जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभाव को कम करने में पूसा विश्वविद्यालय दे रहा अहम योगदान

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जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव 

सुभाष चंद्र कुमार
समस्तीपुर पूसा।डॉ राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविधालय पूसा समस्तीपुर बिहार के कुलपति डॉ पीएस पाण्डेय के समुचित निर्देशन व मार्गदर्शन में जलवायु अनुकूल कृषि परियोजना संचालित की जा रही है। बिहार सरकार के सौजन्य से राज्य के 11 जिलें अंतर्गत 14 कृषि विज्ञान केंद्रों पर जलवायु अनुकूल कृषि कार्यक्रम के द्वारा किसानों के खेत में नवीनतम तकनीक एवं उन्नतशील बीज लगाकर अनुसंधान किया जा रहा है।

 

जिसमें मुख्यरूप से मुजफ्फरपुर जिलें में सरैया और तुर्की, दरभंगा के जाले में, पूर्वी चंपारण के पिपराकोठी और परसौनी, पश्चिमी चंपारण के माधोपुर और नरकटियागंज, सारण के माझी में, सिवान के भगवानपुर हाट में, गोपालगंज के सिपाया में, मधुबनी के सुखैत में, शिवहर, बेगूसराय के खोदावंदपुर में, सीतामढ़ी कृषि विज्ञान केंद्र शामिल है।

इधर जलवायु परिवर्तन के दौर में किसानों को फसलों से बेहतर उत्पादन दिलाने तथा लागत एवं नुकसान को कम करने के लिए सतत प्रयासरत है। किसी क्षेत्र विशेष की परम्परागत जलवायु में समय के साथ होने वाले बदलाव को जलवायु परिवर्तन कहा जाता है। जलवायु में आने वाले परिवर्तन के प्रभाव को एक सीमित क्षेत्र सहित सम्पूर्ण दुनिया में अनुभव किया जा सकता है।

वर्तमान में जलवायु परिवर्तन की स्थिति गंभीर दिशा में पहुँच रही है और पूरे विश्व में इसका असर देखने को मिल रहा है। संयुक्त राष्ट्र की जलवायु रिपोर्ट में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन का पर्यावरण के सभी पहलुओं के साथ-साथ वैश्विक आबादी के स्वास्थ्य और कल्याण पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा है।विश्व मौसम विज्ञान संगठन की अगुवाई में तैयार रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के भौतिक संकेतों – जैसे भूमि और समुद्र के तापमान में वृद्धि, समुद्र के जल स्तर में वृद्धि और बर्फ के पिघलने के अलावा सामाजिक-आर्थिक विकास, मानव स्वास्थ्य, प्रवास और विस्थापन, खाद्य सुरक्षा और भूमि तथा समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र पर प्रभाव का दस्तावेजीकरण किया गया है।

जीवाश्म ईंधन के दहन से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है जो पृथ्वी के चारों ओर लिपटे एक आवरण की तरह काम करता है। यह सूर्य की ऊष्मा को जब्त करता है और तापमान बढ़ाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता तापमान हिम गलन में तेजी ला रहा है, जिससे समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है और बाढ़ एवं कटाव की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।

उपरोक्त बातों कि जानकारी देते हुए जलवायु परिवर्तन पर उच्च अध्ययन केंद्र के परियोजना निदेशक डॉ रत्नेश कुमार झा ने बताया कि जलवायु परिवर्तन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित करता है। जलवायु में परिवर्तन भूजल पुनर्भरण, जल चक्र, मिट्टी की नमी, पशुधन और जलीय प्रजातियों को प्रभावित करेगा।जलवायु में परिवर्तन से कीटों और रोगों की घटनाओं में वृद्धि होती है, जिससे फसल उत्पादन में भारी नुकसान होता है।

जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि क्षेत्र और भी कई तरह से प्रभावित हो सकता है। जैसे कि जलवायु परिवर्तन मृदा में होने वाली प्रक्रियाओं एवं मृदा-जल के संतुलन को प्रभावित करता है। मृदा-जल के संतुलन में अभाव आने के कारणवश सूखी मिट्टी और शुष्क होती जाएगी, जिससे सिंचाई के लिये पानी की माँग बढ़ जाएगी। जलवायु परिवर्तन के जलीय-चक्रण को प्रभावित करने के परिणामस्वरूप कहीं अकाल तो कहीं बाढ़ का खतरा बढ़ जाता है। जिससे फसलों को भारी तादाद में नुकसान पहुँचता है।

पिछले 30- 50 वर्षों के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 450 पीपीएम (पाट्र्स प्रति मिलियन) तक पहुँच गई है।कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि कुछ फसलों जैसे कि गेहूँ तथा चावल, जिनमें प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया सी- 3 माध्यम से होती है। के लिये लाभदायक भी है, क्योंकि ये प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया को तीव्र करती है एवं वाष्पीकरण के द्वारा होने वाली हानियों को कम करती है। परंतु इसके बावजूद कुछ मुख्य खाद्यान्न फसलों जैसे गेहूँ की उपज में महत्वपूर्ण गिरावट पाई गई है। जिसका कारण है तापमान में वृद्धि उच्च तापमान फसलों के वृद्धि की अवधि को कम करता है।

श्वसन क्रिया को तीव्र करता है तथा वर्षा में कमी लाता है।उच्च तापमान, अनियमित वर्षा, बाढ़, अकाल, चक्रवात आदि की संख्या में बढ़ोतरी, कृषि जैव विविधता के लिये भी संकट पैदा कर रहा है। बागवानी फसलें अन्य फसलों की अपेक्षा जलवायु परिवर्तन के प्रति अतिसंवेदनशील होती हैं। उच्च तापमान सब्जियों की पैदावार को भी प्रभावित करता है। जलवायु परिवर्तन अप्रत्यक्ष रूप से भी कृषि को प्रभावित करता है।जैसे खरपतवार को बढ़ाकर, फसलों और खरपतवार के बीच स्पर्धा को तीव्र करना, कीट-पतंगों तथा रोगजनकों की श्रेणी का विस्तार करना इत्यादि।

जलवायु परिवर्तन के कृषि पर प्रभाव को कम कैसे किया जाए?

वर्षा जल के उचित प्रबंधन द्वारा तापमान वृद्धि के साथ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में जमीन का संरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना एक सहयोगी एवं उपयोगी कदम हो सकता है। वाटर शेड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा जल को सिंचित कर सिंचाई के रूप मे प्रयोग कर सकते है। इससे किसानों को जहां एक ओर सिंचाई की सुविधा मिलेगी. वहीं दूसरी और भू-जल पुर्नभरण में भी मदद मिलती है।

फसल उत्पादन में नयी तकनीकों का विकास-जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमें फसलों के प्रारूप एवं उनके बीज बोने के समय में भी परिवर्तन करना होगा। पारम्परिक ज्ञान एवं नयी तकनीकों के समन्वयन तथा समावेश द्वारा वर्षा जल संरक्षण एवं कृषि जल का उपयोग मिश्रित खेती व इन्टरक्रॉपिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता है। कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परिवर्तन के खतरों से निजात पा सकते हैं।

फसल बीमा के विकल्पों को मुहैया करना, ताकि लघु एवं सीमांत किसान इनका लाभ उठा सके। जैविक एवं समग्रित खेती में रसायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहां एक और मृदा की उत्पादकता घटती है वहीं दूसरी और इनकी मात्रा भोजन श्रृंखला के माध्यम से मानव शरीर में पहुंच जाती है। जिससे अनेक प्रकार की बीमारियां होती हैं। रसायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन में भी इजाफा होता है।

अत: हमें जैविक खेती करने की तकनीकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए। एकल कृषि के बजाय समग्रित खेती में जोखिम कम होता है। समग्रित खेती में अनेक फसलों का उत्पादन किया जाता है। जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त हो जाये तो दूसरी फसल से किसान की रोजी-रोटी चल सकती है।

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