
अरुण श्रीवास्तव
भारत के स्वर्ग कहे जाने वाले जम्मू-कश्मीर के पहलगाम घूमने आए हजारों सैलानियों में उन दर्जनों महिलाओं और बच्चों को क्या मालूम कि, दहशतगर्द उनसे उनका जीवन साथी और बच्चों से पिता का साया छीन लेंगे। शायद यह आज़ाद भारत की पहली दहशतगर्द वारदात होगी जिसमें महिलाओं और बच्चों को अलग कर उनका मज़हब जाना फिर गोली मारकर मौत के उतार दिया और चले गए। इस वारदात के पीछे दहशतगर्दों का मकसद सिर्फ दहशत पैदा करना ही नहीं रहा होगा बल्कि पूरे देश में मज़हबी फ़साद पैदा करना भी होगा पर वे इसमें कामयाब नहीं हो पाये कारण हमारा सामाजिक ताना-बाना इतना मज़बूत था कि कहीं कोई मज़हबी दंगा नहीं हुआ।
हालांकि मीडिया सहित अन्य तबकों ने इकतरफा खबरें दिखाकर सोशल मीडिया (वाट्सऐप फेसबुक व ट्विटर का दुरुपयोग एक ही चीज़ प्रचरित-प्रसारित की कि, धर्म पूछ कर, कलमा पढ़वा कर व विशेष पहचान की जानकारी हासिल कर एक ही धर्म के लोगों वो भी सिर्फ पुरुषों को ही निशाना बनाया। इस बात से किसी भी सूरत में इंकार नहीं किया जा सकता पर इसके बाद भी जो कुछ हुआ वह भी मानवता की हिस्सा था। स्थानीय लोग अपने अपने घोड़ों पर, खच्चरों पर यहां तक कि अपनी-अपनी पीठ पर बैठा कर कई किलोमीटर दूर नीचे लेकर आए। स्थानीय टूर एंड टैक्सी ऑपरेटरों ने हवाई अड्डे तक फ्री में ले कोई किराया नहीं लिया। लोगों ने अपने घरों, मस्जिदों मदरसों में रखा। होटल वालों ने अतिरिक्त दिन ठहरने का कोई अतिरिक्त चार्ज नहीं किया बल्कि पहले की खाना-पीना दिया। यह सब कुछ सैलानियों ने स्थानीय मीडिया को बताया जिसे स्थानीय मीडिया ने ही दिखाया राष्ट्रीय मीडिया ने बस रस्म अदायगी ही की। स्थानीय राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं ने कई राष्ट्रीय चैनलों पर इस बात की तस्दीक भी की। लब्बोलुआब यह कि राष्ट्रीय मीडिया न राष्ट्रीय धर्म निभा पाया और न ही पत्रकारिता का धर्म। इस बात की हकीकत वारदात के बाद समाचार चैनलों पर दिखाई जाने वाली खबरें,थमनेल, ब्रेकिंग न्यूज़ स्पेशल खबरें व बहसों को देख कर जाना जा सकता है।
दहशतगर्दों ने धर्म की जानकारी कर लेने के बाद पुरुषों को ही गोली मारी इसकी सभी ने निंदा की। किसी एक ने भी आतंकवादियों का समर्थन नहीं किया। यहां तक कि स्थानीय निवासियों ने भी नहीं किया बावजूद इसके एक समुदाय विशेष के लिए एक अलग स्टैंड लेता रहा राष्ट्रीय मीडिया और उसके ऐंकर। कमोबेश यही हाल प्रिंट मीडिया का भी रहा। माडिया के किसी भी हिस्से ने जिम्मेदार लोगों से यह सवाल नहीं किया कि दहशतगर्द इतने दुर्गम रास्ता तय कर हथियार समेत आये कैसे? जांच एजेंसियों ने चेक कर उन्हें पकड़ा क्यों नहीं? मौके पर एक भी सुरक्षाकर्मी क्यों नहीं तैनात था? क्षेत्र से सुरक्षा व्यवस्था कम/हटाई क्यों गई? घटना से पहले सत्तारुढ़ दल के एक सांसद के अति निजी कार्यक्रम में सुरक्षा व्यवस्था चाक चौबंद रही। गुप्तचर एजेंसियों को घटना का पता पहले क्यों नहीं चल पाया? वो जैसे आए वैसे ही चले गए। वो आराम से आए और आराम से चले भी गए। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि सभी से उसका धर्म पूछ रहे थे। जाहिर है कि इन सब में काफ़ी समय तो लगा ही होगा यानी उन्होंने आराम से घटना को अंज़ाम दिया। मौके पर जरा सी भी सुरक्षा व्यवस्था रही होती तो दहशतगर्द आसानी से अपने मक़सद में कामयाब न हो पाते।
यही नहीं आतंकी काफी दूरी तय करके आए होंगे क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सीमा काफी दूर होगी। जाहिर है कि इतनी दूरी चंद घंटों में तो तय की नहीं होगी, चंद दिनों में की होगी। तो चंद दिनों बाहर से आए दहशतगर्द हमारे देश की धरती पर थे और हमारी गुप्तचर एजेंसियों को ख़बर तक नहीं। ये सब कमियां किसके खाते में जाएंगी। जवाबदेही कौन लेगा? चूंकि जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश है इसलिए पुलिस से लेकर सीमा सुरक्षा बल तक की जिम्मेदारी केंद्रीय गृह मंत्रालय की है और यह मंत्रालय अमित शाह जी के पास है।
आइए एक नजर ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर। आमतौर पर इस तरह के नाम सैनिक ऑपरेशनों के नहीं होते। शौर्य और पराक्रम जैसे नाम दिए जाते हैं।
बहरहाल… पहलगाम नरसंहार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा पर थे। विदेशी दौरा बीच में छोड़ स्वदेश आ गए किंतु पहलगाम या कानपुर (यही का रहने वाला एक सैन्यकर्मी शहीद हुआ था) न जाकर बिहार के मधुबनी चले गए और एक चुनावी सभा में इस नरसंहार पर ‘तीखी’ प्रतिक्रिया दी। आतंकियों और उन्हें पालने – पोसने वालों को ‘मिट्टी में मिला देने की धमकी दी। कुछ दिनों बाद सेना को समय, लक्ष्य तय करने की छूट दी। घटना के दो हफ्ते बाद सेना ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत सीमावर्ती क्षेत्र के आसपास वाले क्षेत्रों में हवाई हमले कर नौ आतंकी कैंपों, ट्रेनिंग सेंटरों को नष्ट किया वो भी मगर बिना सीमा लांघे। घटना के बाद सैन्य अधिकारियों ने एक संवाददाता सम्मेलन घटना की जानकारी दी। साथ ही सैन्य अधिकारियों ने बताया कि सेना ने नागरिक आबादी वाले क्षेत्रों को निशाना नहीं बनाया, सरकारी सम्पत्तियों पर हमले नहीं किए। हमारी सेना ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया अगली कार्रवाई सीमा पार की प्रतिक्रिया पर निर्भर हैं। आगे जो कुछ भी हुआ वह उकसावे पर हुआ। सीमा पार से फिर हरकतें हुई तो युद्ध का माहौल बन गया। यह तो सबके लिए अच्छा रहा कि, संघर्ष विराम हो गया। इस बीच हमारे सैन्य अधिकारियों ने एक घटना व गतिविधियों की जानकारियां दीं।
गौरतलब है कि संघर्ष विराम तो हो गया पर सवालों पर विराम नहीं लग पाया। सवाल तो कायम रहेंगे। प्रथम व द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हो गया पर उससे जुड़े सवाल तो अब भी हैं। आखिर बीच बीच में सवाल किया जाता है कि,’अगर नेहरू जी सीज़फायर न करते कुछ दिन और युद्ध चल जाता तो पीओके भारत का होता’। अब सवाल करने वालों के अपने तर्क हैं तो तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व और सेना के अपने। ताजा विवाद अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के बयान का है। संघर्ष विराम की जानकारी भारत और पाकिस्तान ने नहीं ट्रंप ने दी और इसका श्रेय ही नहीं लिया पिछले कई बार की तरह जम्मू-कश्मीर विवाद सुलझाने में मध्यस्थता करने में दिलचस्पी भी दिखाई। जबकि 1971-72 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद शिमला समझौते में दोनों पक्षों ने जम्मू कश्मीर विवाद आपस में हल करने की बात कही थी जो लिखित रूप में है। ऐसे में बार बार मध्यस्थता की पेशकश क्या दर्शाता है और पीएम मोदी की खामोशी भी। फिर जले पर नमक छिड़कने का काम ट्रंप के संदेश ‘ भारत पाकिस्तान को व्यापार तोड़ने की धौंस देकर सीज़फायर करने को मजबूर किया। यानी भारत दब गया।
दब ही तो गया। अमूमन जीतती हुई सेनाएं युद्ध विराम की पहल नहीं करतीं करतीं भी हैं तो अपना पलड़ा भारी रखतीं हैं। लंबे समय तक जूझते हुए सैनिकों को आराम मिले इसलिए भी युद्ध रुका है। पर भारत पाकिस्तान तो महज़ चार दिन ही लड़े। ईरान – इराक आठ दस साल लड़े। छोटा सा यूक्रेन ढाई तीन साल से लड़ रहा है इसका मतलब यह कदापि नहीं कि भारत पाकिस्तान भी अनंत काल तक लड़ते रहें। पर जिस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ऑपरेशन सिंदूर हुआ क्या वह पा लिया। सेना ने अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में साफ कर दिया कि भारत ने नौ आतंकवादी कैंपों को नष्ट कर दिया, एक सौ से अधिक आतंकी मारे गए उनमें से कई बड़े आतंकवादी हैं। पाकिस्तान आगे कार्रवाई नहीं करेगा तो भारत भी हमला नहीं करेगा लेकिन पाकिस्तान ने जवाबी कार्रवाई की, नागरिक ठिकानों को निशाना बनाया, इंटरनेशनल एयर स्पेस नागरिक विमानों के लिए खोल कर यात्रियों की जान ख़तरे में डाली।
अब एक निगाह नफ़ा नुकसान पर। हमें क्या मिला? पाकिस्तान मिट्टी में मिल गया? हालांकि मिट्टी में मिलाना कहावत है पर निर्रथक नहीं है। मिट्टी में मिलाने का मतलब अस्तित्व को समाप्त कर देना। तो क्या पाकिस्तान का अस्तित्व खत्म हो गया? उसके टुकड़े-टुकड़े हो गए? सिंधु नदी का पानी बंद कर दिया? पहलगाम नरसंहार के सभी हमलावरों को मार गिराया या पाकिस्तान से उन्हें सौंपने को कहा है।
और अंत में सरकार से सवाल करना न तो देश से विश्वासघात नहीं न ही सेना से।