होली एक ऐसा रंगबिरंगा त्योहार है, जिसे हर धर्म के लोग पूरे उत्साह और मस्ती के साथ मनाते रहे हैं। होली के दिन सभी बैर-भाव भूलकर एक-दूसरे से परस्पर गले मिलते थे। लेकिन सामाजिक भाईचारे और आपसी प्रेम और मेलजोल का होली का यह त्यौहार भी अब बदलाव का दौर देख रहा है। फाल्गुन की मस्ती का नजारा अब गुजरे जमाने की बात हो गई है। कुछ सालों से फीके पड़ते होली के रंग अब उदास कर रहे हैं। शहर के बुजुर्गों का कहना है कि ‘ न हंसी- ठिठोली, न हुड़दंग, न रंग, न ढप और न भंग’ ऐसा क्या फाल्गुन? न पानी से भरी ‘खेळी’ और न ही होली का …..रे का शोर। अब कुछ नहीं, कुछ घंटों की रंग-गुलाल के बाद सब कुछ शांत। होली की मस्ती में अब वो रंग नहीं रहे। आओ राधे खेला फाग होली आई….ताम्बा पीतल का मटका भरवा दो…सोना रुपाली लाओ पिचकारी…के स्वर धीरे धीरे धीमे हो गए हैं।