रूपौली उपचुनाव के नतीजों से निकले संकेत समझिए
दीपक कुमार तिवारी
पटना। बिहार के रूपौली विधानसभा उपचुनाव में दलीय प्रत्याशियों को हरा कर निर्दलीय शंकर सिंह की जीत ने सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों को अचंभे में डाल दिया है। जातीय राजनीति की जकड़न में उलझे बिहार को रूपौली के परिणाम ने नई दिशा दी है। इसे सीधे और सपाट शब्दों में कहें तो रूपौली ने सियासत के तमाम धुरंधरों को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करने को बाध्य कर दिया है। अति पिछड़ी जाति बहुल क्षेत्र होने के बावजूद किसी निर्दलीय और सवर्ण का जीतना जाति की राजनीति करने वालों के लिए चिंता का विषय तो है ही।
महागठबंधन के साथ सरकार चलाते वक्त सीएम नीतीश कुमार ने दो बड़े काम किए, जिससे उन्हें लगता था कि कोई बड़ा तीर मार लिया है। पहला काम था जाति सर्वेक्षण का। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव का जाति सर्वेक्षण सपना था। उन्हें लगता था कि ऐसा होने पर 90 के दशक की राजनीति का दौर वे लौटा पाएंगे। नीतीश को भी इसमें लाभ ही दिख रहा था। उन्होंने 500 करोड़ से अधिक खर्च कर जाति सर्वेक्षण कराया, बल्कि इसे जस्टिफाई करने के लिए सर्वेक्षण से निकले आंकड़ों के आधार पर आरक्षण की सीमा भी 50 से बढ़ा कर 65 फीसद कर दिया। यह वही दौर था, जब नीतीश कुमार इंडिया ब्लॉक की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी संभावना तलाश रहे थे। नीतीश कुमार के इस काम को विपक्ष ने राष्ट्रीय राजनीति में कमाल का मुद्दा माना। देश भर में जाति जनगणना की मांग होने लगी।
विपक्षी अपनी सरकार बनने पर इसके वादे करने लगे। राहुल गांधी तो इससे इतने उत्साहित थे कि उन्होंने आरक्षण के बाबत यह कहना शुरू कर दिया कि जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। रूपौली उपचुनाव को अगर केस स्टडी मानें तो बिहार में इसका कोई लाभ न आरजेडी को मिला और न नीतीश कुमार को। दबी जुबान जाति सर्वेक्षण और आरक्षण बढ़ाने का स्वागत करने वाली भाजपा भी इससे लाभाविंत नहीं हो पाई। यह हाल लोकसभा चुनाव में भी दिखा और रूपौली विधानसभा के उपचुनाव में भी।
बिहार में जाति की राजनीति 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव के उदय के साथ जाति की राजनीति परवान चढ़ी। मंडल कमीशन की रिपोर्ट का समर्थन कर लालू सामाजिक न्याय के मसीहा बन गए। सत्ता में रहते ही लालू ने मुस्लिम-यादव कंबिनेशन बनाया। उनकी समझ थी कि इन दोनों जातियों की आबादी 30-32 प्रतिशत है तो गोलबंदी का लाभ मिलता रहेगा। लंबे समय तक इसका लाभ लालू को मिला भी। लगातार 15 साल तक बिहार की सत्ता लालू परिवार में ही सिमटी रही। फिर कोइरी-कुर्मी के गंठजोड़ से लव-कुश समीकरण नीतीश ने बनाया। नीतीश का राजनीतिक भाग्योदय भी लव-कुश समीकरण से ही हुआ।
भाजपा नीतीश कुमार की चेरी बनी रही। 2020 के विधानसभा चुनाव को छोड़ दें तो 2005 से ही भाजपा नीतीश की पिछलग्गू ही साबित हुई है। 2020 का विधानसभा चुनाव नीतीश पर भाजपा की कुटिलता के कारण भारी पड़ गया। भाजपा के उकसावे पर लोजपा के तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्ष चिराग पासवान ने सवा सौ से अधिक सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। इनमें वैसे उम्मीदवारों की संख्या ढाई दर्जन से अधिक थी, जिनकी वजह से नीतीश के उम्मीदवारों को हार का सामना करना पड़ा। भाजपा की ही यह कुटिल चाल थी, ऐसा तब जेडीयू के तमाम नेता कहते थे। बहरहाल, लगातार दो ऐसे चुनावी परिणाम बिहार में हाल के दिनों में आए हैं, जहां जाति बंधन से अलग हट कर लोगों ने वोट किए हैं।
इनमें एक तो पूर्णिया लोकसभा का चुनाव है, जहां आरजेडी के एम-वाई समीकरण और नीतीश के जाति सर्वेक्षण-आरक्षण को जनता ने कोई भाव नहीं दिया। निर्दलीय पप्पू यादव को जनता ने सांसद बना दिया। पूर्णिया संसदीय क्षेत्र में ही रूपौली विधानसभा क्षेत्र भी आता है। लोकसभा चुनाव में एनडीए समर्थित जेडीयू प्रत्याशी संतोष कुशवाहा को जिस रुपौली में 73 हजार से अधिक वोट मिले, उसी रूपौली में विधानसभा उपचुनाव के दौरान एनडीए समर्थित जेडीयू प्रत्याशी कलाधर मंडल को करीब 60 हजार वोट ही मिल पाए हैं। आखिर जेडीयू के 13 हजार वोट कहां गायब हो गए ? इसी तरह इंडिया ब्लॉक समर्थित आरजेडी की उम्मीदवार बीमा भारती पूर्णिया लोकसभा चुनाव में करीब 11 हजार वोटों पर ही सिमटी रहीं तो रुपौली की उनकी पारंपरिक सीट पर इस बार उन्हें करीबन 30 हजार वोट मिले हैं।
दोनों चुनावों में बीमा तीसरे नंबर पर रहीं। निर्दलीय शंकर सिंह अपनी राजपूत बिरादरी के कम वोटों के बावजूद बाजी मार ले गए।
पूर्णिया और रूपौली के नतीजों से यह अब साफ हो गया है कि बिहार जाति की रजनीति से बाहर निकल रहा है। उम्मीदवार का चेहरा और उसका काम अब वोटर के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। वोटर अब जातीय समीकरणों से बाहर निकल कर अपने भले-बुरे के बारे में सोच रहा है।
शंकर सिंह लोजपा के टिकट पर पहली बार 2005 में रूपौली से विधायक बने थे। उसके बाद बीमा भारती ने इस सीट पर कब्जा कर लिया और तीन बार से वे रूपौली से लगातार विधायक बनती रही हैं। विधायक न रहते हुए भी शंकर सिंह ने जनता के हित अपने काम जारी रखे। संबंधों-संपर्कों को मिटने नहीं दिया। क्षेत्र की समस्याओं को लेकर आवाज बुलंद करते रहे। यही वजह रही कि अति पिछड़ी जातियों के साथ मुसलमानों ने भी शंकर सिंह का साथ दिया, ठीक उसी अंदाज में जैसा पप्पू यादव के चुनाव में जनता ने किया था।