Patriarchy : श्राद्ध  का  महत्व

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बी कृष्णा नारायण

पितरः प्रीति मापन्ने सर्वाम प्रीयन्ति देवता ||

पितर के प्रीत से ही देवता प्रसन्न होते हैं|

जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे, आर्यावर्ते, पुण्य क्षेत्रे (अपने नगर/गांव का नाम लें) श्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, उत्तरायणे बसंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुक वासरे , अमुक गोत्रोत्पन्नोऽहं (अपने गोत्र का नाम लें), अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं … च अहं पूजन करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे… पूजनं करिष्ये।

किसी भी शुभ संकल्प से पहले जब पंडित जी यह मन्त्र बोलते थे तब हमारा ध्यान बरबस ही इस ओर जाता था| जब मैंने बाबूजी से इसके बारे में पूछा तब उन्होंने विस्तार से इसके बारे में बताया और न केवल मेरी शंका का शमन किया अपितु अपने पूर्वजों से भी मिलवाया| इस मंत्र में अन्य बातों के साथ जब हम अपना गोत्र जोड़ते हैं तो अपने पितरों के साथ तो हम अपना सम्बन्ध स्थापित करते ही हैं साथ ही साथ हम कौन हैं इसकी पहचान भी होती है|

श्राद्ध – अपने पितरों से मिलने का समय, उनसे मिलकर एकाकार होने का समय, उनके प्रति श्रद्धाभाव से समर्पित होने का समय है|

श्रद्धां दीयतेश्रद्धां क्रियतेश्रद्धां अनुदीयते श्राद्धंश्राद्येषु पितरं तृप्तः|

श्राद्ध को लेकर शास्त्रीय कथन क्या है?

इसके पीछे का वैज्ञानिक रहस्य क्या है ?

तर्पण की विधि क्या है और कौओं को खाना खिलाये जाने के पीछे का रहस्य क्या है, इन सभी बातों को हमलोग जानेंगें|

भगवद्गीता –

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:॥1 /42॥

लुप्तपिण्डोदकक्रिया: – समाज में जब तर्पण लुप्त हो जाता है मतलब कि अपने पूर्वजों के प्रति जो श्रद्धा है उस श्रद्धा से समाज विमुख  हो जाता है तो समाज का ह्रास शुरू हो जाता है| समाज कि अवनति आरम्भ हो जाती है|

अपने से बड़ो को सम्मान देना, अपने वरिष्ठों को मान देना यह धर्म पालन का एक महत्वपूर्ण अंग है| श्राद्ध और तर्पण, इस एक प्रक्रिया से पूरा का पूरा धर्म जीवित है|

मतस्य पुराण मैं पिण्डोदक कर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है|

छान्दोग्य उपनिषद में भी इस कर्म का वर्णन है|

मार्कण्डेय पुराण में ऋतुध्वज अपनी पत्नी मदालसा को कहते हैं कि पुत्रों को प्रवृत्ति मार्ग में लगाओ| ऐसा करने से कर्म मार्ग का उच्छेद नहीं होगा तथा पितरों के पिंडदान का लोप नहीं होगा| जो पितर देवलोक में हैं, तिर्यक योनि में जो परे हैं, वे पुण्यात्मा हो या पापात्मा, जब भूख, प्यास से विकल होते हैं तो अपने कर्मो में लगा हुआ मनुष्य पिंडदान द्वारा उन्हें तृप्त करता है| तब मदालसा अपने पुत्र अलर्क को श्राद्ध कर्म के बारे में बतलाते हुए कहती हैं कि मृत्यु के पश्चात् जो श्राद्ध किया जाता है उसे औरघवदैहिक श्राद्ध कहते हैं| व्यक्ति जिस दिन ( तिथि में ) मरा  हो ,उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध करना चाहिए| एक ही पवित्रक का उपयोग किया जाता है| अग्निकरण की क्रिया नहीं होती|

ब्राह्मण के उच्छिष्ट के समीप प्रेत को तिल और जल के साथ अपसव्य होकर ( जनेऊ को दाहिने कंधे पर डालकर )उसके नाम गोत्र का स्मरण करते हुए एक पिंड देना चाहिए| तत्पश्चात हाथ में जल लेकर कहें  – ‘ अमुक के श्राद्ध में दिया हुआ अन्न-पान आदि अक्षय हो यह कहकर वह जल पिंड पर छोड़ दे ,फिर ब्राह्मणो का विसर्जन करते समय कहे ‘ अभिरंबताम’ ( आपलोग सब तरह से प्रसन्न हों )| उस समय ब्राह्मण लोग कहें  ‘अभिरता स्मः ‘( हम भली भांति संतुष्ट हैं )|

श्राद्ध में विषम संख्या में ब्राह्मणो को आमंत्रित करे|

पिता ,पितामह और प्रपितामह इन तीनो पुरुषों को पिंड के अधिकारी समझना चाहिए|

यही बात मातामहों के श्राद्ध में भी होना चाहिए|

पितृश्राद्ध में बैठे हुए सभी ब्राह्मणो को आसन के लिए दोहरे मुड़े हुए कुश देकर उनकी आज्ञा ले विद्वान पुरुष  मन्त्रोच्चारपूर्वक पितरों का आवाहन करे और अपसव्य होकर पितरों की प्रसन्नता के लिए तत्पर हो उन्हें अर्घ्य निवेदन करे|

इसमें जौ के स्थान पर तिल का प्रयोग करना चाहिए|

नमक से रहित अन्न लेकर विधिपूर्वक अग्नि में आहुति दें| ‘अग्नये कव्यवाहनाये स्वाहा ‘ इस मन्त्र से पहली आहुति दें, ‘ सोमाय पितृमते स्वाहा ‘ इस मंत्र से दूसरी आहुति दें तथा ‘यमाये प्रेत्पतये स्वाहा ‘इस मंत्र से तीसरी आहुति दें |आहुति से बचे हुए अन्न को ब्राह्मणो के पात्र में परोसें फिर विधिपूर्वक जो जो अन्न उन्हें अत्यंत प्रिय लगे वह वह उनके सामने खुशीपूर्वक प्रस्तुत करें |

यहाँ सिर्फ पितरों के तृप्त और सुखी होने की कामना नहीं की जाती है बल्कि देव, ऋषि, दसों दिशाएं, ऋतु और यहाँ तक कि यम के तृप्त और सुखी होने की कामना से उन्हें जल दिया जाता है| सर्वे भवन्तु सुखिनः और श्रद्धा भाव दो मूल मन्त्र पकड़ता है हमें श्राद्ध|

ब्राह्मणों को आग्रहपूर्वक भोजन कराएं| उनके भोजनकाल में रक्षा के लिए पृथ्वी पर तिल और सरसो बिखेर दे और रक्षोग्न मन्त्र का पाठ करें क्योंकि श्राद्ध में अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं|

अंत में यथा शक्ति दान देकर ब्राह्मणो से कहें ‘ सुस्वधा अस्तु ‘( यह श्राद्धकर्म भली भांति संपन्न हो ) ब्राह्मण भी संतुष्ट होकर कहें ‘ तथास्तु ‘इसके बाद उनका आशीर्वाद लें और उन्हें विदा करे ,तत्पश्चात अथितियों को भोजन कराएं| इसके बाद बचा हुआ भोजन यजमान ग्रहण करें|

जो वंशज अपने पितरों को तर्पण और श्राद्ध द्वारा तृप्त करते हैं, पितर उनकी सब प्रकार से रक्षा करते हैं|

भाद्रपद (भादो माह) में मनाये जाने वाले श्राद्ध का वैज्ञानिक आधार –

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, सूर्य का कन्या राशि में जब गोचर हो रहा होता है या सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करने वाला होता है  तब श्राद्धकर्म किया जाता है | इसे पितृपक्ष कहते हैं | सारे व्रत और त्योहार सूर्य और चन्द्रमा के परस्पर संबंधों पर आधारित हैं पर यह सिर्फ सूर्य पर आधारित है | ज्योतिष्शास्त्र ने हज़ारों वर्ष पूर्व सूर्य के कन्या राशि में गोचर के साथ पितरों की चर्चा की| यह विज्ञान सम्मत भी है| कैसे ,आइये जाने -पृथ्वी और अन्य ग्रह सूर्य के चारो तरफ चक्कर लगाते हैं .सूर्य आकाशगंगा के चारो तरफ घूमता है और कई आकाशगंगाओं का समूह जिस तारामंडल के चारो तरफ घूमते हैं उस तारामंडल की गति दिशा कन्या राशि की तरफ होती है ,इसे विज्ञान VIRGO(कन्या) super cluster कहता है|

रांची में अभी भी आदिवासी जाति है जो हर तीसरे वर्ष अपने पितरों को तृप्त करने हेतु पूजा करते हैं| वे जिस समय पूजा करते हैं सूर्य कन्या राशि में आ चुका होता है|

है न आश्चर्य की बात कि आज विज्ञान जिस बात को स्वीकार रहा है, ज्योतिषशास्त्र हज़ारो वर्ष पूर्व ही उसका दर्शन करा  चुका है| उन्होंने इस मार्ग को पितृमार्ग कहा| इसका सारगर्भित अर्थ यह कि पितृमार्ग अर्थात जनम -मरण-जनम -का चक्र|

कौओं को खाना खिलाने के पीछे का सारगर्भित अर्थ –

लोक, आस्था, प्रकृति और जीवन से जोड़ है यह|  पीपल के बीज को कौए जब खाकर मल द्वारा बाहर निकालते हैं  तभी पीपल के बीज से पौधा निकल पाता है| लोग जब कौओ के माध्यम से पितरों से जुड़ते है तो पता चलता है कि इसका भी कितना महात्त्म्य है| और यह ज्ञान हमें किताबों से नहीं मिलता वरन  प्रकृति से जुड़कर मिलता है|

इतना सारगर्भित है यह| आस्था के साथ साथ प्रकृति से तो जोड़ता ही है, हर एक के तृप्त और सुखी होने की कामना श्रद्धा पूर्वक करने का पाठ पढ़ाता है| हमें अपनी पहचान दिलाता है|

आइये हम अपनी पहचान के प्रति सचेत हों और सनातन परंपरा के बीज को फिर से पोषित करें| तर्पण करें| अपने पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करके ग्रहजन्य पीड़ा एवं पितृदोष से मुक्ति पाकर आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करें|

पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा सुमन श्राद्ध के रूप में अर्पित करें|

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