Maharana Pratap ki Kahani : राजतंत्र में भी लोकतंत्र की नजीर बन गये थे महाराणा प्रताप

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Maharana Pratap ki Kahani : जनता ने जगमाल को गद्दी से उतरवाकर महाराणा को बनवाया था राजा

जून के महीने की गर्मी कितनी भीषण होती, इसका अंदाजा तो मौजूदा हालात में ही महसूस करने से मिल जाएगा। वह भी जगह राजस्थान हो तो समझा जा सकता है कि गर्मी का मिजाज कैसा होगा। इस महीने की भीषण गर्मी में यदि युद्ध की बात हो तो समझने में देर नहीं लगेगी कि लड़ने वाले सैनिकों की मनोस्थिति क्या होगी ? और युद्ध अकबर और महाराणा प्रताप की सेना के बीच हुआ हो तो जून के महीने में कितनी खून की धार बही होगी, बताने की जरूरत नहीं है। बात हो रही है Maharana Pratap ki Kahani की। दरअसल 21 जून 1576 को शुरू हुए हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना ने अकबर की सेना के दांत खट्टे कर दिये थे। यह महाराणा का आम लोगों के साथ मिलकर किया गया संघर्ष ही था कि उनकी सेना में भीलों की संख्या ज्यादा थी।

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निश्चित रूप से राजतंत्र में राजा के बड़े बेटे के राजा बनने की परंपरा गलत थी। राजतंत्र में जनता की कहीं पर भी सुनवाई नहीं होती थी पर मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप का इतिहास कुछ इससे अलग है। अध्ययन करने से पता चलता है कि महाराणा प्रताप को राजा उनके पिता उदय सिंह ने नहीं बल्कि जनता ने बनवाया था। दरअसल महाराणा के पिता उदय सिंह ने अपनी छोटी पत्नी धीर बाई (भटियानी) से विशेष अनुराग के चलते उनके पुत्र जगमाल को युवराज घोषित कर दिया था।

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राजपूत राजाओं में ऐसी प्रथा थी कि युवराज पिता के दाह संस्कार में नहीं जाता था। 28 फरवरी 1572 को जब उदय सिंह की मृत्यु हुई तो महाराणा प्रताप को दाह संस्कार में देखकर मेवाड़ की जनता भड़क उठी। Maharana Pratap Photo की बात करें तो उनकी बड़ी बड़ी मूंछें लम्बा चौड़ा कद काठी देखकर ही बताया जा सकता है कि वह दुश्मन पर कितने भारी पड़ते होंगे। बताया जाता था कि महाराणा प्रताप आम लोगों से बहुत घुल मिलकर रहते थे। पिता उदय सिंह के साथ पहाड़ियों में संघर्ष करने की वजह से भीलों के साथ उनका काफी मेल मिलाप था। यही वजह थी कि हल्दीघाटी के युद्ध में भीलों ने उनका भरपूर साथ दिया था।

बताया जाता है कि उदय सिंह का दाह संस्कार चल ही था कि भटियानी रानी ने कुछ सरदारों के सहयोग से जगमाल का राजतिलक कर करवा दिया। जगमाल का राजतिलक होने पर मेवाड़ की जनता ने प्रताप के पक्ष में बगावत कर दी थी। यह जनता की ही बगावत थी कि गोगुंदा लौटने के बाद मेवाड़ के सरदारों को प्रताप का राजतिलक करना पड़ा था। राजतिलक का Maharana Pratap Photo देखते ही जगमाल नाराज होकर अकबर के पास पहुंच गया था। महाराणा प्रताप को राजगद्दी पर बैठने ही तमाम चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। ऐसी भी जानकारी मिलती है कि जगमाल अकबर के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए भी तैयार था। बाद में अकबर ने जगमाल को जहाजपुर की जागीर प्रदान कर दी थी। हालांकि 1583 में दताणी युद्ध में जगमाल की मृत्यु हो गई थी।

बताया जाता है कि जब महाराणा प्रताप मेवाड़ की गद्दी पर बैठे थे तो उस समय मेवाड़ की स्थिति बड़ी सोचनीय थी। Struggle of Maharana Pratap की बात करें तो उनके गद्दी संभालने से पहले ही चितौड़, बदनोर, रायला, शाहपुरा सभी रजवाड़ों पर मुगलों का अधिकार हो गया था। इससे न केवल राजस्व प्रभावित हुआ था बल्कि मेवाड़ की प्रतिष्ठा भी गिरी थी। उस समय एक राजा के रूप में महाराणा प्रताप के सामने दो ही रास्ते थे।

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एक वह अकबर की अधीनता स्वीकार कर अपनी आत्मा मारकर अकबर के रहमोकरम पर राजसी सुख सुविधाएं भोगें, दूसरा रास्ता स्वाधीनता के लिए मुगलों से मोर्चा लें। यह Struggle of Maharana Pratap था कि उन्होंने लड़ाई के रास्ते को चुना। महाराणा प्रताप में संगठन निर्माण की गजब की क्षमता थी। महाराणा प्रताप ने सबसे पहले लड़ाके भीलों को अपने साथ मिलाया और अपना निवास स्थान गोगुंदा से कुंभलगढ़ कर दिया।

जब महाराणा प्रतान ने मेवाड़ की बागडोर संभाली थी तो उस समय अकबर अपने साम्राज्य का विस्तार करने में लगा था। कई राजपूत रियासतों को अपनी अधीन करने के बाद अकबर मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए बेताब था। राजस्थान में महाराणा प्रताप उसकी आंखों की किरकिरी बने हुए थे। महाराणा प्रताप को अपने अधीन करने लिए अकबर ने प्रयास शुरू किये। अकबर ने पहले सितम्बर 1572 में जलाल खां को भेजा था, लेकिन वह इसमें नाकाम रहा था। दूसरे क्रम में यानी कि 1573 में आमेर के मान सिंह को भेजा गया। यह Battle of Haldighati से बचने का अकबर का बड़ा प्रयास था।

बताया जाता है कि महाराणा ने मान सिंह के सम्मान में एक भोज का आयोजन किया, जिसमें खुद न जाकर अपने पुत्र अमर सिंह को भेज दिया। बताया जाता है कि इससे मान सिंह चिढ़ गया था और वहां से बिना भोजन किये ही चला गया था। इस बात की जानकारी कर्नल टॉड की पुस्तक में मिलती है। हालांकि जिस तरह का महाराणा प्रताप का व्यक्तित्व था उनके द्वारा मान सिंह के अपमान की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

यह भी जानकारी मिलती है जब मान सिंह अकबर के पास लौटा तो अकबर भी उससे कुछ समय के लिए नाराज हो गया और उसकी ड्योढ़ी भी बंद करवा दी थी। अकबर ने महाराणा प्रताप को मनाने के लिए 1573  में भगवान दास और अंतिम राजदूत के रूप में 1573  में ही राजा टोडरमल को भेजा था पर इनमें से कोई भी महाराणा प्रताप को मना नहीं पाया था। अकबर के वे सभी प्रयास के विफल होने के बाद ही Battle of Haldighati हुआ था।

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कुछ इतिहासकार हल्दीघाटी का युद्ध मानसिंह के अपमान की परिणती मानते हैं पर इमसें काफी संदेह है। अकबर मात्र मान सिंह के अपमान के लिए अपनी सेना को युद्ध में नहीं झोंक सकता था। दरअसल अकबर महाराणा प्रताप का स्वाभिमान कुचलना चाहता था। वैसे भी 1573 के बाद Battle of Haldighati 1576  में मलतब तीन वर्ष बाद महाराणा प्रताप की मानसिंह से मुलाकात होती है। वह अकबर की साम्राज्यवादी मंशा और महाराणा प्रताप को नीचा दिखाने का प्रयास था, जिसके चलते हल्दी घाटी युद्ध हुआ था।

दरअसल गुजरात राजस्व का बड़ा केंद्र होने की वजह से अकबर महाराणा प्रताप की स्वतंत्रता को खत्म करना चाहता था। यही वजह थी कि हल्दीघाटी के युद्द में अकबर ने मान सिंह को सेना और धन देकर मेवाड़ को जीतने के लिए भेजा था। मान सिंह 3 अप्रैल 1576  को अजमेर से रवाना होकर मांडलगढ़ होता हुआ मोलेला गांव (खमनोर) में आ डटा। 21  जून 1576  को Battle of Haldighati शुरू हो गया। हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से राणा पूंजा, हकीम खां सूरी, रामदास राठौड़ भीम सिंह, मान सिंह झाला और भामाशाह थे तो मुगल सेना से मान सिंह के नेतृत्व में सैयद अहमद खां, जगन्नाथ कछवाहा, मिहतार खान युद्ध में थे।

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हालांकि राजपूतों की संख्या मुगलों से काफी कम थी पर युद्ध में राजपूत मुगलों पर भारी पड़ रहे थे। खतरनाक युद्ध का बिगुल बज चुका था। राजपूत सेना का पहला वार बहुत घातक साबित हुआ था। इस हमले ने मुगलों की सेना के छक्के छुड़ा दिये गये थे। जून के महीने में युद्ध चल रहा था कि दोनों दलों के सैनिक आपस में घुल मिल गये थे। बताया जाता है कि प्रताप की सेना के राजपूतों और मुगलों के राजपूतों को पहचानना मुश्किल हो गया था।

बताया जाता है कि Battle of Haldighati के दौरान बदायूनी ने आसिफ खां से पूछा कि अपने और महाराणा प्रताप के राजपूतों को कैसे पहुचानें ? तो आसिफ खान ने जवाब दिया था कि तुम बस वार करते जाओ किसी भी पक्ष का राजपूत मरे फायदा मुगलों को ही होगा। महाराणा प्रताप अकबर की सेना को चीरते हुए मान सिंह के हाथी के पास पहुंच गये थे। प्रताप के घोड़े चेतक ने छलांग लगाकर अपने दोनों पांव मान सिंह के हाथी पर टिका दिये और प्रताप ने मान सिंह का मौत के घाट उतारने के लिए भाले से वार किया परंतु मान सिंह का भाग्य अच्छा था कि वह तो बच गया। हालांकि मान सिंह का महावत मारा गया। बताया जाता है कि इसी दौरान चेतक की एक टांग हाथी की सूंड में लगे खंजर की वजह कट गई।

महाराणा चारों ओर से मुगल सेना से घिर चुके थे परंतु महाराणा प्रताप इस घेराव से निकल गये और मान सिंह झाला ने महाराणा प्रताप का मुकुट सिर पर लगाकर युद्ध करना शुरू कर दिया और अंत तक ऐसे ही करते रहे। बताया जाात है कि युद्ध के दौरान घायल चेतक महाराणा प्रताप को लेकर दौड़ लगा रहा था कि बीच में एक नाले में छलांग लगाने के पश्चात घायल चेतक की मृत्यु हो गई। यह वह समय था कि एक साये के रूप में महाराणा का साथ निभाने वाला चेतक उनको छोड़कर चला गया था।

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बताया जाता है कि अकबर की ओर से लड़ रहा शक्ति सिंह महाराणा के पीछे-पीछे दौड़ता रहा। शक्ति सिंह ने प्रताप के पीछे लगे दो मुगलों को भी मार गिराया। बताया जाता है कि बाद में महाराणा प्रताप और शक्ति सिंह आपस में गले मिलकर बहुत राये थे। हालांकि यह कहानी सत्यता से परे लगती है। अगर शक्ति सिंह मुगल सेना की ओर से लड़ रहा होता तो उसका नाम बदायूनी की सूची में जरूर होता। हो सकता है कि यह दोनों भाईयों को मिलाने के लिए कहानी बनाई गई हो। बताया जाता है कि शक्ति सिंह पहले ही चितौड़ के आक्रामण में काम आ चुका था। महाराणा के युद्ध भूमि से लौटने के बाद मेवाड़ी सेना ने जान की बाजी लगाना शुरू कर दिया था, जिसमें सभी प्रमुख वीर यौद्धा युद्ध में काम आये। वैसे हल्दीघाटी का कोई परिणाम नहीं निकला। पूरा युद्ध एक दिन से भी कम समय में समाप्त हो गया।

हालांकि यह जीत राजपूतों की मानी जाएगी क्योंकि संख्या बल और गोला बारूद मुगल सेना के पास ज्यादा होने के बावजूद राजपूत सेना मुगल सेना पर भारी पड़ी थी। मुगल सेना के मारे गये सैनिकों की संख्या और हताहत हुए सैनिकों की तादाद भी राजपूतों से बहुत ज्यादा थी। Struggle of Maharana Pratap के तहत राजपूत सेना ने मुगल सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। इसे राजपूत सेना की जीत ही माना जाएगा कि युद्ध के पश्चात भी मुगल सेना के डेरे में भी भीलों की लूट खसोट और घात प्रतिघात चालू था।

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बताया जाता है कि इससे तंग आकर मान सिंह अपनी सेना लेकर अगली सुबह गोगुंगदा की ओर रवाना हो गया। इस युद्ध के बाद अकबर भी 13  अक्टूबर 1576  को गोगुंदा आया लेकिन महाराणा प्रताप यहां भी मुगलों के हाथ नहीं आ पाये। हल्दीघाटी युद्ध को मेवाड़ की थर्मोपॉली भी कहा जाता है। राजपूतों में पीठ दिखाना स्वीकार नहीं माना जाता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिरकार ऐसा क्या हो गया था कि महाराणा को मैदान से जाना पड़ा।

दरअसल महाराणा के खेत छोड़ने के कई कारण थे। बताया जाता है कि युद्ध भूमि में उन्होंने जमीनी युद्ध लड़ना शुरू कर दिया था जो परंपरागत युद्ध प्रणाली थी। जमीनी युद्ध में मुगल सैनिक अधिक पारंगत थे। बताया जाता है कि महाराणा प्रताप का मैदान छोड़ने का फैसला बिल्कुल सही था, उन्होंने साहस के साथ धैर्य से भी काम लिया, वहां से मैदान छोड़कर आगे की कई सफलताएं प्राप्त की और आगे भी अकबर की मुगल सेना को छकाये रखा दिवेर युद्ध में हराया भी।
महाराणा प्रताप के साथ ही उनके बाल्यावस्था के दोस्त भामाशाह का नाम भी प्रमुखता से लिया जाता है। भामा शाह ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपनी संपूर्ण संपत्ति प्रताप को अर्पित कर दी थी। इसलिए भामाशाह का नाम इतिहास में दानवीरता के लिए प्रद्धि है।

Myths about Maharana Pratap : हम लोग महाराणा प्रताप के बारे में पढ़ते हैं कि प्रताप जंगलों में घास फूस की रोटियां खाते थे। एक कहानी के अनुसार जब प्रताप के पुत्र अमर सिंह के हाथ से बिल्ली रोटी का टुकड़ा लेकर भाग गई तो उनका पुत्र रोने लगा महाराणा प्रताप के स्वयं के भी दुखी होने की बात कही जाती है। यह बात इसलिए गले नहीं उतरती क्योंकि महाराणा जिस क्षेत्र में घूमते-फिरते थे वह क्षेत्र काफी ऊपजाऊ था। मेवाड़ की जनता भी काफी उदार थी जो उन्हें बहुत प्रेम करती थी तो ऐसे में महाराणा प्रताप और उनके बच्चों को कम से कम भूखे रहने की नौबत तो नहीं आई होगी।

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दिवेर का युद्ध : प्रताप ने अपने सैन्य संगठन, शक्ति में बढ़ोतरी करने का कार्य किया था। भामाशाह से मिली सहायता से महाराणा प्रताप ने एक बड़ी फौज तैयार की। यह फौज गौरिल्ला पद्धति में माहिर बताई जाती थी। अकबर को उत्तर पश्चिम में उलझा देख महाराणा प्रताप ने फायदा उठाया और मुगलों की टुकड़ियों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। War of Diver अक्टूबर 1582  में लड़ा गया था। मुगल सेनापति सुल्तान खां थे जो रिश्ते में अकबर के चाचा भी लगते थे। दिवेर पर महाराणा अपनी सेना लेकर आ धमके। इससे मुगलों में हड़कंप मच गया।

युद्ध के दौरान महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने अपने भाले से ऐसा वार किया कि सुल्तान खां के घोड़े समेत दो टुकड़े हो गये। War of Diver में महाराणा प्रताप ने भी बहलोल खां को घोड़े ने भी बहलोल खां को घोड़े समेत दो भागों में विभाजित कर दिया था। उसके बाद अपने सेनापति एवं अन्य प्रमुखों के मारे जाने से मुगल सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस युद्ध में महाराणा की विजय हुई। मेवाड़ पर 36  प्रमुख मुगल ठिकानों पर महाराणा ने अधिकार कर लिया।

कर्नल जेम्स टॉड ने War of Diver को मेवाड़ के मैराथन की संज्ञा दी थी। 1585 में चावंड के लूणा चावंडिया को परास्त कर चावंड पर अधिकार कर लिया एवं चावंड को अपनी नई राजधानी बनाई। महाराणा प्रताप के व्य्त्विव के बारे में कहा जाता था कि उनका व्यक्तित्व बड़ा गजब का था। साढ़े सात फुट ऊंची कद काठी के महाराणा प्रताप 72  किलो का कवच एवं 81 किलो का भाला अपने हाथ में रखते थे। उनका प्रिय घोड़ा चेतक दुनिया के सर्वश्रेष्ठ घोड़ों में से एक था। महाराणा प्रताप युद्ध के दौरान अपने घोड़े के आगे हाथी की सूंड लगाकर विपक्षी खेमे के घोड़ों को भ्रमित किया करते थे।

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अकबर की उच्च महत्वाकांक्षा, शासन, निपुणनता एवं असीम संसाधन भी प्रताप की वीरता एवं साहस को दबाने में नाकाम रहे। बताया जाता है कि जब प्रताप के पुत्र अमर सिंह द्वारा मुगलों की कुछ महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता है तो महाराणा अमर सिंह पर बहुत नाराज होते हैं और उन महिलाओं को सम्मानपूर्वक वापस भेजने का आदेश देते हैं। महाराणा प्रताप ऐसे वीर हुए हैं जिन पर न केवल राजस्थान बल्कि पूरे भारत को गर्व है। अकबर को महाराणा प्रताप का इतना खौफ था कि वह कभी प्रताप के समक्ष नहीं आया। यह Struggle of Maharana Pratap था कि जब अधिकतर राजा महाराजा अकबर की अधीनता स्वीकरा कर चुके थे उसके बीच अकेले महाराणा प्रताप ने स्वाधीनता ही चुनी।

दरअसल History of Rajputs ने हमेशा से भारत के लोगों में उत्साह एवं जोश भरने का काम किया है। उसी राजपूताने में एक मेवाड़ राज्य था। मेवाड़ राज्य में बप्पा रावल, राणा, हम्मीर, महाराणा कुंभा, राणा सांगा जैसे प्रतापी शासक हुए, जिन्होंने कभी किसी के सामने अपना सिर नहीं झुकाया। ऐसे ही वीर योद्धा थे महाराणा प्रताप। महाराणा प्रताप ने जंगलों में रहना इतिहास, उनके बारे में अनेक भ्रांतियां हैं।

दरअसल महाराणा प्रताप का जन्म 9  मई 1540  में मेवाड़ के कुंभलगढ़ में हुआ था। महाराणा प्रताप का संबंध (History of Rajputs) सिसोदिया वंश से था। महाराणा प्रताप के पिता राणा सांगा के पुत्र उदय सिंह थेे। उनकी माता का नाम जयवंता बाई था जो पाली के सोनगरा अखैराज की पुत्री थी। महाराणा प्रताप की प्रमुख रानियों में एक अजबदे पंवार थीं, जिनके अमर सिंह और भगवान दास पैदा हुए थे।

चितौड़गढ़ पर अकबर के आक्रमण के कारण Struggle of Maharana Pratap यह था कि उन्होंने अपना बचपन घाटियों एवं पहाड़ियों में रहकर बिताया। उन पहाड़ी इलाकों में भील जनजाति के लोग अपने बच्चे को कीका या कूका के नाम से पुकारते थे। इसलिए महाराणा प्रताप को कीका भी कहा जाता है। अपने पिता उदय सिंह के साथ जंगल में पानी में रहकर प्रताप युद्ध कला एवं छापामार युद्द में पारंगत हुए थे।

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How many Wife of Maharana Pratap : कई इतिहासकारों का कहना है कि उनकी 12 पत्नियां थीं, लेकिन कहा जाता है कि उनकी प्रमुख पत्नियां अजबदेह पंवार, रानी सोलंकीनी पुबाई, फूल कंवर राठौड़ प्रथम, चंपा कंवर झाला, रानी जसोबाई चौहान, रानी फूल बाई राठौड़, रानी शहमाती बाई हाड़ा, रानी खीचर अशबाई, रानी आलमदेबाई चौहान, रानी अमरबाई राठौड़, लखाबाई राठौड़ आदि थीं। जब How many Wife of Maharana Pratap की बात होती है तो यह भी बताया जाता है कि उनकी 4 रानी मुस्लिम थीं।

महाराणा की मृत्यु : बताया जाता है कि महाराणा प्रताप के पांव में असावधानी बरतने से कमाल लग गई थी, जिससे बीमार होकर अंत में 19  जनवरी 1597 में महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई। बताया जाता है कि महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर भी राये थे। उन्होंने कहा था कि आज देश का एक वीर चला गया। महाराणा प्रताप का चावंड के निकट बंडोली गांव के पास बहने वाले नाले के तट पर अंतिम संस्कार हुआ। वहीं उनकी एक छोटी सी छतरी बना दी गई थी। Maharana Pratap ki Kahani अपने आप में एक इतिहास है।

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