प्रोफेसर राजकुमार जैन
(भाग -2)
क्रिप्स ने भारत के सामने जो प्रस्ताव प्रस्तुत किया, उसके मुताबिक भारत में अस्थाई सरकार ( Dominion status) स्थापित की जाएगी, परंतु उसे रक्षा संबंधी अधिकार प्राप्त नहीं होंगे, यानी कि भारत को पूर्ण स्वाधीनता नहीं मिलेगी। क्रिप्स फार्मूले पर कांग्रेस पार्टी बटी हुई थी। राजगोपालाचारी तथा कई कांग्रेसी नेताओं ने भरसक प्रयत्न किया कि कांग्रेस क्रिप्स प्रस्तावों को मान ले, परंतु गांधी जी ने क्रिप्स प्रस्ताव की यह कहकर आलोचना की कि “यह दीवालियां हो रहे बैंक का भावी तारीख वाला चेक है”। क्रिप्स मिशन के नकारात्मक, चतुराई से भरे फैसले तथा कुछ कांग्रेसी नेताओं की सत्ता लोलुपता से गांधी जी का धीरज टूट रहा था। डॉक्टर लोहिया ने क्रिप्स को शैतान वकील की संज्ञा देते हुए कहा कि “सुदूरपुर में अपने आर्थिक तथा भौगोलिक राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति की अनिवार्यता के कारण क्रिप्स मिशन भारत आया है, इंग्लैंड द्वारा भारत को दी जा रही छूट को झूठलाते हुए उन्होंने कहा कि वस्तुत भारत तो इंग्लैंड की एक मंडी है, ब्रिटेन अगर छूट नाम की कोई चीज दे रहा है तो वह है इंग्लैंड के साम्राज्य के अपने फायदे”। क्रिप्स मिशन के असफल हो जाने के बाद डॉक्टर लोहिया ने हरिजन में एक लेख लिखकर गांधी जी से अनुरोध किया कि वह सामूहिक सत्याग्रह शुरू करें। डॉ लोहिया के सुझाव तथा गांधी जी के अपने अनुभव से उनमें क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहा था। तीन साढे तीन महीने गांधी जी ‘हरिजन’ के माध्यम से अपनी भूमिका स्पष्ट करते रहे। इस बीच लोहिया का गांधी जी के साथ निरंतर संपर्क बना रहा। लोहिया ने गांधी जी को सुझाव दिया कि वह वायसराय को पत्र लिखकर मांग करें कि भारत के सभी शहरों को मुक्त शहर घोषित कर करें। मुक्त शहर का अंतरराष्ट्रीय कानून में मतलब होता है कि उसके ऊपर विदेशी लोग बम नहीं फेंक सकते, वहां लड़ाई नहीं कर सकते, लेकिन भारत को भी एक सिद्धांत मानकर चलना होगा कि वह शहर, पलटनी इंतजाम और तैयारी नहीं करेंगे। इस पर 3 दिन तक लगातार लोहिया की गांधी जी से बहस हुई थी। अंत में गांधी जी ने लोहिया से कहा “असल में तुम्हारे मन में कुछ और बात है, और तुम पूरी बात नहीं कह रहे हो। यह सब छोटी और इधर-उधर की बातें क्यों करते हो, तुम्हारा मतलब है की अंग्रेजों से लड़ना चाहिए” लोहिया ने कहा ” हां, यह मतलब तो है ही”। गांधी जी द्वारा लोहिया को दिए गए आश्वासन के अनुसार होरेस अलेक्जेंडर को एक पत्र में लिखा कि मेरी दृढ़ धारणा है की अंग्रेजों को भारत से शांतिपूर्वक चले जाना चाहिए।
26 अप्रैल 1942 को गांधी जी ने हरिजन में दोबारा लिखा कि भारत की वास्तविक सुरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि अंग्रेज लोग भारत से यथासंभव और शांतिपूर्वक प्रस्थान कर जाएं।
क्रिप्स मिशन की असफलता के बाद भारत में निराशा के साथ-साथ जनता में रोष उत्पन्न हो गया था। गांधी जी को भी बहुत ठेस पहुंची। उनको लगा कि ब्रिटिश सरकार से बातचीत का कोई फायदा नहीं है, जो केवल भारत विभाजन की सोचती है।
27 अप्रैल 1942 में कांग्रेस कार्य समिति की इलाहाबाद में हो रही बैठक में गांधी जी स्वयं तो नहीं गए, परंतु उन्होंने मीरा बहन के जरिए एक प्रस्ताव का मसौदा भेजा। तथा जवाहरलाल जी को सूचना दी कि आचार्य नरेंद्र देव ने भी उसको देख लिया है, तथा पसंद किया है। मसौदे में में गांधी जी ने प्रस्ताव किया कि ब्रिटेन भारत की रक्षा करने में असमर्थ हो चुका है उसे भारत के राजनीतिक दलों में विश्वास नहीं है अतः अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाए तो भारत जापानी हमले या किसी अन्य आक्रमण से अपनी रक्षा बेहतर ढंग से कर सकता है। अंत में प्रस्ताव में मांग की गई कि अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाए हमारा कोई झगड़ा जापान से नहीं है, उनका संघर्ष ब्रिटिश साम्राज्य से है, ब्रिटेन ने बलपूर्वक भारत को अपने अधीन कर साम्राज्यवाद का सहायक बना रखा है। इसलिए ब्रिटेन और उसके साथी जो युद्ध कर रहे हैं उनका कोई नैतिक आधार नहीं है तथा ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया गया था कि भारत में रखी गई विदेशी सेना को हटा ले तथा विदेशी सेना यहां लाना बंद कर दें। उनसे कहा गया था कि भारत में मानव शक्ति का अक्षय भंडार रहते हुए बाहर से सेना मांगना शर्म की बात है। जवाहरलाल नेहरू ने गांधी जी के प्रस्ताव की तीखी आलोचना की, उन्होंने कहा यदि बापू जी की दृष्टि मान ली जाती है तो हम धुरी शक्तियों के निष्क्रिय सहयोगी बन जाएंगे। मौलाना अब्दुल कलाम आजाद, आसिफ अली, भूला भाई देसाई और गोविंद बल्लभ पंत ने गांधी जी के मसौदे पर आपत्ति व्यक्त की।
कार्य समिति में विशेष आमंत्रित सदस्यों, आचार्य नरेंद्र देव अच्युत पटवर्ध ने भाग लिया ।अच्युत जी ने कहा कि अगर हमने निर्णय नहीं लिया तो जवाहरलाल जी का रवैया हमें उस ब्रिटिश तंत्र से जो जल्दी टूटने वाला है बिना शर्त सहयोग एवं आत्म समर्पण की दिशा में ले जाएगा। अच्युत जी नें आगे कहा कि युद्ध साम्राज्यवादी है, हमारी नीति किसी भी पक्ष के समर्थन में नहीं होनी चाहिए। कार्य समिति की बैठक में आचार्य नरेंद्र देव ने कहा मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं कि युद्ध एक है, और अविभाज्य है। रूस और चीन का लक्ष्य वही नहीं है जो अमेरिका और ब्रिटेन का है। अगर यह एक है तो हम ब्रिटेन की तरफ युद्ध में शामिल हो सकते हैं। हमारी स्थिति यह नहीं है कि हमें सत्ता चाहिए क्योंकि इसके बिना हम राष्ट्रीय भावना जागृत नहीं कर सकते इसलिए अंग्रेजों से कह सकते हैं,कि वे जाएं और हमें हमारे भाग्य पर छोड़ दें। मौलाना आजाद, राजगोपालाचारी और जवाहरलाल नेहरू ब्रिटिश सरकार के साथ कोई सम्मानजनक समझौता करने को उत्सुक थे। गांधी जी और जवाहरलाल जी में तीव्र मतभेद हो गए। नेहरू जी का रुख डॉक्टर लोहिया को बहुत अखर रहा था, उन्होंने नेहरू जी के भाषण का प्रतिवाद करते हुए अंग्रेजो तथा मित्र राष्ट्रों का समर्थन करने के लिए उनकी कड़ी आलोचना करते हुए 1942 में अल्मोड़ा के राजनीतिक सम्मेलन में नेहरू जी की आलोचना करते हुए कहा कि अगर उन्होंने (जवाहरलाल नेहरू )अपना रवैया नहीं बदला तो तब जनता और विशेष कर नौजवान केवल एक आदमी (गांधी जी) की बात सुनेंगे, जबकि अब तक वह दो लोगों( गांधी -नेहरू) की बात सुनते हैं।
नाजीवाद, फासीवाद, और जापानी सैन्यवाद की क्रूरता को देखकर नेहरू जी के मन में घृणा उत्पन्न हो गई थी, जिसके कारण न चाहते हुए भी उनका बरतानिया हुकूमत के प्रति विरोध का रवैया धीमा पड़ गया था। परंतु बाद में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की हठधर्मिता आचार्य नरदेव जैसे उनके जेल जीवन के साथी, डॉक्टर लोहिया जैसे उनके समर्थक के विरोध तथा गांधी जी के सख्त रूख से जवाहरलाल जी विचलित हो गए और अंत में उन्होंने गांधी जी के सामने समर्पण कर दिया।
जारी है ……….
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