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गैस त्रासदी के 37 बरस: अभी भी थमा नहीं है भोपाल का मरना!

थमा
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अनिल जैन
भोपाल गैस त्रासदी को पूरे 37 बरस हो चुके हैं। दो और तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड के कारखाने से निकली जहरीली गैस (मिक यानी मिथाइल आइसो साइनाइड) ने अपने-अपने घरों में सोए हजारों लोगों को एक झटके में हमेशा-हमेशा के लिए सुला दिया था। जिन लोगों को मौत अपने आगोश में नहीं समेट पाई थी वे उस जहरीली गैस के असर से मर-मर कर जिंदा रहने को मजबूर हो गए थे। ऐसे लोगों में कई तो उचित इलाज के अभाव में मर गए और और जो किसी तरह जिंदा बच गए उन्हें तमाम संघर्षों के बावजूद न तो आज तक उचित मुआवजा मिल पाया है और न ही उस त्रासदी के बाद पैदा हुए खतरों से पार पाने के उपाय किए जा सके हैं।
अब भी भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने का सैकड़ों टन जहरीला मलबा उसके परिसर में दबा या खुला पड़ा हुआ है। इस मलबे में कीटनाशक रसायनों के अलावा पारा, सीसा, क्रोमियम जैसे भारी तत्व हैं, जो सूरज की रोशनी में वाष्पित होकर हवा को और जमीन में दबे रासायनिक तत्व भू-जल को जहरीला बनाकर लोगों की सेहत पर दुष्प्रभाव डाल रहे हैं। यही नहीं, इसकी वजह से उस इलाके की जमीन में भी प्रदूषण लगातार फैलता जा रहा है और आसपास के इलाके भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। मगर न तो राज्य सरकार को इसकी फिक्र है और न केंद्र सरकार को।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बेहद खर्चीला और बहुप्रचारित देशव्यापी स्वच्छता अभियान चला रखा है, उसमें भी इस औद्योगिक जहरीले कचरे और प्रदूषण से मुक्ति का महत्वपूर्ण पहलू शामिल नहीं है। मध्य प्रदेश में भी इस त्रासदी के बाद कई सरकारें आई और गई- कांग्रेस की भी और भाजपा की भी लेकिन इस जहरीले और विनाशकारी कचरे के निपटान का मसला उनके एजेंडे में जगह नहीं बना पाया। उनके एजेंडे में रहीं- नर्मदा परिक्रमा, बुजुर्गों के लिए तीर्थ दर्शन यात्रा जैसी योजनाएं या फिर विकास के नाम पर पर्यावरण को तहस-नहस करने वाली खर्चीली परियोजनाएँ, जिनमें भ्रष्टाचार की असीम संभावनाएं रहती हैं।
भोपाल गैस त्रासदी की भयावहता और उसके दूरगामी परिणामों की तुलना दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए उन परमाणु हमलों से की जा सकती है जो अमेरिका ने किए थे। उन हमलों में दोनों शहर पूरी तरह तबाह हो गए थे और डेढ़ लाख से अधिक लोग मारे गए थे। इस सिलसिले में भोपाल गैस त्रासदी के करीब डेढ़ वर्ष बाद अप्रैल 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ के यूक्रेन में चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा सयंत्र में हुए भीषण विस्फोट को भी याद किया जा सकता है, जिसमें जान-माल का भारी नुक़सान हुआ था। करीब 3.50 लाख लोग विस्थापन के शिकार हुए थे तथा रूस, यूक्रेन और बेलारूस के करीब 55 लाख लोग विकिरण की चपेट में आए थे।
हिरोशिमा और नागासाकी को 76 वर्ष, भोपाल गैस त्रासदी को 37 वर्ष और चेर्नोबिल को 35 वर्ष बीत गए हैं, लेकिन दुनिया का शासक वर्ग अभी भी तर्क सीखने को तैयार नहीं है। वह पूरी दुनिया को ही हिरोशिमा-नागासाकी, भोपाल और चेर्नोबिल  में तब्दील कर देने की मुहिम में जुटा है। दुनिया के तमाम विकसित देश इस मुहिम के अगुवा बने हुए हैं और हमारा देश उनका पिछलग्गू। देश में विकास के नाम पर जगह-जगह विनाशकारी परियोजनाएं जारी हैं- कहीं परमाणु बिजली घर के रूप में, कहीं औद्योगीकरण के नाम पर, कहीं बड़े बांधों के रूप में और कहीं स्मार्ट सिटी के नाम पर। सरकारों ने तो विदेशी निवेश के नाम पर विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए समूचे देश को आखेटस्थली बना दिया है। अमेरिका की यूनियन कार्बाइड कंपनी ऐसी ही एक कंपनी थी, जिसके कारखाने से निकली जहरीली गैस आज भी भोपाल की सांसों में घुली हुई है।
तात्कालिक तौर पर लगभग दो हजार और उसके बाद से लेकर अब तक कई हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार विश्व की यह सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी आज करीब साढ़े तीन दशक बाद भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खड़ी हुई है।
इस त्रासदी के 37 साल बीत जाने के बावजूद प्रशासन अभी तक त्रासदी में मारे गए लोगों से जुड़े आंकड़े उपलब्ध नहीं करा सका है। गैर सरकारी संगठन जहां इस गैस कांड से अब तक 25 हजार से ज्यादा लोगों के मारे जाने का दावा करते हैं, वहीं राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक़ इस हादसे में 5295 लोग मारे गए और साढ़े पांच लाख लोग जहरीली गैस के असर से विभिन्न बीमारियों के शिकार हुए। मगर हकीकत में यह संख्या कहीं ज्यादा है, क्योंकि 1997 के बाद सरकार ने गैस पीड़ितों के बारे में पता लगाना बंद कर दिया। यूनियन कार्बाइड कारखाने के परिसर में रखे गए 350 मीट्रिक टन जहरीले रासायनिक कचरे की वजह से भी हर साल बढ़ते रोगियों के आंकड़े नहीं जुटाए जा रहे हैं।
बीसवीं सदी की इस सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी में हुई बेहिसाब जनहानि के बाद बड़ा मुद्दा जिम्मेदारी और जवाबदेही का सामने आया। अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड की भारत स्थित इकाई का तत्कालीन अध्यक्ष वॉरेन एंडरसन जो उस समय बचकर हमारे राजनीतिक नेतृत्व की मेहरबानी से अमेरिका भाग गया था, उसकी तो कुछ साल पहले अमेरिका में मौत हो गई। वह अपनी कंपनी की आपराधिक लापरवाहियों का नतीजा भुगते बिना ही दुनिया से चला गया। लेकिन पीड़ितों को उचित मुआवजा दिलाने का सवाल भी लटका हुआ है।
1989 में भारत सरकार ने 47 करोड़ डॉलर मुआवजे के लिए कार्बाइड के साथ अदालत के बाहर समझौता कर लिया था। लेकिन जिस पैमाने की त्रासदी भोपाल ने देखी, उसकी तुलना में यह राशि नगण्य ही थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर सवाल उठाए। लेकिन अपने देश में उद्योगों को उत्तरदायी बनाने की अपर्याप्त वैधानिक व्यवस्था और सरकारों की लापरवाही के कारण पीड़ितों को इंसाफ नहीं मिला तो नहीं ही मिला।
ऐसा नहीं है कि यूनियन कार्बाइड कंपनी के साथ सिर्फ तत्कालीन कांग्रेस सरकार की ही हमदर्दी रही। मध्य प्रदेश में 1990 से 1992 के दौरान रही भाजपा की सरकार भी उसकी खिदमतगार रही है। गैस पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा दिलाने के लिए उसने भी सुप्रीम कोर्ट में मामले को प्रभावी तरीके से उठाने में भरपूर कोताही बरती। अभी भी पिछले 18 वर्षों से (बीच में एक वर्ष कांग्रेस सरकार का छोड़कर) राज्य में भाजपा की सरकार है, लेकिन यह मुद्दा उसकी भी प्राथमिकता में कभी जगह नहीं बना पाया।
जहां तक यूनियन कार्बाइड कारखाने के परिसर में रखे 350 टन जहरीले रासायनिक कचरे का सवाल है, उसका निपटान सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी नहीं हो सका है और निकट भविष्य में भी होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं। गैस त्रासदी के 35 साल बाद भी कारखाने के गोदाम में रखे या जमीन में दबे जहरीले कचरे में तमाम कीटनाशक रसायन और लेड, मर्करी और आर्सेनिक मौजूद हैं, जिनका असर अभी कम नहीं हुआ है। यह खुलासा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने कारखाने के गोदाम में रखे जहरीले कचरे की जांच रिपोर्ट में किया है। इस कचरे की वजह से भोपाल और उसके आसपास का पर्यावरण और विशेषकर भूजल दूषित हो रहा है।
अनेक अध्ययन बताते हैं कि यूनियन कार्बाइड के कारखाने वाले इलाके में रहने वाली महिलाओं में आकस्मिक गर्भपात की दर तीन गुना बढ़ गई है। पैदा होने वाले बच्चों में आंख, फ़ेफड़े, त्वचा आदि से संबंधित समस्याएं लगातार बनी रहती हैं। उनका दिमागी विकास भी अपेक्षित गति से नहीं होता है। इस इलाके में कैंसर के रोगियों की संख्या में भी लगातार इजाफा हो रहा है, लेकिन कानूनी और पर्यावरणीय उलझनों के चलते इस कचरे का समय रहते समुचित निपटान नहीं किया जा सका।
भोपाल गैस त्रासदी के बाद से ही मांग की जाती रही है कि औद्योगिक इकाइयों की जवाबदेही स्पष्ट की जाए। मगर अभी तक सभी सरकारें इससे बचती रही हैं। इसी का नतीजा है कि भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ित परिवारों को आज तक मुआवजे के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जो लोग स्वास्थ्य संबंधी गंभीर परेशानियां झेल रहे हैं, उनकी तकलीफों की कहीं सुनवाई नहीं हो रही है। भोपाल गैस त्रासदी के मामले में जब औद्योगिक कचरे के निपटान में अब तक ऐसी अक्षम्य लापरवाही बरती जा रही है, तो वैसे मामलों मे सरकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है, जो चर्चा का विषय नहीं बन पाते।