
नई दिल्ली। दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने 27 वर्षों के लंबे राजनीतिक वनवास के बाद राजधानी की सत्ता में वापसी की। यह अवसर एक ऐतिहासिक मोड़ कहा जा सकता है। परंतु 100 दिन पूरे होने के उपलक्ष्य में सरकार द्वारा किए जा रहे आत्मश्लाघा के प्रदर्शन के बीच ज़रूरी है कि हम जमीनी सच्चाई को भी उजागर करें। क्योंकि किसी भी सरकार का मूल्यांकन वादों से नहीं, जनता के जीवन में आए सुधार से होना चाहिए।
बुनियादी ढांचे की दुर्दशा – पुराने ढांचे पर नई चुप्पी
राजधानी में सड़कों की स्थिति, सीवर प्रणाली की खस्ताहाली, जलभराव की नियमित समस्या, प्रदूषण , यातायात समस्या, दूषित पेयजल आपूर्ति और कचरा प्रबंधन इत्यादि में एक प्रतिशत भी सुधार नहीं हुआ है। सड़कों की मरम्मत और नियमित देखरेख गायब है। सीवर ओवरफ्लो और बारिश के समय जलभराव अब भी आम बात है। दूषित जल आपूर्ति से स्वास्थ्य संकट की स्थिति बनी रहती है। प्रदूषण नियंत्रण पर कोई ठोस रणनीति अभी तक सामने नहीं आई है। इतनी स्पष्ट विफलताओं के बावजूद सरकार अपनी नाकामियों को पिछली सरकारों के मत्थे मढ़ रही है। क्या ये इस बात का संकेत नहीं कि सरकार के पास न अपना कोई विज़न है, न ही कोई मिशन?
सरकार की संवेदनहीनता की सबसे बड़ी मिसाल
दिल्ली के निजी स्कूलों द्वारा छात्रों और अभिभावकों का शोषण सरकार की निष्क्रियता और निजी संस्थानों से सांठगांठ को दर्शाता है। डीपीएस द्वारका और अन्य कई सैकड़ों स्कूलों के खिलाफ अभिभावकों ने संगठित विरोध किया। मीडिया और सोशल मीडिया पर जबरदस्त कवरेज के बावजूद कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई। मुख्यमंत्री और शिक्षा मंत्री केवल कैमरे के सामने बयानबाज़ी और दिखावटी बैठकें करते रहे।
यहां तक कि जब डीएम स्तर की जांच में स्कूल दोषी पाए गए, तब भी न स्कूल पर कार्रवाई हुई, न ही बच्चों को राहत दी गई। राजनीतिक श्रेय की होड़ में शिक्षा मंत्री आशीष सूद ने राहत का श्रेय भी खुद ले लिया, जबकि राहत अदालत द्वारा दी गई थी।
यहाँ एक बड़ा प्रश्न उठता है:
फीस नियंत्रण विधेयक – जन भावनाओं का दमन
बीजेपी सरकार द्वारा प्रस्तावित नया शिक्षा शुल्क नियंत्रण विधेयक पूरी तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अनदेखी है:
1. बिना अभिभावकों की राय लिए, बिल को सीधे प्रेस कांफ्रेंस में पेश किया गया।
2. मीडिया को यह झूठा संदेश दिया गया कि “ अभिभावक बहुत खुश हैं। ”
3. जब दिल्ली के हजारों अभिभावकों ने इसका प्रबल विरोध किया, तो
न तो सरकार ने इसे पब्लिक डोमेन में डाला न ही 30 दिन की चर्चा का अवसर दिया गया
4. अब आनन-फानन में ऑर्डिनेंस लाने की योजना बनाई जा रही है।
यह सरकार की तानाशाही सोच और पारदर्शिता की कमी को दर्शाता है।
जनता के विरोध की अनदेखी – प्रशासनिक अहंकार?
दिल्ली के अभिभावकों द्वारा:
मुख्यमंत्री
विधानसभा अध्यक्ष
विधानसभा सचिव
शिक्षा मंत्री
लीडर ऑफ ऑपोजिशन इत्यादि को ईमेल और ज्ञापन के माध्यम से बार-बार विरोध दर्ज कराया जा रहा है। परंतु सरकार ने अब तक कोई संज्ञान नहीं लिया।
यदि यही स्थिति रही, तो अभिभावक और जन संगठन अदालत का रुख करेंगे।
राष्ट्रीय युवा चेतना मंच के राष्ट्रीय महासचिव महेश मिश्रा ने एक बड़ा सवाल उठाया है:
> “जब दिल्ली में न्याय केवल अदालतों से ही मिलना है, तो सरकार की क्या आवश्यकता? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाए?”
उन्होंने कहा कि जब विधायक केवल वेतन लेने और पुराने शासन को दोष देने में व्यस्त हैं, जब हर समस्या अदालत के हवाले की जाती है, जब कोई ठोस नीति और जनकल्याण की योजनाएं सामने नहीं आ रही हैं, तो लोकतंत्र केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाता है।
सरकार को आत्ममंथन की आवश्यकता है, उत्सव की नहीं
बीजेपी सरकार के पहले 100 दिन:
कोई नीति आधारित पहल नहीं
कोई ढांचागत सुधार नहीं
कोई जनसमस्याओं का समाधान नहीं
सिर्फ बयानबाज़ी, प्रचार, और पूर्ववर्ती सरकारों को दोष
दिल्ली की जनता ने परिवर्तन के लिए मतदान किया था, बहानों के लिए नहीं।
हमारी मांगें:
1. निजी स्कूलों के खिलाफ कठोर कार्रवाई हो
2. प्रस्तावित फीस नियंत्रण विधेयक को सार्वजनिक किया जाए
3. डीपीएस द्वारका/रोहिणी, एपीजे साकेत, शेख सराय, समेत दिल्ली के सभी निजी स्कूलों में पीड़ित अभिभावकों को राहत दी जाए
4. जनहित के विषयों सड़क, सीवर, दूषित पेयजल आपूर्ति, प्रदूषण, यातायात समस्या, यमुना सफाई, कूड़ा कचरा निस्तारण इत्यादि पर सरकार पारदर्शिता और भागीदारी सुनिश्चित करे
5. विफल सरकार के विकल्प के रूप में राष्ट्रपति शासन पर गंभीरता से विचार किया जाए क्योंकि गौरतबल है कि पिछले दिनों सरकार द्वारा कोई भी राहत न प्राप्त होने पर अभिभावकों ने देश के संवैधानिक सर्वोच्च पदाधिकारियों राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री से करुणामई गुहार लगाई थी जिससे यह सुनिश्चित होता है कि अब उनको सरकार एवं प्रशासन पर विश्वास नहीं है।