प्रोफेसर राजकुमार जैन
सोशलिस्टों का कांग्रेस से क्या रिश्ता था, और आज के माहौल में कैसा होना चाहिए? तवारीख के पन्ने पलटने पर इस सवाल का माकूल जवाब मिलता है।
सोशलिस्टों के लिए यह दिन खास अहमियत रखता है। क्योंकि एक पार्टी के रूप में “कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी” की स्थापना इसी दिन पटना के अंजुमन इस्लामिया हाल मे आयोजित सम्मेलन में हुई थी। हर हिंदुस्तानी इस बात से वाकिफ है कि बरतानिया हुकूमत की गुलामी से आजादी, महात्मा गांधी की रहनुमाई मैं अखिल भारतीय कांग्रेस के झंडे के नीचे हुए संघर्ष से मिली थी। हिंदुस्तान के सभी सोशलिस्ट नेता और कार्यकर्ता महात्मा गांधी को अपना नेता तथा कांग्रेस पार्टी को अपनी पार्टी मानते थे। सवाल उठता है कि फिर क्यों सोशलिस्टों ने कांग्रेस में रहते हुए अलग से कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई, इसके क्या कारण थे? इसको जानना बेहद जरूरी है। आजादी की लड़ाई में सोशलिस्टों की दोहरी भूमिका थी संघर्ष करने, यातना सहने, लंबे-लंबे कारावास को भोगने का कार्य तो उनके नेताओं और कार्यकर्ताओं ने किया ही परंतु दूसरा काम जो सोशलिस्टो ने किया कि आजादी के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक सवालों पर कैसी नीतियां, सिद्धांत बने, जिससे आजादी के बाद शोषण मुक्त समाज कायम हो सके। क्योंकि उस समय गांधी जी का मानना था कि हमारे सामने पहला सवाल आजादी का है, हमें वही तक महदूद रहना है। सोशलिस्टो ने भी आजादी के संघर्ष को प्राथमिक माना तथा उसमें कांग्रेस की केंद्रीय भूमिका को कबूल करते हुए सामाजिक-आर्थिक वैचारिक दबाव बनाकर कांग्रेस को एक समाजवादी संगठन के रूप में ताकतवर बनाकर तथा स्वाधीनता संग्राम का आधार व्यापक बनाने के मकसद से कांग्रेस का सदस्य रहते हुए भी 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना पटना में की थी। जंगे आजादी मे महात्मा गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान, सुभाष चंद्र बोस पंडित जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, सरदार पटेल के साथ-साथ आचार्य नरेंद्रदेव, जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, युसूफ मेहर अली, कमला देवी चट्टोपाध्याय, फरीदुल हक अंसारी वगैरा सोशलिस्ट नेता भी पूरी ताकत से डटे थे। गुलामी की जंजीर तोड़ना, अंग्रेज राज से मुक्ति महात्मा गांधी और कांग्रेस का एकमात्र मकसद था। कांग्रेस के अंदर और बाहर कई ऐसे तबके थे जो सोशलिस्टों पर आरोप लगाते थे कि आजादी के मार्ग में वे बाधक बन रहे हैं क्योंकि उनकी नीतियों के कारण कांग्रेस के आंदोलन में शरीक राजा- महाराजा, जमीदार जागीरदार, स्वराज पार्टी की विचारधारा वाले लोग आंदोलन से छिटक जाएंगे। इन शंकाओं और सवालो का जवाब देते हुए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पटना अधिवेशन में 17 1934 को पार्टी के संस्थापक अध्यक्ष, आचार्य नरेंद्र देव ने कहा था
“हम एक ऐसे समय में मिल रहे हैं जब हमारा राष्ट्रीय संगठन (कांग्रेस) एक संकट से गुजर रहा है। दूरगामी महत्व के सवालों पर विचार करने के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक कल होने जा रही है। हमारा यह कर्तव्य है कि इस सम्मेलन में हम यह निर्णय करें कि उस महान सभा को महत्वपूर्ण निर्णय लेने में हमारा क्या योगदान होगा। राष्ट्रवादी आंदोलन को समाजवाद की दिशा की ओर मोड़ने की कोशिश करने पर हमें तुरंत इस आलोचना का शिकार होना पड़ता है कि राष्ट्रवाद और समाजवाद को मिलाना मुश्किल है और अगर अपने मुल्क में हम समाजवाद स्थापित करना चाहते हैं तो हम कांग्रेस के बाहर अपना एक अलग आजाद ग्रुप क्यों नहीं बना लेते? उसकी नीति से आजाद होकर काम क्यों नहीं करते साथ ही निम्नमध्यवर्गीय वर्ग- संगठन के प्रतिक्रियावादी प्रभावो से अपने को मुक्त क्यों नहीं कर लेते।
इस सवाल का जवाब देते हुए आचार्य नरेंद्र देव ने कहा कि हम अपने को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ चलने वाले महान राष्ट्रीय आंदोलन से अलग करना नहीं चाहते और कांग्रेस आज उसी का प्रतीक है। हम यह कबूल करते हैं कि कांग्रेस में आज कमीयां और खराबियां है: फिर भी वह देश में आसानी से सबसे बड़ी क्रांतिकारी शक्ति बन सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संघर्ष का वर्तमान चरण बुर्जुआ लोकतांत्रिक क्रांति है। अतः राष्ट्रीय आंदोलन से अपने को अलग कर लेना आत्मघाती नीति होगी। विलाशक कांग्रेस उस राष्ट्रीय आंदोलन की नुमांइदगी करती है। एक और सवाल है- कांग्रेस से हमारे रिश्तों का। यह कोई मुश्किल मामला नहीं है और आसानी से सुलझाया जा सकता है। पहली बात तो यह है कि हमारा संगठन कांग्रेस पार्टी के भीतर है। यही बात बड़ी सीमा तक हमारे रिश्ते के की व्याख्या कर देती है। हम कांग्रेस के हिस्से हैं। इसकी मुखालफत या उसके प्रति हमलावर होने का सवाल ही नहीं है। एक पार्टी के तौर पर हमें कांग्रेस की हलचलों में उन्हें अपना ही समझते हुए भाग लेना है, उन मुद्दों को छोड़कर जिन पर कांग्रेस की किसी निश्चित नीति से हम असहमत हैं। तथा साथ ही एक छोटे समूह के नाते, कांग्रेस के भीतर अपने विचारों के प्रचार का हमें अधिकार है तथा अपनी नीति एवं दिशा पर चलते हुए हमें कांग्रेस की जो नीतियां आम लोगों के हित में न लगे, उनकी समीक्षा और विरोध तक करना चाहिए।
हमारे यह मानने के बावजूद कि वर्तमान भारतीय हालात में दोनों क्रांतियों को साथ-साथ लाने की संभावना है, एक गुलाम देश के लिए राजनीतिक आजादी समाजवाद के रास्ते में एक पड़ाव है। लेकिन इन मामलों में कोई निश्चिततता नहीं हो सकती। बहुत कुछ आजादी के आंदोलन के नेतृत्व के गुणो पर निर्भर करेगा। अगर नेतृत्व समाजवादी सिद्धांतों से लैस, राजनीतिक दूरदर्शिता से संपन्न और साहस से काम कर सके और हालात अनुकूल हो तो वह निश्चित तौर पर इससे फायदा उठाएगा”।
कांग्रेस के अंदर सोशलिस्ट पार्टी के गठन तथा आजादी के संघर्ष के साथ, समाजवादी विचारों को थौंप कर आजादी की लड़ाई को कमजोर करने के आरोप का जवाब देते हुए डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने 5 दिसंबर 1936 को बिहार प्रांतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी सम्मेलन में अध्यक्ष की हैसियत से कहा था: “हमसे सवाल किया जा सकता है कि तुम सोशलिस्ट पार्टी क्यों बनाये बैठे हो। जब तुम्हारा तात्कालिक लक्ष्य साम्राज्य विरोध (अंग्रेजी राज्य से मुक्ति) है तो तुम कांग्रेस के अतिरिक्त एक सोशलिस्ट पार्टी क्यों बनाये हो? इसका सीधा-साधा उत्तर तो यही है कि हमारा दूसरा लक्ष्यचाहे वह इतना तात्कालिक न हो, समाजवाद है। लेकिन यह संपूर्ण उत्तर न होगा। हमारी सोशलिस्ट पार्टी इसलिए भी है कि हम समाजवाद के जरिए इतिहास के परिवर्तन के नियमों को अच्छी तरह समझ सकते हैं, सभी प्रगतिशील लड़ाइयों में बढ़कर हाथ बंटा सकते हैं और इसके परिणाम स्वरूप स्वतंत्रता संग्राम को भी ज्यादा अच्छी तरह चला सकते हैं। इसलिए जब हम आजकल अक्सर यह उपदेश सुनते हैं कि समाजवादियों को पहले स्वराज का प्रश्न हल करना चाहिए, फिर बाद में वह समाजवाद की बात करें, तो हमें इस उपदेश के बेतुकेपन पर हंसी आती है। हम में किसने कब और कहां कहा है कि राष्ट्रीय आजादी के पहले ही हम समाजवादी आजादी हासिल करने का हौसला रखते हैं। हमने तो साफ-साफ कहा है कि राष्ट्रीय आजादी ही हमारा तात्कालिक लक्ष्य है। फिर भी हमें यह उपदेश क्यों दिया जाता है?”
आज की नरेंद्र मोदी की सरकार जब जम्हूरियत को ही खत्म करने पर उतारू है, सदियों से चली आ रही गंगा जमुनी तहजीब के खात्में, मूल्क की पूरी मिल्कियत को चंद धन पशुओं के हाथ में खुल्लम खुल्ला बेधड़क दे रही है, तब सोशलिस्टों को कांग्रेस के साथ रिश्ते पर नये सिरे से सोचना, वक्त की अहमियत है।
हांलाकि मेरी आज भी तमन्ना है कि कोई एक लोहिया के सपने वाली सोशलिस्ट पार्टी बने ताकि हल चक्र के निशान वाले झंडे के नीचे मैं अपना सफर पूरा कर सकूं।