अरुण श्रीवास्तव
इसी स्वाधीनता दिवस के अवसर पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास ने कहा था कि, अब समय आ गया है कि हमें एक देश एक चुनाव की तरफ बढ़ना चाहिए”। अब यह बात अलग है कि, इसके दूसरे दिन ही हमारे देश के चुनाव आयोग ने दो ही राज्यों में चुनाव कराने की घोषणा की जबकि होने चार राज्यों में हैं। इससे तो यही लगता है कि कहने और करने में कितना अंतर होता है। ऐसा भी नहीं कि देशवासियों को ये वाक्य पहली बार सुनने को मिला हो। सरकार और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ता आएदिन इस तरह की बात करते हैं। गली-चौराहे की बहसों में तो आम जनता भी यह कहने लगी है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन ही क्यों एक देश संविधान, एक देश एक विधान ही नहीं एक देश एक शिक्षा, एक देश एक चिकित्सा, एक देश एक नौकरी की उम्र और एक देश एक सेवानिवृत्त की आयु भी होनी चाहिए।
एक देश छोड़िए एक प्रदेश में न शिक्षा व्यवस्था एक है और न स्वास्थ्य व्यवस्था। एक तरफ सरकारी स्कूल और अस्पताल हैं तो दूसरी ओर कान्वेंट स्कूल और फाइव स्टार होटल को टक्कर देने वाले अस्पताल। इसे एक बार उठाकर ठंढे बस्ते में भी डाल दें तो भी नौकरी पाने की नौकरी से इससे निवृत्त होने की आयु एक क्यों नहीं? ये रबी और खरीब की फसल जैसा तो है नहीं। एक ही प्रदेश में प्राइमरी स्कूलों के शिक्षकों की सेवानिवृत्ति आयु 62 वर्ष तो माध्यमिक शिक्षक की 60 वर्ष और उच्च शिक्षा के शिक्षकों की 65 वर्ष, ऐसा क्यों?
यहां पर ओपीएस, एनपीएस और नयी नवेली यूपीएस के अंतर बताने में आंकड़ों के जाल में उलझाने का कोई इरादा नहीं है। आज के इंटरनेट के दौर में सारी चीजें उपलब्ध हैं। मोटा-मोटी यह कि, गर यूपीएस इतनी अच्छी पेंशन स्कीम है तो सबके लिए क्यों नहीं? न्यू पेंशन स्कीम के बेहतर विकल्प के तौर पर क्यों प्रस्तुत किया जा रहा है, प्रस्तुत किया भी जा रहा है तो यह विकल्प क्यों दिया जा रहा है? सन् 2004 के बाद सरकारी नौकरी पर आये कर्मचारियों की तो यही मांग थी कि नयी पेंशन योजना समाप्त कर हमें पुरानी पेंशन योजना में शामिल किया जाए। एक और नई पेंशन स्कीम की सुरंग में ढकेला (हालांकि कोई जबरदस्ती है नहीं) जाए। बेहतर तो ये होता कि, नई पेंशन स्कीम में मांग के अनुरूप सुधार किया जाता या इसे समाप्त कर पुरानी पेंशन स्कीम उनके लिए भी बहाल कर दिया जाता जैसा कि कुछ प्रदेशों (खासकर गैर भाजपाई) में किया गया है। पर ऐसा नहीं किया गया। सरकार ने इसे अपने नाक का बाल बना लिया है। हो सकता है कि इससे यह संदेश जाए कि सरकार विपक्षी दलों, राहुल गांधी के आगे झुक गई है। वैसे समय को लेकर भी सवाल उठना लाजिमी है। चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले और चोर रास्ते से ले आना भी ग़लत मंशा की ओर भी इशारा करता है। सोचिए… गर चार सौ पार वाली सरकार होती तो क्या इस तरह की पेंशन स्कीम ले आती? कोई बिल या ड्राफ्ट संयुक्त संसदीय समिति को भेजती ? वापस लेती ?
याद करिए इसी देश के अन्नदाता एक साल से अधिक अपने देश की राजधानी दिल्ली में जाने के राज्यों की सीमाओं पर बैठे रहे पर राक्षसी बहुमत वाली सरकार ने इन्हें जानें नहीं दिया। सड़कों पर कीलें गाड़ दीं अमूमन ऐसा युद्ध के समय पराजित सेनाएं करतीं हैं। वापस लेना पराजय के ही लक्षण हैं।
बहरहाल बात मुद्दे की। शनिवार 25 अगस्त को अवकाश वाले दिन कैबिनेट की बैठक के बाद रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने एकीकृत पेंशन योजना (यूपीएस) की घोषणा की। उनके अनुसार ये स्कीम केंद्रीय कर्मचारियों के लिए है। इससे लगभग 23 लाख कर्मचारी लाभान्वित होंगे। चाहें तो राज्य सरकारें भी अपने यहां लागू कर सकती हैं। ध्यान रहे कि यह स्कीम अप्रैल 25 से लागू होगी फिर इसकी घोषणा इतने पहले क्यों कर दी गई? चालू वित्तीय वर्ष के अंत तक करके नये वित्तीय वर्ष से लागू की जा सकती थी। नोटबंदी के तर्ज़ पर 31 मार्च 2024 की रात आठ बजे भी की जा सकती थी। 25 वर्ष की सेवा पर 50% पेंशन मिलने की गारंटी देती है यह नई नवेली स्कीम। कम सेवा वाले निराश होकर अभी से धरना-प्रदर्शन न करने लगे इसके मद्देनजर उन्हें कम धनराशि देने का आश्वासन दिया गया है। इसमें सरकार ने अपना अंशदान बढ़ाया है यह भी मंत्री जी ने बताया और खूबियां भी संवाददाता सम्मेलन में बतायी।
अब इस लेख का मूल सवाल यह है कि यदि नयी नवेली पेंशन स्कीम इतनी ही अच्छी है ओल्ड पेंशन स्कीम से भी अच्छी है तो फ़िर इससे सेना के विभिन्न अंगों में शामिल जवानों को क्यों नहीं, मंत्रियों सांसदों व विधायकों को यूपीएस का लाभ क्यों नहीं? देश एक है तो पेंशन एक क्यों नहीं?