तेजस्वी यादव के सीएम बनने की राह में ‘6’ कांटे

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‘छठा’ तो लालू के बेटे के लिए असल ‘चक्रव्यूह

दीपक कुमार तिवारी 

पटना। प्रशांत किशोर बिहार में पारंपरिक राजनीति का विकल्प बन पाएंगे या नहीं, यह तो कोई ज्योतिषी ही पक्के तौर पर कह सकता है। दूसरे अगर ऐसा कहते हैं तो यकीनन प्रशांत किशोर के वे पैरोकार ही होंगे। पर, हकीकत से मुंह मोड़ना किसी राजनीतिक दल या खुद को सियासत का सूबेदार समझने वाले के लिए शुभ नहीं होगा। हकीकत यह है कि बिहार की जनता के लिए प्रशांत किशोर का नाम अब अनजाना नहीं रहा।

लालू, नीतीश और तेजस्वी को गांव-शहर के लोग चेहरा देख कर पहचान जाते हैं। प्रशांत पहली बार रूबरू हुए हैं तो चेहरा शायद सभी लोग न पहचानें, पर नाम सभी जान गए हैं। इसका असर भी थोड़ा-थोड़ा दिखने लगा है। यह प्रशांत के सियासत में जमते जा रहे पांव की आहट है।
प्रशांत किशोर का राजनीति में उदय जिस अंदाज में हो रहा है, उससे उनका कद ऊंचा होने के आसार तो बन ही गए हैं।

अब यह सवाल लाजिमी है कि ऐसा हुआ तो पीके किसके लिए खतरा बनेंगे। प्रशांत किशोर से सबसे अधिक खतरा नीतीश कुमार को नहीं है। इसलिए कि प्रशांत राजनीति में उठान पर हैं तो नीतीश उम्र की ढलान पर। उनको पीके से खतरे की परवाह करने की जरूरत ही नहीं। रही बात तेजस्वी की, तो वे भी प्रशांत से ऊंचे हैं। हालांकि अनुभव में वे नीतीश के पासंग भर होंगे। हां, अगर फर्क है तो सिर्फ ओहदे का। पीके जन नेता बनने की ओर अग्रसर हैं तो तेजस्वी बन चुके हैं।

दो बार बिहार का डेप्युटी सीएम और विधायक रहने से ओहदे में प्रशांत से बहुत आगे हैं तेजस्वी। पर, वे खतरे के प्रति अलर्ट न रहे तो सीएम बने का सपना शायद ही साकार हो पाएगा।
अब बिहार के एक और संभावनाशील राजनीतिज्ञ के बारे में भी देख लेते हैं। चिराग पासवान तो अब तेजस्वी से भी ऊपर उठ चुके हैं। अपने सभी पांच उम्मीदवारों को संसद तक पहुंचाने का श्रेय उन्हें जाता है।

सियासत में धैर्य और निष्ठा हमेशा निष्फल ही नहीं होते, बल्कि कई दफा सुफल भी देते हैं। नरेंद्र मोदी के प्रति अकूत निष्ठा और असीमित धैर्य दिखाने का सुफल भी चिराग को मिल गया है। अब वे मोदी के सहयोगी मंत्री बन गए हैं। हालांकि वे भी अनुभव और ओहदे में नीतीश से नीचे ही माने जाएंगे। एक-एक सांसद की मारामारी के बीच पांच सांसदों के नेता के रूप में उनका सिर कितना ऊंचा रहता होगा, अनुमान लगा सकते हैं। फिर भी बिहार में उनका एक भी विधायक नहीं है। इसके लिए चिराग ने जमीन भी तैयार कर ली है। सिर्फ अवसर का इंतजार है। यानी चिराग भी तेजस्वी के लिए खतरा ही हैं।

नीतीश के पाला बदल के अतीत को देख कर तेजस्वी निश्चिंत होंगे तो यह उनका भ्रम है। अपने लिए ही नीतीश इधर-उधर होते रहे है, किसी चैरिटी के मिजाज से नहीं। तेजस्वी को लगता होगा कि नीतीश कुमार लालू के साथ मौके-बेमौके छोटे-बड़े भाई की भूमिका में होते ही रहे हैं। वर्ष 2015 हो या 2022 का साल। लालू यादव के बच्चों के लिए नीतीश कभी नेहरू जी से भी बड़े चाचा बन जाते हैं तो कभी नो एंट्री का बोर्ड भतीजे उनके लिए लगा देते हैं। राबड़ी देवी भी भाभी-देवर के मधुर रिश्ते निभाने में अपनी ओर से भरसक कोई कमी नहीं होने देतीं।

देवर रिश्ते में ईमानदारी बरतते हैं या नहीं, यह तो वे ही बेहतर बता सकते हैं। दोनों भाइयों का ठिकाना करीब होने के बावजूद 2005 से 2013 तक एक दूसरे के घर जाने की फुर्सत किसी को नहीं मिली। मिली भी होगी तो जाने पर खेल खराब होने का अंदेशा जो था। इस दौरान न नीतीश ने लालू के घर जाने की जरूरत समझी और न उन्हें भाईचारा निभाने की आवश्यकता महसूस हुई। असली ज्ञान मिला 2014 के विधानसभा उपचुनावों के बाद।
दोनों के बीच दूरी मिट गई। मिलना जुलना आरंभ हो गया। पर, यह सिलसिला डेढ़ साल तक ही चल पाया। इसलिए कि दोनों करीब सिर्फ स्वार्थवश आए थे।

पहली बार 2015 में नीतीश ने लालू के साथ जोड़ी बनाई थी। उनको इसकी मजबूरी इसलिए पेश आई कि उनकी नाराजगी के बावजूद नरेंद्र मोदी 2014 में पीएम बन गए। अब वे किस मुंह से इतनी जल्दी रंग बदलते। बदनामी अलग से होती। इसलिए उन्हें ज्यादा उचित उस आरजेडी के आगे सरेंडर करना लगा, जिसके विरोध की बुनियाद पर खड़ी हुई पार्टी जेडीयू के नेता बतौर वे 10 साल सीएम रहे थे।

लालू यादव को भी ऐसे परिपक्व नेता की जरूरत थी, जो उनके दोनों बेटों को ट्रेनिंग दे सके। कुछ चीजें तो बच्चे उनके साथ रह कर सीख ही जाएंगे। लालू ने उन्हें सीएम बनाने में भी कोई आनाकानी नहीं की। इसमें लालू का अपना स्वार्थ था तो नीतीश कुमार का स्वार्थ सीएम की कुर्सी थी। उम्र के इस पड़ाव पर नीतीश अब शायद ही कूद-फांद करें। ऐसा हुआ तो यह तेजस्वी के लिए नुकसानदायक होगा। इसलिए तेजस्वी का नीतीश से अब पाला बदल की उम्मीद पालना बेमानी है। उन्हें राजनीति में खुद ही झंडा गाड़ना होगा। बहरहाल, प्रशांत किशोर नीतीश के लिए भी मुसीबत बनते दिख रहे हैं।

प्रशांत किशोर से असल खतरा तेजस्वी को ही है। अव्वल तो अपनी सभाओं में पीके निशाने पर तेजस्वी को ही रखते हैं। दूसरे अपने साथ वे जिन्हें गांव-गांव घूम कर जोड़ रहे हैं, उनमें लालू परिवार के प्रति अंधभक्ति दर्शाने वाले और तेजस्वी को बिहार का भविष्य बताने वाले यादव-मुस्लिम जमात के लोग भी शामिल हैं। यह दूसरे कहें तो पीके के प्रति अतिशयोक्ति होगी, पर यह बात तो डंके की चोट पर तेजस्वी की पार्टी आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह खुद कह रहे हैं। 6 जुलाई 2024 को उनकी ओर से जारी पत्र जो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ, उसमें यही बात तो उन्होंने कही है।

उन्होंने लिखा है कि आरजेडी कार्यकर्ता प्रशांत किशोर की सभाओं में जा रहे हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई होगी। इसका मतलब साफ है कि पीके का शंखनाद आरजेडी नेताओं के कानों तक पहुंच गया है। अगर ऐसा है तो यह तेजस्वी के लिए बड़ा खतरा है।

पीके का बिहार घूमते यह दूसरा साल है। पांच हजार किलोमीटर की यात्रा वे कर चुके हैं। उनकी यात्रा भी सरकारी खानापूरी जैसी नहीं रही। एक-एक पंचायत में चार-पांच दिन कैंप किया, बैठकें कीं, लोगों से मिले, गांव-गांव गए और संगठन खड़ा किया। उनकी जन सुराज यात्रा अब जन सुराज पार्टी भी बन चुकी है। एक विधानपार्षद और बिहार के बहुचर्चित रुपौली विधानसभा उपचुनाव में एक निर्दलीय की जीत में भी पीके का साथ माना जा रहा है। यह सब अभी हो रहा है तो पार्टी की विधिवत लांचिंग के बाद का अनुमान लगा सकते हैं। पीके की चुनावी रणनीति ऐसी कि राजनीति के सभी धुरंधर फेल।

बिहार विधानसभा की कुल 243 में 75 सीटों पर वे मुसलमान तो दलित-पिछड़ों को सर्वाधिक सीटों पर उम्मीदवार बनाएंगे। ऐसा हुआ तो आरजेडी के एम-वाई समीकरण का क्या हश्र होगा, आप अनुमान लगा सकते हैं। बिहार के 17 प्रतिशत से अधिक मुसलमानों पर अभी तक आरजेडी इतराता रहा है। जातिवादी राजनीति करने वाले नेता और उनकी पार्टियां क्या वंशवाद से बाहर निकल कर ऐसा कभी सोच सकते हैं। किस्मत ने साथ दिया तो कामयाबी, वर्ना कुछ नहीं तो तेजस्वी का खेल तो बिगाड़ ही देंगे प्रशांत।

तेजस्वी को न सिर्फ नीतीश और पीके से खतरा है, बल्कि उनकी राह में रोड़ा अटकाने वाले और भी हैं। चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा तो कदम-कदम पर कांटे बिछाएंगे। तेजस्वी से ही बिदक कर कुशवाहा जेडीयू से किनारे हो गए थे। चिराग अपने ऊपर उन्हें उठने नहीं देंगे। मांझी भी 2020 का अपमान नहीं भूले होंगे। नीतीश मेहरबान नहीं हुए होते तो मांझी पांच साल तक गुमनाम ही रह जाते।सीबीआई-ईडी की मुसीबत अलग है।

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