से हाउस ऑफ कॉमन्स के सदस्य के रूप में भारत आए थे। उस समय उन्होंने भारत के कांग्रेसी तथा सोशलिस्ट नेताओं से मुलाक़ात की थी। क्रिप्स ने आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, युसूफ मेहर अली तथा श्रीं एम आर मसानी से मुलाकात करके कहा कि हाउस ऑफ कॉमन्स के अधिकतर सदस्यों की राय है कि युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को स्वशासन प्रदान कर देना चाहिए। उन्होंने लोकतंत्र तथा आजादी के समर्थन में भी बातें की थी। परंतु जब क्रिप्स ब्रिटेन के प्रतिनिधि के रूप में भारत आए तो उनका रूप बदला हुआ था। इसका मुख्य कारण ब्रिटेन के सत्ताधारीयो की नियत का खोट। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विन्सटन चर्चिल को भारत की आजादी सुनने से ही चिढ थी।
जारी है ……………।