13 अप्रैल… वह तारीख जब एक ओर उत्तर भारत के कई राज्यों में फसल
पकने की खुशी में बैसाखी का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। वहीं दूसरी ओर यह दिन एक बेहद दुखद घटना की याद दिलाता है। एक ऐसा वाकया, जो 105 साल के बाद भी दर्द को ताजा कर जाता है। हम बात कर • रहे है जलियांवाला बाग हत्याकांड की। वह वर्ष 1919 का 13 अप्रैल का ही दिन था, जब जलियांवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा के लिए जमा हुए हजारों निहत्थे भारतीयों पर अंग्रेज हुक्मरान ने अंधाधुंध गोलियां चतवाई थीं।
पंजाब के अमृतसर जिले में ऐतिहासिक स्वर्ण मंदिर के नजदीक जलियांवाला बाग में अंग्रेजों की गोलीबारी से बचने के लिए कई लोग कुएं में कूद गए थे। बाहर जाने का केवल एक ही रास्ता था, जो संकरा तो था ही, साथ ही अंग्रेज सैनिकों ने उसे रोक रखा था। बहुत से लोग भगदड़ में कुचले गए और हजारों लोग गोलियों की चपेट में आए। देखते ही देखते उस बाग में लाशों का ढेर लग गया और हजारों लोग घायल हो गए। जवान, बूढ़े, बच्चे, औरतें… हर कोई तो शामिल था उनमें। इस घटना ने देश के स्वतंत्रता संग्राम का रुख मोड़ दिया था। इस हत्याकांड के सबसे बड़े गुनहगार थे ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर और उस वक्त पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान पंजाब के क्षेत्र में ब्रिटिशर्स का विरोध कुछ अधिक बढ़ गया था, जिसे डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट, 1915 लागू कर के कुचल दिया गया। उसके बाद 1918 में एक ब्रिटिश जज सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता में एक सेडीशन समिति नियुक्त की गई। समिति के सुझावों के अनुसार डिफेस ऑफ इंडिया एक्ट, 1915 का विस्तार कर के भारत में रॉलेट एक्ट लागू किया गया, जो आजादी के लिए चल रहे आंदोलन पर रोक लगाने के लिए था। इस एक्ट में ब्रिटिश सरकार को और अधिक अधिकार दिए गए थे जिससे वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, नेताओं
को बिना मुकदमे के जेल में रख सकती थी, ट्राइब्यूनल्स और बंद कमरों में बिना जवाबदेही लोगों को बिना वॉरंट के गिरफ्तार कर सकती थी, उन पर विशेष मुकदमा चला सकती थी।
इस एक्ट का पूरे भारत में विरोध होने लगा। गिरफ्तारियां हुईं। पंजाब में आंदोलन के दो नेताओं सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को गिरफ्तार कर कालापानी की सजा दे दी गई। जलियांवाला बाग में सभा इस एक्ट और इन्हीं गिरफ्तारियों के विरोध में रखी गई थी। भारतीयों की मंशा यह सभा शांतिपूर्ण तरीके से करने की थी। लेकिन – ब्रिटिश सरकार के कई अधिकारियों को यह 1857 के गदर के दोहराव जैसी परिस्थिति लग रही थी और इसे न होने देने के लिए वे कुछ भी करने को तैयार थे।
तनाव बढ़ने पर हत्याकांड से एक दिन पहले ही पंजाब के अधिकतर हिस्सों में मार्शल लॉ की घोषणा हो चुकी थी। बैसाखी के दिन 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में आयोजित सभा में कुछ नेता भाषण देने वाले थे। शहर में कर्फ्यू होने के बावजूद सैकड़ों लोग आस पास के इलाकों से बैसाखी के मौके पर परिवार के साथ मेला देखने और शहर घूमने आए थे। सभा की खबर सुनकर वे भी वहां जा पहुंचे। बाग में हजारों की संख्या में लोग जमा हो ● चुके थे। तभी ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर १० सैनिकों को लेकर वहां पहुंचा। सबके हाथों में भरी हुई राइफल थीं। नेताओं ने सैनिकों को देखा, तो उन्होंने वहां मौजूद लोगों से शांत बैठे रहने के लिए कहा। तभी बिना किसी चेतावनी के डायर ने गोलियां चलवाना शुरू कर दिया। सैनिकों ने तब तक गोलियां बरसाईं, जब तक कि उनकी राइफल खाली नहीं हो गईं। 10 मिनट के अंदर कुल 1,650 राउंड गोलियां चलीं।
जलियांवाला बाग उस समय मकानों के पीछे पड़ा एक खाली मैदान था। चारों ओर मकान थे। बाग में आने-जाने के लिए केवल एक संकरा रास्ता था, जिसे अंग्रेजी हुकूमत के सैनिक घेरे हुए थे। भागने का कोई दूसरा रास्ता नहीं था। बचने के लिए कई लोग, बाग में बने कुएं में कूद पड़े। कुछ ही देर में जलियांवाला बाग में जवान, बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों समेत लोगों की लाशों का ढेर लग गया। इन ताशों में एक 6 सप्ताह का बच्चा भी था। बाग में लगी पट्टिका पर लिखा है कि 120 लाश तो सिर्फ कुए से ही निकलीं। अमृतसर के डिप्टी कमिश्रर कार्यालय में 484 शहीदों की सूची है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ऐसा भी कहा जाता है कि मरने वालों की संख्या सैकड़ों में नहीं बल्कि हजारों में थी। घायलों की संख्या भी हजारों में थी। शहर में कर्फ्यू के चलते घायलों को इलाज के लिए भी कहीं ते जाया नहीं जा सका।
इस हत्याकांड के बाद जनरल रेजीनॉल्ड डायर ने मुख्यालय पर वापस पहुंचकर अपने वरिष्ठ अधिकारियों को टेलीग्राम किया कि उस पर भारतीयों की एक फौज ने हमला किया था। बचने के लिए उसे गोलियां चलवानी पड़ीं। ब्रिटिश लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर ने इसके जवाब में ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को टेलीग्राम किया कि तुमने सही कदम उठाया।
इस बर्बरता ने भारत में ब्रिटिश राज की नींव हिला दी। हत्याकांड की पूरे विश्व में कड़ी निंदा हुई, जिसके दबाव में X सेक्रेटरी ऑफ स्टेट एडविन माँटेग्यू ने 1919 के अंत में इसकी जांच के लिए हंटर कमीशन नियुक्त किया। कमीशन के सामने जनरल डायर ने स्वीकार किया कि वह गोली चलाने का फैसला पहले से ही ले चुका था। इतना ही नहीं वह उन लोगों पर चलाने के लिए दो तोपें भी ले गया था, लेकिन अंदर जाने का रास्ता संकरा होने के कारण तोपें अंदर नहीं जा पाईं। हंटर कमीशन की रिपोर्ट आने पर 1920 में जनरल डायर को डिमोट कर कर्नल बना दिया गया। भारत में डायर के खिलाफ बढ़ते गुस्से के चलते उसे स्वास्थ्य कारणों के आधार पर ब्रिटेन वापस भेज दिया गया।
ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमंस ने डायर के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव पारित किया, लेकिन हाउस ऑफ लॉर्ड ने इस हत्याकांड की तारीफ की। पूरी दुनिया में हो रही आलोचना के दबाव में ब्रिटिश सरकार को निंदा प्रस्ताव पारित करना पड़ा और 1920 में जनरल डायर को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा।
उधम सिंह ने लिया था इस नरसंहार का बदला
जलियांगवाला बाग हत्याकांड ने जहां कई लोगों के दिलों में सिहरन पैदा कर दी थी, वहीं एक नौजवान ऐसा था, जिसके सीने में बदले की आग धधकने लगी थी। उसने कसम खा ली थी कि जलियांवाला बाग कांड के लिए जिम्मेदार पंजाब के गवर्नर माइकल ओ डायर और गोलियां चलवाने वाले जनरल डायर से बदला लेकर रहेगा। वह नौजवान था शहीद उधम सिंह। जनरल डायर की तो 1927 में बीमारी की वजह से मौत हो गई और उसे मारने की उधम सिंह की हसरत पूरी नहीं हो सकी। लेकिन माइकल ओ डायर का मरना अभी बाकी थी।
माइकल ओ डायर रिटायर होने के बाद हिंदुस्तान छोड़कर लंदन में बस गया था। शहीद उधम सिंह 1934 में लंदन पहुंचे और वहां उन्होंने एक कार और एक रिवॉल्वर खरीदी। सही मौका 6 साल बाद 13 मार्च 1940 को आया। कैक्सटन हॉल में माइकल ओ डायर का भाषण था। उधम सिंह एक किताब में रिवॉल्वर छिपा कर अंदर घुसने में कामयाब रहे। बीच भाषण में ही उधम सिंह ने डायर को गोली मारकर अपनी कसम पूरी कर दी। माइकल ओ डायर को मारने के बाद उधम सिंह ने भागने की कोशिश नहीं की। 31 जुलाई 1940 को पेंटविले जेल में उधम सिंह को फांसी दे दी गई।