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एक छुपाया गया कत्लेआम!

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नदीम खान 
आज 16 अक्टूबर है आज ही के दिन 16 अक्टूबर 1947 को आरएसएस के प्रमुख गुरु गोलवलकर दिल्ली से हवाई जहाज़ से जम्मू गए थे, महाराजा हरी सिंह जम्मू के राजा से मिलने। ये मुलाक़ात जम्मू के राजगुरु स्वामी संत देव के द्वारा करवाई गई थी। जिसके बाद अक्टूबर और नवंबर में भारतीय उप महादीप में मुसलमानों का सबसे बड़ा जनसंहार हुआ।
सालों से कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की दास्तां सुनाई जाती है, लेकिन मुसलमानों के इस क़त्लेआम पर चर्चा तक नहीं होती। टाइम्स लंदन ने 10 अगस्त 1948 को प्रकाशित एक रिपोर्ट में साफ साफ लिखा था कि पहले जम्मू क्षेत्र में 60 प्रतिशत मुसलमान रहते थे लेकिन जम्मू की डेमोग्राफी बदलने की योजना के साथ 237000 मुसलमानों को डोगरा सेनाओ और कट्टर हिन्दुओं द्वारा कत्ल किया गया, जिसके नज़दीक बाकी मुसलमान पाकिस्तान भाग गए और जम्मू में  मुसलमान बहुसख्यक से अल्पसंख्यक बन गए।
जम्मू के इतिहासकार कांत साहब लिखते है कि डोगरा फौज ने मुसलामनों को मुस्लिम आबादियों से निकाला कि उनको सियालकोट भेजेंगे लेकिन उनको राजौरी के जंगलों में ले जाकर क़त्लेआम किया गया। होरस अलेक्जेंडर जो उस समय इन घटनाओं को कवर कर रहे थे अपने आर्टिकल में लिखते हैं कि मृतकों की सही तादाद का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है, लेकिन मरने वालों की संख्या कम से कम दो लाख थी और 5 लाख लोग किसी तरह अपनी जान बचा कर सियालकोट भाग कर पहुँचे थे।

कश्मीर टाइम्ज़ के  संपादक मरहूम वेद भसीन साहब जो उस वक़्त युवा पत्रकार थे, उन्होंने तमाम आँखो देखी घटनाएं अपनी रिपोर्ट में लिखी हैं कि किस तरह तालाब ख़ातिखान के इलाके से हज़ार मुसलमानो 60 लॉरी से दिन रात निकाला गया और जोगी सगोल में भर कर मार दिया गया।

ऊधमपुर ज़िले के चेनानी रामनगर और रेसाई में यही हुआ। भद्रवाह में सैकड़ो क़त्ल किये गए छम्ब देव बटाला मनव्सर नो अखनूर के इलाके में है वह हजारों मारे गए। भसीन साहब कहते हैं- इस सब में डोगरा फौज के साथ आरएसएस के लोग थे। 69 साल बाद इसकी कुछ घटनाएं  सईद नक़वी साहब ने अपनी किताब the muslim in india में लिखी हैं और वो इसे मुसलमानों  का होलोकॉस्ट लिखते हैं। शायद इसी पे कलीम आजिज़ का शेर याद आता है जहां  लाखों मुसलमनों के क़त्लेआम पे चर्चा नहीं।

वहाँ खुद जगमोहन के  ज़रिये कुछ पंडितों  के आने पे बावेला है। हालांकि हम उसपे भी यही कहते हैं कि नाइंसाफी उनके साथ भी नहीं होनी चाहिए लेकिन ये याद रखिये अगर मुसलमनों को उनको निकालना होता तो उसी वक़्त कश्मीर से निकालते जब जम्मू में मुसलमानों के साथ ये हुआ था।

दामन पे कोई छींट न ख़ंजर पे कोई दाग़

तुम क़त्ल करे हो कि कोई करामात करे हो।

(यह लेखक के निजी विचार हैं )