बनते और बिगड़ते रहे हैं सपा और रालोद के संबंध 

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सपा और रालोद के संबंध 
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चरण सिंह राजपूत 

त्तर प्रदेश और उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में एक बार फिर से सपा और रालोद मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। वह बात दूसरी है कि इस बार मुलायम सिंह यादव और अजित सिंह नहीं  बल्कि इन दोनों दिग्गजों के बेटे अखिलेश यादव और जयंत चौधरी ने मोर्चा संभाल रखा है। यह भी जमीनी हकीकत है कि रालोद और सपा के रिश्ते बनते और बिगड़ते रहे हैं। एक ओर चौधरी चरण सिंह के मानस पुत्र मुलायम सिंह के दांव-पेंच रहे हैं तो दूसरी ओर उनके अपने खुद के बेटे अजीत सिंह के। यह कशमकश चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद से ही शुरू हो गई थी। अखिलेश यादव और जयंत चौधरी के इस गठबंधन में भी टिकट बंटवारे से खींचतान शुरू हो चुकी है। रालोद और सपा का गठबंधन संघर्ष के लिए कम और सत्ता के लिए ज्यादा रहा है। रालोद इस बार सरकार बनने पर जयंत चौधरी को उप मुख्यमंत्री के रूप में देख रहा है। आज सत्ता के लिए भले ही अखिलेश यादव और जयंत चौधरी एक हो गये हों पर इन दोनों के पिता एक-दूसरे को समय-समय पर नीचा दिखाते रहे हैं। भले ही किसी समय में अजीत सिंह ने मुलायम सिंह को नीचा दिखाया था पर समय आने पर मुलायम सिंह ने उस अपमान का पूरा बदला लिया।
गठबंधन और लड़ाई दोनों में मुलायम सिंह अजीत सिंह पर भारी रहे हैं। यहां तक कि कोरोना काल को अजीत सिंह नहीं झेल पाए और स्वर्ग सिधार गए। मुलायम सिंह कई बार बीमार पड़ने के बावजूद मौत को मात दे गए। यदि सपा और रालोद के संबंधों की बात करें तो  भले ही मुलायम सिंह चौधरी चरण सिंह के सबसे विश्वसनीय शिष्य रहे हों पर  उनके बेटे अजीत सिंह से उनकी बहुत कम बनी और यह लड़ाई चौधरी चरण सिंह के निधन से ही शुरू हो गई थी। बात 1987 की जब चौधरी चरण सिंह की तबीयत बहुत खराब हो गई। चौधरी चरण सिंह को भी लगने लगा कि अब उनक अंतिम समय आ गया है। चौधरी चरण सिंह ने हेमवती नंदन बहुगुणा को लोकदल का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था। अजित सिंह थे कि अपने पिता की पार्टी को कब्जाना चाहते थे। अजित सिंह के सामने यह बड़ी समस्या थी कि पार्टी के ज्यादातर बड़े नेता जैसे कर्पूरी ठाकुर, नाथूराम मिर्धा, चौधरी देवीलाल पार्टी की ओर से नेता विपक्ष मुलायम सिंह यादव हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ थे। 29 मई 1987 को पार्टी अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह का निधन होते ही अजित सिंह पार्टी को हथियाने में लग गए। पिता के प्रभाव के चलते विधायकों से बैठक बुलाई  मुलायम सिंह को पार्टी के विधायक दल के नेता के पद से हटवा दिया। मुलायम सिंह यादव जब पार्टी के विधायक दल के नेता ही नहीं रहे तो विधानसभा में नेता विपक्ष रहने को तो कोई मतलब ही नहीं था। मुलायम की जगह नेता विपक्ष बने अजित सिंह के करीबी सत्यपाल सिंह यादव को बना दिया गया।

यह वह दौर था जिसमें पार्टी दो हिस्सों में बंट गई थी। लोकदल के दो भाग हो गए। एक दल बना लोकदल (अ यानी अजीत) और दूसरा लोकदल (ब यानी बहुगुणा) । मुलायम सिंह यादव चौधरी देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, शरद यादव, नाथूराम मिर्धा के साथ हेमवती नंदन बहुगुणा के साथ चले गए। उत्तर प्रदेश के अधिकतर विधायक अजित सिंह के ही साथ रहे। चौधरी चरण सिंह के चले जाने के बाद उनके बेटे अजित सिंह के हाथों मुलायम सिंह को बहुत अपमान का सामना करना पड़ा था। हालांकि मौका आने पर मुलायम सिंह ने इस अपमान का बदला भी लिया। सपा के साथ लोकदल के मिलने और बिछुड़ने का इतिहास बहुत पुराना है पर अधिकतर मामलों में इन नेताओं के मुखियों में कम ही बनी है।

वैसे मुलायम सिंह का असली राजनीतिक वजूद चौधरी चरण सिंह के संपर्क में आने के बाद ही माना जाता है।  1967 में जब उत्तर प्रदेश में चौथी विधानसभा के चुनाव हुए तो भले ही मुलायम सिंह राम मनोहर लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी  से पहली बार विधायक बने हों  पर 12 अक्टूबर 1967  को लोहिया जी का देहांत होने पर मुलायम सिंह चौधरी चरण सिंह के साथ आ गए थे। मुलायम सिंह ने चौधरी चरण सिंह के बनाये दल भारतीय किसान दल (बीकेडी) को ज्वाइन कर लिया था। 1974 में (बीकेडी) के ही टिकट पर चुनाव लड़े और दोबारा विधायक बने। इसके बाद सोशलिस्ट पार्टी और कृषक दल का विलय हो गया और नई पार्टी का नाम रखा गया- भारतीय लोक दाल। इमरजेंसी के बाद जब जेपी क्रांति का नारा दिया गया तो 1977 में कई दलों को मिलाकर जनता पार्टी का गठन किया गया जिनमें BLD भी थी। जब देश में प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी तो मुलायम सिंह को सहकारिता और पशुपालन मंत्रालय दिया गया। चौधरी चरण सिंह और जनता पार्टी का साथ भी सिर्फ दो साल चला। 1979 में चरण सिंह ने लोकदल नाम से अपनी नई पार्टी बना ली।
मुलायम  सिंह यादव चरण सिंह के साथ ही बने रहे। यह चौधरी चरण सिंह का मुलायम सिंह के प्रति स्नेह ही था कि 1980 में जब मुलायम सिंह के विधानसभा चुनाव तो हार गए तो चरण सिंह ने उन्हें विधान परिषद सदस्य बनवाया। साथ ही लोकदल उत्तर प्रदेश अध्यक्ष भी नियुक्त कर दिया।
चौधरी चरण सिंह के इकलौते बेटे अजित सिंह आईआईटी खड़गपुर से बीटेक करने के बाद अमेरिका चले गए थे। अजित सिंह ने आगे की पढ़ाई अमेरिका के इलिनोइस इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से की और वहीं आईबीएम् में नौकरी करने लगे। जैसे समाजवादियों में बुढ़ापे में पुत्र मोह जाग जाता है ऐसे ही चरण सिंह में अंतिम दिनों में पुत्र मोह जाग गया था।  चौधरी चरण सिंह ने अपने पुत्र अजित सिंह को वापस भारत बुलाया और पार्टी की सदस्यता दिलवा दी। 1986 में अजित सिंह राज्यसभा सांसद बने।
इधर चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए अजित सिंह और मुलायम सिंह में खींचतान चल रही थी कि 11 अक्टूबर, 1988 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन  जनता दल नाम से एक पार्टी बन गई जिसमें जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल अजित, लोकदल बहुगुणा और सोशलिस्ट कांग्रेस सब इसमें घटक दल के रूप में शामिल हो गए।
यह वह दौर था जब कुछ ही महीने बाद 1989 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे। जनता दल ने उत्तर प्रदेश में 356 सीटों पर चुनाव लड़ा और 208 जीत हासिल की। इस चुनाव में कांग्रेस 410 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 94 पर जीत हासिल की थी। इन चुनाव में जनता दल बेशक सबसे बड़ी पार्टी थी पर बहुमत से 5 सीटें कम थी। हालांकि इतनी सीटों का इंतजाम आराम से हो जाता पर खेल होना चाहिए था लखनऊ में पर चल रहा था दिल्ली में। प्रधानमंत्री पद के लिए चौधरी देवीलाल का नाम चल रहा था पर देवीलाल ने उल्टा प्रस्ताव वी.पी. सिंह का दे दिया। उस समय अजित भी वी.पी. सिंह के ही खेमे में रहे। मौके को भांपकर चलने वाले मुलायम सिंह अपने राजनीतिक गुरु चंद्रशेखर का साथ छोड़कर ऐन मौके पर देवीलाल एंड पार्टी की चले गए। वी.पी. सिंह के नाम पर मोहर लग गई। चंद्रशेखर देखते रह गए। केंद्र में वी.पी.सिंह की सरकार बन गई थी। उस समय वी.पी.सिंह, अजित सिंह को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे और मुलायम सिंह को उप मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी थी। लेकिन मुलायम को यह कतई मंज़ूर न था। मुलायम सिंह ने इस बात का खुला विरोध कर दिया। जो अपमान और जिसकी वजह से मुलायम सिंह दो साल पहले हुआ था। उसको दोहराने की तैयारी थी। मुलायम सिंह अपमान की लपटों में झुलस रहे थे। इधर चन्द्रशेखर भी अजित सिंह को सबक सिखाना चाहते थे।  उन्होंने को शह दे दी। चन्द्रशेखर के समर्थन से मुलायम को बल मिल गया और वह अड़ गए कि किसी भी हालत में मुख्यमंत्री वह ही बनेंगे। दिल्ली से बतौर पर्यवेक्षक मधु दंडवते, चिमन भाई पटेल और मुफ्ती मोहम्मद सईद को पर्यवेक्षक बनाकर लखनऊ भेजा गया। मुलायम को समझाने की भरपूर कोशिश की गई पर वह नहीं माने।  अब समय शक्ति प्रदर्शन था। तय हुआ कि विधायक वोट करेंगे और जिसको ज्यादा विधायक वोट करेंगे वही मुख्यमंत्री बनेगा।  राजनीति के खिलाड़ी मुलायम  सिंह के आगे विरासत में मिला राजनीतिक हुनर अजित के काम नहीं आया। डीपी सिंह और बेनीप्रसाद वर्मा ने मुलायम के पक्ष में विधायकों के नंबर बढ़ा दिए। यह मुलायम सिंह राजनीतिक रुतबा ही था कि अजित सिंह खेमे के 11 विधायक भी मुलायम को वोट कर गए।  नतीजा यह रहा कि मुलायम को मिले 115 वोट मिले और अजित सिंह को मिले 110 ।  पांच विधायकों के अंतर ने अजित सिंह का मुख्यमंत्री बनने का सपना तोड़ दिए और मुलायम पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।  हालांकि वीपी सिंह ने अजित सिंह को केंद्र में मुख्यमंत्री बना दिया।  यह भी जमीनी हकीकत थी कि भले ही मुलायम मुख्यमंत्री बन गए थे इस पद पर ज्यादा दिन काबिज नहीं रह पाए। केंद्र में वीपी सिंह की सरकार गिरने के बाद मुलायम सिंह चंद्रशेखर की बनाई नई पार्टी सजपा यानी समाजवादी जनता पार्टी में शामिल हो गए।  लेकिन यह भी साथ भी ज्यादा नहीं चल सका। चंद्रशेखर मोहन सिंह को राजयसभा में भेजना चाहते थे पर मुलायम सिंह अपने भाई राम गोपाल के नाम पर अड़ गए। अंतत मुलायम सिंह रामगोपाल को राज्य सभा में भेजने में कामयाब हो गए।
मुलायम सिंह यादव ने चंद्रशेखर का साथ छोड़कर आज़म खान, जनेश्वर मिश्र और बेनीप्रसाद वर्मा के साथ मिलकर अपनी अलग पार्टी बना ली। पार्टी का नाम रखा गया  समाजवादी पार्टी। यह मुलायम सिंह का संघर्ष ही था कि अकेले शुरू हुआ मुलायम का राजनीतिक सफ़र बहुत जल्द एक मज़बूत राजनीतिक पार्टी बनने तक पहुंच गया था। उस समय मुलायम सिंह के साथ वे  लोग थे जो मंदिर आंदोलन के बाद मुलायम और उनकी पार्टी में भाजपा का विकल्प देख रहे थे। अजित सिंह ने भी मुलायम सिंह की तरह अपनी अलग पार्टी बानी। पहले वह कांग्रेस में गए, फिर अलग हुए और 1996 में अपनी अलग पार्टी बनाई, जिसका नाम रखा गया राष्ट्रीय लोकदल। यह वह दौर था, जिसमें रास्ते अलग-अलग हो चुके थे दोनों नेता विवाद से नफा नुकसान समझने लगे थे। साल 2002 में यूपी में 14वीं विधानसभा के चुनाव हुए तो किसी को बहुमत नहीं मिला।  सपा सबसे बड़ी पार्टी बानी। कुल 143 सीटें सपा ने जीतीं, बसपा 98 पर रही, बीजेपी को 88 सीटें मिलीं, कांग्रेस को 25 और अजित सिंह की रालोद को 14 सीटें मिलीं। सबसे बड़ी पार्टी मुलायम सिंह की सपा थी, लेकिन भाजपा और रालोद ने बसपा को समर्थन दे दिया और मिली-जुली सरकार बना ली। मायावती को मुख्यमंत्री बनाया गया लेकिन कई बातों पर मायावती का रवैया भाजपा को पसंद नहीं आ रहा था।  मसलन कुंडा वाले रघुराज प्रताप सिंह पर मायावती ने पोटा लगा दिया, उस वक़्त भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे विनय कटियार ने राजा भैया पर से पोटा हटाने को कहा, लेकिन मायावती नहीं मानीं. दूसरा तनाजा हुआ ताज कॉरिडोर बनाये जाने को लेकर।आरोप लगा कि मायावती ने बिना केंद्र सरकार की हरी झंडी मिले काम शुरू करवा दिया था। तनातनी बढ़ी और 26 अगस्त, 2003 को भाजपा ने मायावती से समर्थन वापस ले लिया। मुलायम तो इसी ताक में थे और उसी दिन मुलायम ने सरकार बनाने का दावा ठोक दिया। मौके की नजाकत को भांपते हुए अजित सिंह ने भी अपने 14 विधायकों का समर्थन मुलायम को दे दिया। 13 विधायक बसपा से भी टूटकर मुलायम के साथ आ गए।  मुलायम की सरकार बनी और इसी के साथ अजित और मुलायम की दोस्ती भी हो गई। इस सरकार में नंबर दो रहीं अजित सिंह की ख़ास अनुराधा चौधरी।  कहा जाता है उस वक़्त RLD में  भी वही होता था जो अनुराधा चाहती थी। 2003 में फिर से शुरू हुई मुलायम और अजित की दोस्ती 2004 के लोकसभा चुनाव में भी कायम रही। गठबंधन हुआ। रालोद दस सीटों पर लड़ी और 3 पर जीत हासिल की। बागपत से एक बार फिर अजित सिंह सांसद चुने गए, लेकिन यह वह दौर था जब सपा में अमर सिंह का दबदबा बढ़ रहा था। कहा जाता है अमर सिंह और अजित सिंह की आपस में बनती नहीं थी। इसी का असर सपा-RLD के गठबंधन पर भी पड़ रहा था।
2007 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। बसपा के खाते में कुल सीटें 206 आईं।  सपा की सत्ता से विदाई हुई और मायावती मुख्यमंत्री बनीं, अजित की मुलायम से तनातनी बढ़ रही थी चुनाव में भी रही। इस चुनाव में कुल 254 सीटों पर अजित ने अपने प्रत्याशी उतारे. लेकिन 10 सीटें ही जीत पाए।  2009 के लोकसभा चुनाव में अजित सिंह ने सपा के साथ गठबंधन की बजाय भाजपा का दामन थाम लिए। वजह कांग्रेस और सपा दोनों से लगातार दूरियां बढ़ना था। हालांकि 2004 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार जीत का आंकड़ा थोड़ा बेहतर रहा। 10 की बजाय 7 सीटों पर चुनाव लड़े और 5 पर जीत हासिल की। साल 2012. यूपी विधानसभा चुनाव में अजित सिंह ने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 46 में से 9 विधानसभा सीटों पर कब्ज़ा किया,  लेकिन सपा की अपनी जीती सीटें 224 थीं, जो अखिलेश यादव को स्पष्ट बहुमत वाली सरकार में मुख्यमंत्री बनाने के लिए काफी थी। 2014 आम चुनाव में अजित सिंह ने UPA के साथ गठबंधन किए।. RLD कुल 8 सीटों पर लड़ी और सारी सीटें हार गई। इधर अमर सिंह का सपा से निष्कासन हो चूका था। ऐसे में RLD ने अमर सिंह को फतेहपुर सीकरी से टिकट  दिया, लेकिन अमर सिंह बुरी तरह हार गए। बाप-बेटे यानी अजित सिंह और जयंत भी अपनी सीट नहीं बचा पाए पाए।  जाटलैंड में अजित सिंह के लिए ये हार पिता की विरासत का अर्श चिटकने जैसी थी, इधर जयंत भी मथुरा में भाजपा की टिकट पर लड़ीं हेमा मालिनी से हार गए।
2017 विधानसभा चुनाव में अजित सपा-कांग्रेस गठबंधन में फिट नहीं हो पाए और RLD ने अकेले चुनाव लड़ा. कुल 277 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन सिर्फ़ एक सीट ही निकली। सपा ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। प्रदेश में भाजपा की प्रचंड बहुमत वाली सरकार बनी और तमाम रस्साकशी के बाद योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने।  2019 के आम चुनाव में अजित सिंह फिर फिर से सपा के करीब आए. वजह मौके की नजाकत थी। ‘मोदी-मोदी’ इस बार भी जनता पर हावी रहा। सपा-बसपा के महागठबंधन में रालोद भी शामिल हुई, लेकिन सब मिलकर भी कोई चमत्कार न कर सके। महागठबंधन में शामिल बसपा ने 10 और सपा ने 5 सीटें जीतीं लेकिन रालोद एक भी सीट न जीत पाई।  अब फिर से सपा रालोद का गठबंधन है। किसान आंदोलन को लेकर रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी जीत के प्रति आश्वस्त दिखाई दे रहे हैं। रालोद और सपा की रैलियों में काफी भीड़ जुट रही है। अब देखना यह है कि यह भीड़ वोटबैंक में तब्दील हो पाती है या नहीं।

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